ʹजीवन्मुक्त एवं विदेहमुक्त किसे कहते हैं ?ʹ यह प्रश्न भगवान श्रीराम ने महर्षि वशिष्ठजी से पूछा था।
जीवन्मुक्त वे महापुरुष होते हैं जो जीते-जी अपने मुक्त आत्मस्वरूप का अनुभव करते हैं। दुःख अथवा सुख के समय, अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के समय, उम महापुरुषों का यह अनुभव होता है कि सब सपना है, सब बीतने वाला है। वे सुख दुःख के साथ जुड़ते नहीं हैं। अनुकूलता में आसक्ति नहीं करते और प्रतिकूलता में उद्वेग नहीं करते। ये अनुकूलता और प्रतिकूलता, सुख एवं दुःख उन्हें बाँधता नहीं है इसीलिए वे मुक्त हैं।
साधारण व्यक्ति जगत को सच्चा मानकर, सुख में सुखी एवं दुःख में दुःखी हो जाता है। ज्ञानी भी बाहर से तो सुखी-दुःखी दिखेंगे लेकिन अंदर से आकाश की नाईं निर्लेप, शान्तात्मा होते हैं। जैसे, जो फिल्म के रहस्य को जानता है वह फिल्म देखकर समझता है कि यह केवल परदा है। वह फिल्म की मिठाई लेने नहीं जाता और आग देखकर भागता भी नहीं है। ऐसे ही जीवन्मुक्त महापुरुष कभी संसार के सब व्यवहारों को करते हैं और कभी एकान्त में अपने निज स्वरूप में ध्यानस्थ हो जाते हैं फिर भी मुक्त ही हैं। हवा चलती है तब भी हवा है और नहीं चलती है तब भी हवा है। व्यक्ति चलता है तब भी व्यक्ति है और नहीं चलता है या बैठा हुआ है तब भी व्यक्ति है ऐसे ही जीवन्मुक्त देखता है कि चित्त का जो फुरना है, उससे ही जगत दिखता है और गहरी नींद में जब चित्त का फुरना शांत हो जाता है तब जगत का नित्य प्रलय हो जाता है। रात्रि की नींद में देखो तो ʹमैं-मेरेʹ का….ʹअपने-परायेʹ का…. सभी प्रलय हो जाता है। यह नित्य प्रलय है।
नित्य, नैमित्तिक, आत्यंतिक, महाप्रलय – ये प्रलय के विभिन्न भेद हैं। महाप्रलय में पृथ्वी आदि सब छू हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं रहते, किन्तु चैतन्यवपु आकाश की नाईं ज्यों-का-त्यों रहता है। जैसे, रात्रि में स्वप्न दिखा तब भी चैतन्य ज्यों-का-त्यों रहता है। स्वप्न में अच्छी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर दुःख होता है लेकिन अच्छी बुरी बातों को देख-देखकर भी अंत में तो स्वप्न खत्म हो जाता है। स्वप्न जिस हृदयाकाश में दिखता है वह हृदयाकाश सत्य है बाकी दिखने वाला मिथ्या है, बदलने वाला है। ऐसे ही व्यापक चिदाकाश में जगत दिखता है, मनुष्य आदि दिखते हैं। जब तक सदा रहने वाले परमात्मा का ज्ञान नहीं होता, सदा रहने वाला परमात्मा में स्थिति नहीं होती तब तक मरने से भी पिण्ड नहीं छूटता। मरने के बाद भी यात्रा होती रहती है, सुख-दुःख, अपना-पराया आदि होता रहता है। वे लोग जीवन्मुक्त हैं, बड़भागी हैं, जिन्होंने मरने के बाद नहीं, अपितु जीते जी ही अपने परमेश्वरीय स्वभाव में स्थिति कर ली है, अपने आत्मस्वभाव में, परमात्मस्वभाव में स्थिति कर ली है।
शरीर अन्नमय कोष है। शरीर के अंतरंग है प्राणमय कोष पाँच कर्मेन्द्रियाँ और प्राण। इसे प्राणमय कोष कहते हैं। प्राणमय कोष के अंतरंग हैं मनोमय कोष। पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन। इसे मनोमय कोष कहते हैं। मनोमय कोष के अंतरंग है विज्ञानमय कोष। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि। इसे विज्ञानमय कोष कहते हैं। बुद्धि आनंदस्वरूप में विश्रान्ति पाती है वह आनंदमय कोष है। हम देखते हैं कि शरीर भी बदलता है, मन भी बदलता है, बुद्धि के निर्णय भी बदलते हैं, फिर भी इन सबको देखने वाला शुद्ध चैतन्य परमात्मा नहीं बदलता।
