महात्मा गाँधी की नजर में ईसाई मिशनरियाँ

महात्मा गाँधी की नजर में ईसाई मिशनरियाँ


लेखकः डॉ. कमल किशोर गोयनका

ईसाई मिशनरियों का विचार था कि गाँधी को ईसाई बना लिया जाय तो भारत को ईसाई देश बनाना बहुत आसान हो जायेगा।

दक्षिण अफ्रीका में कई बार ऐसे प्रयत्न हुए और भारत आने पर कई पादरियों, ईसाई मिशनरियों तथात 80 वर्ष के ए.डब्ल्यू बेकर, 86 वर्ष की एमिली किनेर्डके जैसे अनेक ईसाइयों ने उऩ्हें ईसाई बनाने के लिए प्रेरित किया और यहाँ तक कहा किः ʹयदि आपने ईसा मसीह को स्वीकार नहीं किया तो आपका उद्धार नहीं होगा।ʹ

(ʹहरिजनःʹ 4 अगस्त 1940)

गाँधी जी ईसा मसीह और उनके जीवन तथा ʹबाइबिलʹ एवं ईसाई सिद्धान्तों की परम्परागत ईसाई व्याख्या को अस्वीकार करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत करते थे। उन्होंने 16 जून, 1927 को डबल्यू. बी. स्टोवर को पत्र में लिखा भी था किः “मैं बाईबिलʹʹ या ʹईसाʹ के जीवन की परम्परागत व्याख्या को स्वीकार नहीं करता हूँ।”

गाँधी जी ने प्रमुख रूप से ईसा के ʹदेवत्वʹ तथा ʹअवतारʹ स्वरूप का खंडन किया।

उन्होंने आर.ए.ह्यूम को 13 फरवरी, 1926 को पत्र में लिखाः “मैं ईसा मसीह को ईश्वर का एकमात्र पुत्र या ईश्वर का अवतार नहीं मानता, लेकिन मानव जाति के एक शिक्षक के रूप में उनके प्रति मेरी बड़ी श्रद्धा है।”

गाँधी जी ने अनेक बार कहा और लिखा कि वे ईसा को अन्य महात्माओं और शिक्षकों की तरह ʹमानव प्राणीʹ ही मानते हैं। ऐसे शिक्षक के रूप में वे ʹमहान्ʹ थे परन्तु ʹमहानतम्ʹ नहीं थे। (गाँधी वाङमयः खंड 34, पृष्ठ 11)

गाँधी जी ने ईसा का ईश्वर का एकमात्र पुत्रʹ होने की ईसाई धारणा का भी खंडन किया और 4 अगस्त 1940 को हरिजन में लिखाः “वे ईश्वर के एक पुत्र भर थे, चाहे हम सबसे कितने ही पवित्र क्यों न रहे हों। परन्तु हम में से हर एक ईश्वर का पुत्र है और हर कोई वही काम करने की क्षमता रखता है जो ईसा मसीह ने कर दिखाया था, बशर्ते कि हम अपने भीतर विद्यमान दिव्यत्व को व्यक्त करने की कोशिश करें।” इसके साथ गाँधी जी ने ईसा के चमत्कारों का सतर्क भाषा में खंडन किया।

महात्मा गाँधी ने ईसाई अंधविश्वासों का अनेक रूपों में खंडन किया। ʹईसा मुक्ति के लिए आवश्यक है….ʹ उनकी इस मान्यता का उन्होंने अस्वीकार किया।

(11 दिसम्बर, 1927 का पत्र)

उन्होंने ईसा द्वारा सारे पापों को घी डालने की बात का भी सतर्क खंडन किया।

(यंग इंडियाः 22 दिसम्बर, 1927)

गाँधी जी ने यह भी अस्वीकार किया कि ʹधर्मांतरण ईश्वरीय कार्य है।ʹ उन्होंने ए.ए. पॉल को उत्तर देते हुए ʹहरिजनʹ के 28 दिसम्बर, 1935 के अंक में लिखा कि ईसाई धर्म  प्रचारकों का यह कहना कि ʹवे लोगों को ईश्वर के पक्ष में खींच रहे हैं और ईश्वरीय कार्य कर रहे हैं…ʹ तो मनुष्य ने यह कार्य उसके हाथों से क्यों ले लिया है ? ईश्वर से कोई कार्य छीनने वाला मनुष्य कौन होता है तथा क्या सर्वशक्तिमान् ईश्वर इतना असहाय है कि वह मनुष्यों को अपनी ओर नहीं खींच सकता ?

