आत्मानुभ के लिए प्रयत्नशील साधकों के लिए गुरु आवश्यक हैं
लेकिन पूरे मनोयोग से प्रयत्न न करने वालों में गुरु आत्मानुभव
उत्पन्न नहीं कर सकते । यदि साधक आत्मदर्शन के लिए गम्भीर
प्रयत्न करता है तो गुरु की अनुग्रहशक्ति अपने-आप प्रवाहित होने
लगती है । यदि प्रयास न किया जाय तो गुरु असहाय हैं ।
गुरु अनिवार्य हैं । उपनिषद कहती है कि ‘मन से तथा इन्द्रियों से
दिखने वाले दृश्यों के जंगल से मनुष्य को गुरु के बिना और कोई
निकाल नहीं सकता । गुरु अवश्य होने चाहिए ।
आत्मसाक्षात्कार के लिए गुरु अऩिवार्य
जब तक आप आत्मसाक्षात्कार करना चाहते हैं, गुरु आवश्यक हैं
(भाव यह है कि किसी को संसार-सागर में सुख-दुःख के थपेड़े खाना
स्वीकार हो जाय तो उसके लिए गुरु की आवश्यकता नहीं है, वह भले
निगुरा होकर दुःख, शोक, भय, चिंता की ठोकरें खाता रहे) । जब तक
आप में द्वैत भाव है, गुरु आवश्यक हैं । चूँकि आप स्वयं को शरीर से
एकरूप मानते हैं, आप सोचते हैं कि ‘गुरु भी एक शरीर हैं’ परंतु आप
शरीर नहीं हैं, न ही गुरु शरीर हैं’ परंतु आप शरीर नहीं हैं, न ही गुरु
शरीर हैं । आप आत्मा हैं और गुरु भी आत्मा हैं । जिसे आप
आत्मसाक्षात्कार कहते हैं उससे यह ज्ञान प्राप्त होता है ।
गुरु के पास जाकर श्रद्धा से उनकी सेवा करके मनुष्य उनकी कृपा
से अपने जन्म तथा अन्य दुःखों का कारण जानना चाहिए । यह
जानकर कि ये सब आत्मा से च्युत होने की वजह से उत्पन्न हुए हैं,
दृढ़तापूर्वक आत्मनिष्ठ हो के रहना श्रेष्ठ है ।
हालाँकि जिन लोगों ने मोक्षमार्ग को अंगीकार किया है और
दृढ़तापूर्वक उसका अनुसरण करते हैं वे कभी-कभी या तो विस्मृति के
कारण या किसी अन्य कारण से वैदिक पथ से एकाएक भटक सकते हैं
। उनको गुरु के वचनों से विरुद्ध कभी भी नहीं जाना चाहिए । ऋषियों
के वचन से यह जाना गया है कि यदि मनुष्य ईश्वर का अपराध करता
है तो गुरु उसे दोष से मुक्त करते हैं किंतु गुरु के प्रति किये गये
अपराध से स्वयं ईश्वर भी मुक्त नहीं करता ।
सभी लोग जिसकी कामना करते हैं वह शांति किसी के द्वारा
किसी भी तरह किसी भी देश या काल में प्राप्त नहीं हो सकती जब तक
मनुष्य सद्गुरु की कृपा से मन कि निश्चलता प्राप्त नहीं करता ।
इसलिए हमेशा एकाग्रतापूर्वक अऩुग्रह पाने की साधना में लगे रहिये ।
आत्मा पर त्रुटिपूर्ण सीमा का स्व-आरोपण अज्ञान का कारण है ।
भजन करने पर ईश्वर स्थिर भक्ति देते हैं, जो आत्मसमर्पण में परिणत
होती हैं । भक्त के आत्मसमर्पण करने पर ईश्वर गुरुरूप में प्रकट होकर
दया करते हैं । गुरु, जो कि ईश्वर हैं, यह कहकर भक्त का मार्गदर्शन
करते हैं कि ‘ईश्वर अंदर है और आत्मा से भिन्न नहीं है ।’ इससे मन
की अन्तर्मुखता सिद्ध होती है जो अंत में आत्मानुभव में परिणत होती
है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 16 अंक 356
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