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जीवन में गुरु की अनिवार्यता – रमण महर्षि



आत्मानुभ के लिए प्रयत्नशील साधकों के लिए गुरु आवश्यक हैं
लेकिन पूरे मनोयोग से प्रयत्न न करने वालों में गुरु आत्मानुभव
उत्पन्न नहीं कर सकते । यदि साधक आत्मदर्शन के लिए गम्भीर
प्रयत्न करता है तो गुरु की अनुग्रहशक्ति अपने-आप प्रवाहित होने
लगती है । यदि प्रयास न किया जाय तो गुरु असहाय हैं ।
गुरु अनिवार्य हैं । उपनिषद कहती है कि ‘मन से तथा इन्द्रियों से
दिखने वाले दृश्यों के जंगल से मनुष्य को गुरु के बिना और कोई
निकाल नहीं सकता । गुरु अवश्य होने चाहिए ।
आत्मसाक्षात्कार के लिए गुरु अऩिवार्य
जब तक आप आत्मसाक्षात्कार करना चाहते हैं, गुरु आवश्यक हैं
(भाव यह है कि किसी को संसार-सागर में सुख-दुःख के थपेड़े खाना
स्वीकार हो जाय तो उसके लिए गुरु की आवश्यकता नहीं है, वह भले
निगुरा होकर दुःख, शोक, भय, चिंता की ठोकरें खाता रहे) । जब तक
आप में द्वैत भाव है, गुरु आवश्यक हैं । चूँकि आप स्वयं को शरीर से
एकरूप मानते हैं, आप सोचते हैं कि ‘गुरु भी एक शरीर हैं’ परंतु आप
शरीर नहीं हैं, न ही गुरु शरीर हैं’ परंतु आप शरीर नहीं हैं, न ही गुरु
शरीर हैं । आप आत्मा हैं और गुरु भी आत्मा हैं । जिसे आप
आत्मसाक्षात्कार कहते हैं उससे यह ज्ञान प्राप्त होता है ।
गुरु के पास जाकर श्रद्धा से उनकी सेवा करके मनुष्य उनकी कृपा
से अपने जन्म तथा अन्य दुःखों का कारण जानना चाहिए । यह
जानकर कि ये सब आत्मा से च्युत होने की वजह से उत्पन्न हुए हैं,
दृढ़तापूर्वक आत्मनिष्ठ हो के रहना श्रेष्ठ है ।

हालाँकि जिन लोगों ने मोक्षमार्ग को अंगीकार किया है और
दृढ़तापूर्वक उसका अनुसरण करते हैं वे कभी-कभी या तो विस्मृति के
कारण या किसी अन्य कारण से वैदिक पथ से एकाएक भटक सकते हैं
। उनको गुरु के वचनों से विरुद्ध कभी भी नहीं जाना चाहिए । ऋषियों
के वचन से यह जाना गया है कि यदि मनुष्य ईश्वर का अपराध करता
है तो गुरु उसे दोष से मुक्त करते हैं किंतु गुरु के प्रति किये गये
अपराध से स्वयं ईश्वर भी मुक्त नहीं करता ।
सभी लोग जिसकी कामना करते हैं वह शांति किसी के द्वारा
किसी भी तरह किसी भी देश या काल में प्राप्त नहीं हो सकती जब तक
मनुष्य सद्गुरु की कृपा से मन कि निश्चलता प्राप्त नहीं करता ।
इसलिए हमेशा एकाग्रतापूर्वक अऩुग्रह पाने की साधना में लगे रहिये ।
आत्मा पर त्रुटिपूर्ण सीमा का स्व-आरोपण अज्ञान का कारण है ।
भजन करने पर ईश्वर स्थिर भक्ति देते हैं, जो आत्मसमर्पण में परिणत
होती हैं । भक्त के आत्मसमर्पण करने पर ईश्वर गुरुरूप में प्रकट होकर
दया करते हैं । गुरु, जो कि ईश्वर हैं, यह कहकर भक्त का मार्गदर्शन
करते हैं कि ‘ईश्वर अंदर है और आत्मा से भिन्न नहीं है ।’ इससे मन
की अन्तर्मुखता सिद्ध होती है जो अंत में आत्मानुभव में परिणत होती
है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 16 अंक 356
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हमारा हित किसमें है ? – पूज्य बापू जी


एक शिष्य गुरु के द्वार पहुँचा । गुरु जी ने कहाः ″सेवा करो, ध्यान-जप, अनुष्ठान करो ।″ चंचल चेला था, कुछ दिन चला, गुरु की आज्ञा मानने की कोशिश की किंतु उसका मन बंदर की नाईं भागता रहता था ।

एक दिन वह गुरु जी से कहने लगाः ″गुरु जी आज्ञा दो तो मैं तीर्थयात्रा करने जाऊँ ।″

गुरु जी ने कहाः ″मूर्ख !

