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Rishi Prasad 268 Apr 2015

मीडिया ट्रायल न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति


दिल्ली उच्च न्यायालय
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया में दिखायी गयी खबरें न्यायाधीश के फैसलों पर असर डालती हैं। खबरों से न्यायाधीश पर दबाव बनता है और फैसलों का रुख भी बदल जाता है। पहले मीडिया अदालत में विचाराधीन मामलों में नैतिक जिम्मेदारियों को समझते हुए खबरें नहीं दिखाता था लेकिन अब नैतिकता को हवा में उड़ा दिया गया है। मीडिया ट्रायल के जरिये दबाव बनाना न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति है। जाने-अनजाने में एक दबाव बनता है और इसका असर आरोपियों और दोषियों की सज़ा पर पड़ता है।”
कई न्यायविद् एवं प्रसिद्ध हस्तियाँ भी मीडिया ट्रायल को न्याय व्यवस्था के लिए बाधक मानती हैं। एक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरीयन जोसेफ ने कहा हैः “दंड विधान संहिता की धारा 161 और 164 के तहत दर्ज आरोपी के बयान भी मीडिया को जारी कर दिये जाते हैं। अदालत में मुकद्दमा चलता है, उधर समानांतर मीडिया ट्रायल भी चलता रहता है।” सर्वोच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया का रोल अहम है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह इस तरह अपना काम करे कि किसी भी केस की छानबीन प्रभावित न हो। कानून की नजर में कोई शख्स तब तक अपराधी नहीं है, जब तक उस पर जुर्म साबित न हो जाय। ऐसे में जब मामला अदालत में हो, तब मीडिया को संयम रखना चाहिए। उसे न्यायिक प्रक्रिया में दखल देने से बचना चाहिए।”
उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर कहते हैं- “मीडिया ट्रायल काफी चिन्ता का विषय है। यह नहीं होना चाहिए। इससे अभियुक्त के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की धारणा बनती है। फैसला अदालत में ही होना चाहिए।”
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन् का मानना हैः “मीडिया ट्रायल अच्छा नहीं है क्योंकि कई बार इससे दृढ़ सार्वजनिक राय कायम हो जाती है जो न्यायपालिका को प्रभावित करती है। मीडिया ट्रायल के कारण की बार आरोपी की निष्पक्ष सुनवाई नहीं हो पाती।”
पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता रविशंकर सिंह बताते हैं- “कई देशों में मीडिया ट्रायल के खिलाफ बड़े सख्त कानून बनाये गये हैं। इंगलैण्ड में कंटेम्प्ट हो कोर्ट एक्ट 1981 की धारा 1 से 7 में मीडिया ट्रायल के बारे में सख्त निर्देश दिये गये हैं। कई बार इस कानून के तहत बड़े अखबारों पर मुकद्दमे भी चलाये गये हैं। धारा 2(2) के तहत प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया ऐसा कोई समाचार प्रकाशित नहीं कर सकता जिसके कारण ट्रायल की निष्पक्षता पर गम्भीर खतरा उत्पन्न होता हो। जिस तरह भारत में मीडिया ट्रायल के द्वारा केस को गलत दिशा में मोड़ने का प्रचलन हो रहा है, ऐसे में अन्य देशों की तरह भारत में भी मीडिया ट्रायल पर सख्त कानून बनाना बहुत ही आवश्यक हो गया है।”
विश्व हिन्दू परिषद के मुख्य संरक्षक व पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल जी कहते हैं- “मीडिया ट्रायल के पीछे कौन है ? हिन्दू धर्म व संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया ट्रायल पश्चिम का बड़ा भारी षड्यंत्र है हमारे देश के भीतर ! मीडिया का उपयोग कर रहे हैं विदेश के लोग! उसके लिए भारी मात्रा में फंड्स देते हैं, जिससे हिन्दू धर्म के खिलाफ देश के भीतर वातावरण पैदा हो।”
मीडिया विश्लेषक उत्पल कलाल कहते हैं- “यह बात सच है कि संतों, राष्ट्रहित में लगी हस्तियों पर झूठे आरोप लगाकर मीडिया ट्रायल द्वारा देशवासियों की आस्था के साथ खिलवाड़ करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जनता पर अपनी बात को थोपना, सही को गलत, गलत को सही दिखाना – क्या इससे प्रजातंत्र को मजबूती मिलेगी ? मीडिया की ऐसी रिपोर्टिंग पर सरकार न्यायपालिका और जनता द्वारा लगाम कसी जानी चाहिए।
संकलकः श्री रवीश राय
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 6,7, अंक 268
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Rishi Prasad 268 Apr 2015