(गाँधी वाङमयः खंड 61, पृष्ठ 87 तथा 494)

गाँधी जी ने लंदन में 8 अक्टूबर, 1931 को ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की मिशनरी संस्थाओं के सम्मेलन में ईसाइयों के सम्मुख कहा कि ʹगॉड के रूप में ईश्वर की, जो सबका पिता है, पूजा करना मेरे लिए उचित नहीं होगा। यह नाम मुझ पर कोई प्रभाव नहीं डालता, पर जब मैं ईश्वर को राम के रूप में सोचता हूँ तो वह मुझे पुलकित कर देता है। ईश्वर को गॉड के रूप में सोचने से मुझमें वह भावावेश नहीं आता जो ʹरामʹ के नाम से आता है। उसमें कितनी कविता है ! मैं जानता हूँ कि मेरे पूर्वजों ने उसे ʹरामʹ के रूप में ही जाना है। वे राम के द्वारा ही ऊपर उठे हैं और मैं जब राम का नाम लेता हूँ तो उसी शक्ति से ऊपर उठता हूँ। मेरे लिए गॉड नाम का प्रयोग, जैसा कि वह बाइबिल में प्रयुक्त हुआ है, सम्भव नहीं होगा। उसके द्वारा सत्य की और मेरा उठना मुझे सम्भव नहीं लगता। इसलिए मेरी समूची आत्मा आपकी इस शिक्षा को अस्वीकार करती है कि ʹरामʹ मेरा ईश्वर नहीं है।ʹ

(गाँधी वाङमयः खंड 48, पृष्ठ 141)

महात्मा गाँधी ने 2 मई, 1933 को पं. जवाहरलाल नेहरू को पत्र में लिखाः “हिन्दुत्व के द्वारा मैं ईसाई, इस्लाम और कई दूसरे धर्मों से प्रेम करता हूँ। यह छीन लिया जाये तो मेरे पास रह ही क्या जाता है ?” …..और इसीलिए वे हिन्दू धर्म की रक्षा करना चाहते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं किः “हिन्दू धर्म की सेवा और हिन्दू धर्म की रक्षा को छोड़कर मेरी कोई दूसरी प्रवृत्ति ही नहीं है।”

(गाँधी वाङमयः खंड 37, पृष्ठ 100)

गाँधी जी एक और तर्क देते हैं। वे कहते हैं किः “धर्म ऐसी वस्तु नहीं जो वस्त्र की तरह अपनी सुविधा के लिए बदला जा सके। धर्म के लिए तो मनुष्य विवाह, घर-संसार तथा देश तक को छोड़ देता है।”

(मणिलाल गाँधी को लिखे पत्र से, 3 अप्रैल 1926)

ईसाई मिशनरियों का यह तर्क था कि वे भारत को शिक्षित, संस्कारी तथा धार्मिक बनाना चाहते हैं, तो गाँधी जी ने इन मिशनरियों से कहा किः “जो भारतवर्ष का धर्मपरिवर्तन करना चाहते हैं, उनसे यही कहा जा सकता है किः हकीमजी पहले अपना इलाज कीजिये न ?”

(ʹयंग इंडियाःʹ 23 अप्रैल, 1931)

गाँधी जी आगे कहते हैं किः “भारत को कुछ सिखाने से पहले यहाँ से कुछ सीखना, कुछ ग्रहण करना होगा।”

(ʹयंग इंडियाʹ 11 अगस्त, 1927)

ʹक्या मनुष्य का धर्मान्तरण हो सकता है ?ʹ महात्मा गाँधी ने अनेक बार इस प्रश्न का भी उत्तर दिया था। उनका मत था कि यह सम्भव नहीं है, क्योंकि कोई भी पादरी या धर्म प्रचारक नये अनुयायी को यह कैसे बतलायेगा कि ʹबाइबिलʹ का वह अर्थ ले जो वह स्वयं लेता है ? कोई भी पादरी या मिशनरी ʹबाइबिलʹ से जो प्रकाश स्वयं लेता है, उसे किसी भी दूसरे मनुष्य के हृदय में शब्दों के द्वारा उतारना सम्भव नहीं है।”

(ʹहरिजनʹ 12 दिसम्बर, 1936)

गाँधी जी कई बार नये बने ईसाइयों की दुश्चरित्रता तथा मिशनरियों के कुकृत्यों का उल्लेख करते हैं। वे अपनी युवावस्था की एक घटना की चर्चा करते हुए कहते हैं-