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

जब सद्गुरु की हाजिरी तो अनंत फल मिल रहा है फिर क्यों भटकना चाहता है ! गुरु का सान्निध्य लो ।″

तब चुप हो गया लेकिन वह उछलता-कूदता बंदर, थोड़े दिन के बाद उसने अपना सामान बाँध लिया । बोलाः ″गुरु जी ! मुझे आज्ञा दो, इधर मन नहीं लगता ।″

″अरे ! मन लगे न लगे, तू तो बैठा रह । ऐसा होता रहता है, मन लगे तो भी दफ्तर में पगार चालू, नहीं लगे तो भी चालू ।″

″नहीं गुरु जी ! कब तक बैठा रहूँगा ? इतने दिन तो बैठा रहा न !″

″गुरु की आज्ञा मान ।″

″इतने दिन तो आज्ञा मान ली, अब कितनी आज्ञा मानना है ?″

″फिर तू बंदर की नाईं भटकने जा मूर्ख !″

वह तो चल दिया । कुछ समय एक दिन गुरु महाराज टहलते-टहलते आश्रम के बाहर के प्रांगण में गये तो पेड़ पर से बंदर का बच्चा उतरा और महाराज जी के चरणों से चिपक गया ।

गुरु महाराज ने कहाः ″अच्छा ! आखिर बंदर बन के भी आया तो सही बेचारा !″

गले में पट्टा बाँध दिया, आश्रम वालों को बोल दियाः ″यह वही साधक है बेचारा, जो चला गया था । अकाल मृत्यु हो गयी थी, अब बंदर के शरीर में आया है, माफी माँग रहा है । नहीं तो इतना कोमल बच्चा आ के चरणों में सिर रख दे, सम्भव नहीं । इसलिए मैंने ध्यान करके देखा तो पता चला कि जिसको मैंने ‘जाओ, बंदर की नाईं भटको’ कहा था उसी की बीच में किसी निमित्त से मृत्यु हो गयी और वह बंदर हुआ है । अब भटकान मिटाने के लिए माफी माँग रहा है ।″

फिर बोले कि ″भोजन-वोजन, भंडारा-प्रसाद हो, यह नजदीक आये तो इसको डाल दिया करो, खा लिया करेगा ।″

जब उसे जरूरत लगती, आता और खाता । शाम की आरती के समय और महाराज जी जब सत्संग करते तब आता और हाथ जोड़ के बैठ जाता था । वह बंदर का बच्चा चंचल बंदरों से अलग था । दिन बीते, सप्ताह बीते, वर्ष बीत गये । एक दिन वह आया नहीं । दूसरा दिन हुआ तो गुरु जी बोलेः ″आया नहीं वह । जरा खोजो कहाँ गया ।″

वैष्णव नाम रख दिया था उसका ।

शिष्यों ने कहाः ″पास के पेड़ पर ही रहता था ।″

इधर-उधर खोजा, पेड़ पर तो नहीं मिला, पास में छत पर मरा हुआ पड़ा मिला ।

बोलेः ″चलो, उसकी सद्गति हो गयी, वैष्णव था ।

डोली सजायी । जैसे किसी वैष्णव साधु की यात्रा निकलती है से ही गाते बजाते, शंखनाद-घंटनाद करते हुए यात्रा निकाली व नर्मदाजी को उसका शरीर अर्पण कर दिया । फिर भंडारा किया ।

तो ये जीव न जाने कौन सी गलती से किन-किन योनियों में चले जाते हैं और सत्संग की सूझबूझ से कई योनियों से पार होकर परमात्मा तक भी पहुँच सकते हैं । तो गिरने से बचाने वाला, सूझबूझ देने वाला है  ‘सत्संग’, और कोई उपाय नहीं है – सत्पुरुष की आज्ञा और सत्संग का ही आश्रय है ।