श्रीमदभागवत के 11वें स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं- “उद्धव ! मैं प्राणीमात्र का परम सुहृद हूँ। मैं सबके साथ हूँ…. सबके पास हूँ। कभी-कभी आकृति धारण करके लीला करता हूँ लेकिन वास्तव में तो मैं अव्यक्त आत्मा, सदा सर्वदा सबमें हूँ।”
द्वा सुपर्णा सयुजा सखायाः।
ʹएक ही डाल पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी खट्टे-मीठे फल खाता है और दूसरा उसे देख रहा है और वे दोनों सखा हैं।ʹ
व्यापक चैतन्य आत्मा है। उसने जीने की इच्छा की तो जीव हो गया। जीव शुभाशुभ कर्म करता है एवं उसके खट्टे-मीठे फल भोगता है लेकिन जो चैतन्य है, साक्षी है वह केवल देखता है। देखने वाला ईश्वर है और करने-भोगने वाला जीव है। जीव और ईश्वर में भेद यही है। जो चैतन्य जीने की इच्छा करता है, वह जीव है। उसे माया के रहस्य का ज्ञान नहीं है, अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं है और जिसे अपने आत्मस्वभाव का ज्ञान हो गया है वह है ईश्वर, वह है ब्रह्म। वास्तव में तो जीव और ईश्वर एक ही हैं। जैसे, घड़े में आया हुआ आकाश और काँच के महल में आया हुआ आकाश, आकाशतत्त्व से दोनों एक हैं लेकिन घड़े का आकाश, बाहर के आकाश को नहीं जानता है, बंधन में पड़ा है और काँच के महल का आकाश अंदर-बाहर दोनों जगह देखता है। ऐसे ही ईश्वर को भूत-भविष्य सब दिखता है, जबकि जीव अपने को केवल अपने ही शरीर में महसूस करता है। जीव सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मच्छर का काटना आदि शरीर में अनुभव करता है। दोनों चेतन हैं लेकिन जीव चेतन, शरीर तक का ज्ञान रखता है और ईश्वर चेतन है व्यापक माया का ज्ञान। चेतना में दोनों एक हैं। लेकिन गलती यह होती है कि जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूल बैठा है। इसीलिए जप, तप, सुमिरण एवं ज्ञान का नित्य अनुसंधान करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैं चैतन्य नहीं हूँ। जैसे आकाश सर्वत्र है ऐसे ही मैं चैतन्य चिदाकाश सर्वत्र हूँ। उस चैतन्य को जो जान लेता है वह मेरा स्वरूप हो जाता है। ʹवहʹ और ʹमैंʹ एक हो जाते हैं। जो नहीं जानता है वह जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है।
वशिष्ठजी कहते हैं- “हे राम ! जीवन्मुक्त उसे कहते हैं जो सुख-दुःख को, मान-अपमान को, सबको माया जानता है और अपने चैतन्य स्वरूप का स्मरण करता है, अपने ज्ञानस्वरूप में स्थित होता है। ऐसा महापुरुष जीते-जी मुक्त ही है। …..और विदेहमुक्त कौन है ? ऐसा महापुरुष शरीर में है तब तक जीवन्मुक्त और जब उसका शरीर शांत हो जाता है तब वह व्यापक ब्रह्म में लीन हो जाता है, विदेहमुक्त हो जाता है। जैसे आकाश जब तक घड़े में है तो घटाकाश कहलाता है किन्तु घड़ा टूट जाने पर वही आकाश महाकाश हो जाता है ऐसे ही शरीर शान्त होने पर महापुरुष जीवन्मुक्त में से विदेहमुक्त हो जाता है। फिर वह ब्रह्मवेत्ता सूर्य होकर चमकता है, चन्द्रमा होकर औषधि पुष्ट करता है, ब्रह्मा होकर सृष्टि उत्पन्न करता है विष्णु होकर पालन करता है और शिव होकर सृष्टि का संहार करता है…. धरती में से बीज को उत्पन्न करने का सामर्थ्य उसी ब्रह्मवेत्ता का है। ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप हो जाता हैः
ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मविद् भवति ताकी वाणी वेद।
भाषा अथवा संस्कृत, करत भरम भव छेद।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 47
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