“मुझे याद है, जब मैं नौजवान था उस समय एक हिन्दू ईसाई बन गया था। शहर भर जानता था कि नवीन धर्म में दीक्षित होने के बाद वह संस्कारी हिन्दू ईसा के नाम पर शराब पीने लगा, गोमांस खाने लगा और उसने अपना भारतीय लिबास छोड़ दिया। आगे चलकर मुझे मालूम हुआ, मेरे अनेक मिशनरी मित्र तो यही कहते हैं कि अपने धर्म को छोड़ने वाला ऐसा व्यक्ति बन्धन से छूटकर मुक्ति और दारिद्रय से  छूटकर समृद्धि प्राप्त करता है।”

(यंग इंडियाः 20 अगस्त, 1925)

“अभी कुछ दिन हुए, एक मिशनरी एक दुर्भिक्षपीड़ित अंचल में पैसा लेकर पहुँच गया। अकाल पीड़ितों को उसने पैसा बाँटा, उन्हें ईसाई बनाया, फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुड़वा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है ? जिन हिन्दुओं ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया था, उनका अधिकार तो उस मंदिर पर नहीं रहा था और ईसाई मिशनरी का भी उस पर कोई हक नहीं था, पर वह मिशनरी वहाँ पहुँचता है और जो कुछ ही समय पहले यह मानते थे कि उस मंदिर में ईश्वर का वास है, उन्हीं के हाथ से उसे तुड़वा डालता है।”

(गाँधी वाङमयः खंड 61, पृष्ठ 49)

गाँधी जी ईसाई धर्म के एक और ʹव्यंग्य चित्रʹ की ओर मिशनरियों का ध्यान आकर्षित करते हैं कि यदि मिशनरियों की संख्या बढ़ती है तो हरिजनों में आपस में ही लड़ाई-झगड़े और खून खराबे की घटनाएँ बढ़ेंगी।

गाँधी जी इसी कारण ईसाइयों के धर्मान्तरण को ʹअशोभनʹ, ʹदूषितʹ, ʹहानिकारकʹ, ʹसंदेह एवं संघर्षपूर्णʹ, ʹअध्यात्मविहीनʹ, ʹभ्रष्ट करने वालाʹ, ʹसामाजिक ढाँचे को तोड़ने वालाʹ तथा ʹप्रलोभनों से पूर्णʹ कहते हैं। गाँधी जी का सम्पूर्ण वाङमय पढ़ जायें, ऐसी ही कटु आलोचनाओं से भरा पड़ा है।

गाँधी जी ने ईसाई मिशनरियों द्वारा चिकित्सा एवं शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कार्यों की कई बार प्रशंसा भी की, किन्तु उन्होंने इसके मूल में विद्यमान प्रलोभनों तथा उनके धर्म परिवर्तन के उद्देश्य पर गहरी चोट करते हुए एक मिशनरी से कहाः “जब तक आप अपनी शिक्षा और चिकित्सा संस्थानों से धर्मपरिवर्तन के पहलू को हटा नहीं देते, तब तक उनका मूल्य ही क्या है ? मिशन स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों को ʹबाइबिलʹ की कक्षाओं में भाग लेने को बाध्य क्यों किया जाता है या उनसे इसकी अपेक्षा ही क्यों की जाती है ? यदि उनके लिए ईसा के संदेशों को समझना जरूरी है तो बुद्ध और मुहम्मद के संदेश को समझना जरूरी क्यों नहीं है ? धर्म की शिक्षा के लिए शिक्षा का प्रलोभन क्यों देना चाहिए ?”

(हरिजनः 17 अप्रैल,1937)

चिकित्सा क्षेत्र में गाँधी जी ने ईसाइयों द्वारा कोढ़ियों की सेवा करने की भी तारीफ की, लेकिन यह भी कहा कि “ये सारे रोगियों और सारे सहयोगियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे धर्मपरिवर्तन करके ईसाई बन जायें।”

(हरिजनः 25 फरवरी, 1939)

गाँधी जी इन प्रलोभनों की धर्मनीति से व्याकुल थे। वे जानते थे कि अमेरिका तथा इंग्लैण्ड से ईसाई मिशनरियों के पास खूब धन आता है और उसका उपयोग मूलतः धर्मपरिवर्तन के लिए ही होता है। अतः उन्होंने स्पष्ट कहा कि  “आप ʹईश्वरʹ और ʹअर्थ-पिशाचʹ दोनों की सेवा एक साथ नहीं कर सकते।”

(यंग इंडियाः 8 दिसम्बर 1927)