अग्या सम न सुसाहिब सेवा ।

सुलझे हुए महापुरुषों की आज्ञा में रहने से हमारा जितना हित होता है उतना हम अपने-आप नहीं कर सकते हैं । जानते ही नहीं और करने का सामर्थ्य भी नहीं । अगर आप जानते होते, कर पाते तो अभी दुःखी क्यों हैं ? अभी बीमार क्यों होते हैं ? अभी मरते और जन्मते क्यों हैं ? कुछ-न-कुछ कमी है न अपने में, तभी तो जीव शरीर में हैं ! आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ तो कमी है न ! तो कमी मिटती है पूर्ण पुरुष परमात्मा के जप से, पूर्ण पुरुष परमात्मा के ज्ञान से और पूर्ण पुरुष परमात्मा के अनुभव से सम्पन्न सत्पुरुष की कृपा से ।

धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 354

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सद्गुरु देते भवरोग से मुक्ति की युक्ति


माता पार्वती जी ने भगवान शिवजी से पूछाः ″यदि श्रीराम ईश्वर हैं और वे अवतरित हुए हैं तो सभी व्यक्ति उनको ईश्वररूप में क्यों नहीं देख पाते ?″

शिवजी ने कहाः ″पार्वती !

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना ।

राम रूप देखहिं किमि दीना ।।

जिनका हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं वे बेचारे श्रीरामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें !″

( श्री रामचरित. बा. कां. 114.2 )

व्यक्ति के पास दर्पण तो है पर वह स्वच्छ न होकर मलिन है तो व्यक्ति ऐसे दर्पण में अपनी आकृति को क्या देख पायेगा ! ऐसे ही मलिन अंतःकरण वाले व्यक्ति भगवान और भगवत्स्वरूप महापुरुष को ईश्वररूप में नहीं देख पाते और लाभ लेने से वंचित रहकर अभागे-के-अभागे ही रह जाते हैं ।

मन को रोगों के वैद्य

वस्तुतः हमारा आपका मन ही दर्पण है । उसको स्वच्छ करने का उपाय बताते हुए संत तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस के अयोध्या कांड में कहा हैः

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।

गुरुदेव की चरणों की रज ( उनके सत्संग, सेवा व आत्मानुभव ) द्वारा मन के दर्पण को स्वच्छ किया जा सकता है । गुरुदेव के बताये अनुसार उपाय करके मन को स्वच्छ किया जा सकता है ।

उत्तर कांड में मन के रोगों ( काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि ) और उनकी दवा का विस्तृत वर्णन है । काकभुशुंडि जी गरुड़ जी को कहते हैं-

″नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान ।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ।।

‘नियम, धर्म, आचार ( उत्तम आचरण ), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं परंतु हे गरुड़ जी ! उनसे ये रोग नहीं जाते ।’ ( श्री रामचरित. उ. कां. 121 )

यद्यपि दवाएँ तो बहुत है पर रोग दूर नहीं होता । अच्छे कार्यों के कारण प्राणियों के रोग दब गये हैं इसलिए भले ही प्रत्यक्ष नहीं दिखाई दे रहे हों पर हैं अवश्य ।″

गरुड़ जी ने पूछाः ″यदि हम मन के इन रोगों को नष्ट करना चाहें तथा स्वस्थ होना चाहें तो उपाय क्या है ?″

काकभुशुंडिजी ने कहाः ″आप वैद्य के पास जाइये !″

वस्तुतः संसार में जब कोई व्यक्ति हमारे आपके दोषों को वर्णन करता है तो इसके पीछे उसकी वृत्ति होती है नीचा दिखाने की, विरोध करने की । और तब स्वाभाविक है हमें बुरा लगेगा । पर जब हम डॉक्टर या वैद्य के पास जाते हैं और वह बताता है कि ‘तुम कुपथ्य करते हो या तुम अमुक भूल करते हो जिसके कारण रोग हुआ है’ तो हम बुरा नहीं मानते । इसी प्रकार अहंता-ममता में फँसाकर जन्म-मरणरूपी रोगों को देने वाले मन के रोगों से मुक्ति पाने हेतु सद्गुरुरूपी वैद्य के पास जाना होगाः सदगुर बैद… सद्गुरु ही वैद्य हैं ।

इसका अभिप्राय है कि हम ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के पास जायें तो पहले से ही यह मानकर जायें कि हमारा मन रोगी है और उसे स्वस्थ करने के लिए ही हम सद्गुरुरूपी वैद्य के पास जा रहे हैं ।

रावण को लाभ क्यों नहीं हुआ ?