निष्पक्ष न्याय और मीडिया


(‘मीडिया ट्रायल एंड इट्स इम्पैक्ट ऑन सोसायटी एंड ज्यूडिशियल सिस्टम विषय पर राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सुनील अम्बवानी के व्याख्यान के सम्पादित अंश, संदर्भः राजस्थान पत्रिका’)
‘व्हॉट इज़ ए फेयर ट्रायल ?’ (निष्पक्ष ट्रायल क्या है ?) हर आरोपित को फेयर (निष्पक्ष) ट्रायल का अधिकार है। निष्पक्ष ट्रायल से मतलब है किसी भी अपराध की पुलिस या अन्य किसी एजेंसी जैसे सीबीआई, सीआईडी द्वारा निष्पक्ष जाँच-पड़ताल, आरोप-पत्र बनाने का पारदर्शी और स्वच्छ तरीका, रिपोर्ट में विश्वसनीय और मानने योग्य सबूत, आरोपित का बचाव करने का अधिकार, सबूतों को जानने और क्रॉस एग्जामिन करने का अधिकार, अपना पक्ष रखने का अधिकार। ये सभी निष्पक्ष ट्रायल के मुख्य बिंदु हैं। अगर कोई इन चीजों में दखलंदाजी करता है तो वह न्याय-प्रक्रिया में दखलंदाजी मानी जाती है। यहाँ न्याय-प्रक्रिया का अर्थ ही स्वतंत्र और निष्पक्ष ट्रायल है।
अगर कोई आरोपी सम्माननीय है तो उसके सम्मान का क्या ? आप जानते हैं कि न्याय-सिद्धान्त है कि चाहे हजार दोषी छूट जायें पर एक निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए। यह भी सिद्धान्त है कि संदेह के आधार पर सज़ा हो। मीडिया के कारण न्यायाधीश सुपरविजन के प्रभाव में आ जाता है। अगर कोई विश्वसनीय सबूत न हो और वह केस खारिज कर देता है तो मानो फँस गया क्योंकि वह अपने मित्रों और साथियों की नजर में दोषी है। सुनने को मिलता है, ‘अरे, तुमने उसको छोड़ दिया !’ आप बिना विश्वसनीय, प्रामाणिक और उचित सबूतों के आधार पर किसी को दोषी तो नहीं ठहरा सकते, जो आपके सिद्धान्तों में है। जब तक लोगों की मान्यता नहीं बनी है तब तक वह न्यायाधीश किसी से नहीं डरता है। लेकिन मीडिया कई मामलों में पहले ही सही-गलत की राय बना चुका होता है। इससे न्यायाधीश पर दबाव बन जाता है कि एक व्यक्ति जो जनता की नजर में दोषी है, उसको अब दोषी ठहराने की जरूरत है। न्यायाधीश भी मानव है। वह भी इनसे प्रभावित होता है। (संकलकः श्री इन्द्र सिंह राजपूत)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 7, अंक 268
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करिश्मा-ए-बाबा आशाराम बापू


(‘सच्चा लेखन’ समाचार पत्र की रिपोर्टिंग)
आशाराम जी बापू को जाँच हेतु एम्स ट्रॉमा सेंटर, दिल्ली ले जाया गया था। बाबा के रेलवे स्टेशने पहुँचने पर वहाँ पर कई हजार भक्त इकट्ठे हो गये। यह विचारणीय विषय है कि इतना कड़ा आरोप लगने के बाद भी आखिर बाबा को भक्त क्यों नहीं छोड़ रहे हैं ? क्या वाकई बाबा किसी विदेशी या राजनैतिक षड्यन्त्र के शिकार हो रहे हैं ? जोधपुर जेल, न्यायालय परिसर, एम्स अस्पताल, रेलवे स्टेशन आदि स्थानों पर उपस्थित विभिन्न क्षेत्रों से आये बाबा के भक्तों व बाबा के विरोधियों से ‘सच्चा लेखन’ समाचार पत्र की टीम रू-बरू हुई। प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंशः
भक्तों से प्रश्नः “इतना गम्भीर आरोप लगने के बावजूद आप बाबा को मानते हैं ? क्या बाबा ने आपको कुछ दिया है ?”
उत्तरः “आज से पहले भी बापू जी पर कितने ही आरोप लगे पर क्या कोई भी सत्य साबित हुआ ? ऐसे ही यह भी एक मनगढ़ंत आरोप है, उन्हें फँसाया जा रहा है। बापू जी ने कभी नहीं कहा, ‘आप मेरी पूजा करो।’ उन्होंने तो हमें दीक्षा भी भगवान के नाम की दी। बापू जी ने ही तो हमें भगवान का महत्त्व समझाया है। इसलिए हमारे लिए पहले बापू जी हैं फिर भगवान !”
प्रश्नः “आपको ऐसा क्यों लगता है कि बाबा को कोई फँसाना चाहता है ? वह कौन है और क्यों फँसाना चाहता है ?”
उत्तरः पश्चिमी सभ्यता कल्चर वाले बीड़ी, सिगरेट, पान-मसाला, मांसाहार, शराब आदि अनेकों माध्यमों से भारतवासियों को अपना गुलाम बनाकर भारत की नींव को कमजोर करना चाहते हैं। बापू जी ने समाज को इनकी हकीकत समझाकर जागृत कर दिया। इसलिए इन्होंने हमारे बापू जी के कुप्रचार पर खर्च करना शुरु कर दिया।”
विरोधियों से प्रश्नः “आपको ऐसा क्यों लगता है कि बाबा रेप के आरोपी हैं ? आप क्यों विरोध करते हैं ? क्या आपके साथ भी कभी कुछ गलत हुआ है ?”
उत्तरः “नहीं, हमने तो बस सुना है और आशाराम बापू पर पहले भी कई आरोप लग चुके हैं। बाकी वास्तविकता तो हमने कुछ नहीं देखी।”
प्रश्नः “क्या आप कोई नशा करते हैं ?”
उत्तरः “हम तो प्रतिदिन नशा करते हैं लेकिन आपको इससे क्या मतलब ?”
हमारे समक्ष ऐसे कितने ही बाबा और संत आये, जिन पर किसी प्रकार का कोई आरोप लगा तो उनके समस्त क्रियाकलाप रूक गये और उनके समर्थकों ने उनसे मुँह मोड़ लिया। पर यह बात वास्तव में आश्चर्यजनक है कि इतने गम्भीर आरोप के बावजूद भी बापू आशाराम जी के समर्थक उनका साथ छोड़ने का नाम नहीं ले रहे हैं !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 29, अंक 266
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