इसके दस वर्ष के बाद गाँधी जी जॉन आर. मॉट से यही बात कहते हुए बोले कि “मेरा निश्चित मत है कि अमेरिका और इंगलैण्ड मिशनरी संस्थाओं के निमित्त जितना पैसा देता है, उससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक हुई है। ईश्वर और धनासुर (मेमन) को एक साथ नहीं साधा जा सकता। मुझे तो ऐसी आशंका है कि भारत की सेवा करने के लिए धनासुर को ही भेजा गया है, ईश्वर पीछे रह गया है। परिणामतः वह एक-न-एक दिन उसका प्रतिशोध अवश्य करेगा।”

(हरिजनः 26 दिसम्बर, 1936)

महात्मा गाँधी राष्ट्रीय और मानवीय दोनों ही दृष्टियों से ईसाई मिशनरियों से अपनी रीति-नीति, आचरण-व्यवहार तथा सिद्धान्त-कल्पनाओं को बदलने तथा विवेक सम्पन्न बनाने का आह्वान करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि परोपकार का काम करो, धर्मान्तरण बन्द करो।

(हिन्दूः 28 फरवरी, 1916)

गाँधी जी 14 जुलाई 1927 को ʹयंग इंडियाʹ में लिखते हैं कि “मिशनरियों को अपना रवैया बदलना होगा। आज वे लोगों से कहते हैं कि उनके लिए ʹबाइबिलʹ और ईसाई धर्म को छोड़कर मुक्ति का और कोई मार्ग नहीं है। अन्य धर्मों को तुच्छ बताना तथा अपने धर्म को मोक्ष का एकमात्र मार्ग बताना उनकी आम रीति हो गयी है। इस दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन होना चाहिए।”

एक ईसाई मिशनरी से बातचीत में उन्होंने कहाः “अगर मेरे हाथ में सत्ता हो और मैं कानून बना सकूँ तो मैं धर्मांतरण का यह सारा कारोबार ही बन्द करा दूँ। इससे वर्ग-वर्ग के बीच निश्चय ही निरर्थक कलह और मिशनरियों के बीच बेकार का द्वेष बढ़ता है। यों किसी भी राष्ट के लोग सेवाभाव से आयें तो मैं स्वागत करूँगा। हिन्दू कुटुम्बों में मिशनरी के प्रवेश से वेशभूषा, रीति-रिवाज, भाषा और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है और इन सबका नतीजा यह हुआ है कि सुन्दर हरे-भरे कुटुम्ब छिन्न-भिन्न हो गये हैं।”

(हरिजनः 11 मई, 1935)

महात्मा गाँधी जैसे सहिष्णु एवं विवेकी व्यक्ति भी स्वतंत्र भारत में कानून बनाकर ईसाई धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध का प्रस्ताव करते हैं और निःसंकोच अपना संकल्प ईसाइयों के सम्मुख करते हैं।

गाँधी जी के उत्तराधिकारियों जैसे पंडित जवाहरलाल नेहरू आदि ने उनके विचारों की उपेक्षा की और उसका दुःखद परिणाम आज सामने है। देश के कुछ प्रदेशों में ईसाईकरण ने सुरक्षा और एकता के लिए समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं और अब वे पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि नये स्थानों पर भी गिरिजाघर बनाने जा रहे है। विदेशी धन का प्रवाह पहले से कई गुना बढ़ गया है और ईसाई मिशनरियाँ आक्रामक बनती जा रही हैं।

गाँधी जी ने अपने विवेक, दूरदृष्टि तथा मानव-प्रेम के कारण ईसाइयों के उद्देश्यों को पहचाना था तथा उनके बीच जाकर उन्हें अधार्मिक तथा अमानवीय कार्य करने से रोकने का भी प्रयत्न किया था। उनके इस राष्ट्रीय कार्य को अब हमें क्रियान्वित करना है। ईसाई मिशनरियों को धर्मान्तरण से रोकना होगा। हमारी सरकार को इसे गम्भीरता से लेना चाहिए, अन्यथा गाँधी जी के अनुसार संघर्ष और रक्तपात को रोकना असम्भव हो सकता है।

गाँधी जी की कामना थी कि आदिवासियों (भील जाति) के मंदिर में राम की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठ हो, ईसा मसीह की नहीं, क्योंकि इससे ही इन जातियों में नये प्राणों का संचार होगा।

(नवजीवनः 18 अप्रैल, 1936)

राष्ट्र के मानवमंदिर में भी स्वदेशी ईश्वर की प्राणप्रतिष्ठा से ही कल्याण हो सकता है और यह ʹहरा-भरा देशʹ छिन्न-भिन्न होने से बचाया जा सकता है।

विशेष सूचनाः कोई भी इस लेख के परचे छपवाकर देश को तोड़ने वालों से भारत देश की रक्षा कर सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2000, पृष्ठ संख्या 19-21, अंक 90

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