जो व्यक्ति अपने को रोगी नहीं मानता अर्थात् जिसका रोग इतना अधिक बढ़ गया है हो कि वह स्वयं यह निष्कर्ष निकालने में समर्थ ही न हो कि मुझे कोई रोग हुआ है, ऐसे व्यक्ति को सद्गुरु की आवश्यकता ही नहीं महसूस होती, फलतः वह अपने दोषों के निवारण हेतु सद्गुरु के पास नहीं जायेगा । ऐसों को तो प्रकृति ही कर्मों के बंधन में बाँधकर जबरन ही उपचार करेगी क्योंकि ऐसा व्यक्ति यदि सद्गुरु के पास जायेगा भी तो रावण की तरह उसे कोई लाभ होने वाला है नहीं । रावण की स्थिति उसी प्रकार की है कि जैसे कोई व्यक्ति विश्वप्रसिद्ध डॉक्टर को बुला ले और यह गर्व करे कि ‘हमारे पास विश्वप्रसिद्ध डॉक्टर आता है ।’ इससे उसे गर्व की अनुभूति हो सकती है पर यदि उसकी दवा का सेवन और उसके द्वारा बताये गये पथ्य का वह पालन न करे तो उसे कोई लाभ होने वाला नहीं है । रावण की समस्या यही है ।

रावण जब शंकरजी को गुरु के रूप में वरण करता है तो दोषों के निवारण के लिए नहीं, मात्र शोभा के रूप में कि ‘जीवन में कोई गुरु भी होना आवश्यक है ।’

सद्गुरुरूपी वैद्य पर पूरा विश्वास हो

कई लोग प्रश्न करते हैं कि ‘जीवन में सद्गुरु का होना आवश्यक है कि नहीं ?’ तो उत्तर यह है कि अगर हमारा मन रोगी है,  उसमें दोष हैं, तब जैसे वैद्य की आवश्यकता होती है वैसे ही सद्गुरु की भी आवश्यकता है । जो आशा हम डॉक्टर से करते हैं वही हमें सद्गुरु से करनी चाहिए कि ‘वे हमारी कमियों को मिटायें, जन्म-मरणरूपी रोग से हमें छुटकारा दिलायें ।’ पर साथ ही सदगुर बैद बचन बिस्वासा – सद्गुरु जो कुछ कहें उनकी वाणी पर हमें पूरा विश्वास हो कि ‘मेरे सद्गुरु जो कह रहे हैं वह मेरे कल्याण के लिए है और बिल्कुल ठीक कह रहे हैं ।’

दवा के साथ परहेज जरूरी

सद्गुरु कह दें कि ‘यह लो मंत्र, यह लो माला ।’ तो मानो दवा ही दी है उन्होंने । किसी को बता दिया कि ‘तुम जप करो ।’ किसी को बता दिया कि ‘तुम ध्यान करो ।’ सद्गुरु शिष्यों को अलग-अलग साधन बताते हैं । पर हम कहीं एक ओर सद्गुरु के द्वारा साधना की दवा का सेवन करें और दूसरी ओर मनमाने कुपथ्य का भी सेवन करें तो निश्चित रूप से यदि दवा का लाभ भी होगा तो अत्यल्प ही होगा, कारण कि दवा की मात्रा थोड़ी और कुपथ्य की मात्रा बहुत है । इसलिए काकभुशुंडि जी ने गरुड़ जी से पहले दवा की बात नहीं की अपितु कहा कि पहले पथ्य सुनोः

सदगुर बैद बचन बिस्वासा ।

संजम यह न विषय कै आसा ।।

‘सद्गुरुरूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो । विषयों की आशा न करे, यही संयम ( परहेज ) हो ।’ ( श्रीरामचरित. उ. कां. 121.3 )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 354

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