पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
हमारी दिव्य संस्कृति भूलकर हम विदेशी कल्चर के चक्कर में फँस गए हैं। लॉर्ड मैकाले की कूटनीति ने भारत की शक्ति को क्षीण कर दिया है।
लॉर्ड मैकाले जब भारत देश में घूमा तब उसने देखा कि भारत के संतों के पास ऐसी यौगिक विद्याएँ हैं, ऐसा मंत्रविज्ञान है, ऐसी योग शक्तियाँ हैं कि यदि भारत का एक नौजवान भी संतों से प्रेरणा पाकर उनके बताये हुए पदचिन्हों पर चल पड़ा तो ब्रिटिश शासन को उखाड़ कर फेंक देने में सक्षम हो जायेगा।
इसलिए लॉर्ड मैकाले ने सर्वप्रथम संस्कृत विद्यालयों और गुरुकुलों को बंद करवाया और अंग्रेजी स्कूलें शुरु करवायीं। हमारे गृहउद्योग बंद करवाये और शुरू करवायी फैक्टरियाँ।
पहले लोग स्वावलंबी थे, स्वाधीन होकर जीते थे, उन्हें पराधीन बना दिया गया, नौकर बना दिया गया। धीरे-धीरे करके विदेशी आधुनिक माल भारत में बेचना शुरु कर दिया जिससे लोग अपने काम का आधार यंत्रों पर रखने लगे और प्रजा आलसी, भौतिकवादी बनती गई। इसका फायदा उठाकर ब्रिटिश हम पर शासन करने में सफल हो गये।
एक दिन एक राजकुमार घोड़े पर सवार होकर घूमने निकला था। उसे बचपन से ही भारतीय संस्कृति के पूर्ण संस्कार मिले थे। नगर से गुजरते वक्त अचानक राजकुमार के हाथों से चाबुक गिर पड़ा। राजकुमार स्वयं घोड़े से नीचे उतरा और चाबुक लेकर पुनः घोड़े पर सवार हो गया। यह देखकर राह पर गुजरते लोगों ने कहाः “मालिक ! आप तो राजकुमार हो। एक चाबुक के लिए आप स्वयं घोड़े पर से नीचे उतरे ! हमें हुक्म दे देते…”
राजकुमारः “जरा-जरा काम में यदि दूसरों का मुँह ताकने की आदत पड़ जायेगी तो हम आलसी, पराधीन बन जाएँगे और आलसी पराधीन मनुष्य जीवन में क्या प्रगति कर सकता है ? अभी तो मैं जवान हूँ। मेरे में काम करने की शक्ति है। मुझे स्वावलंबी बनकर दूसरे लोगों की सेवा करनी चाहिए न कि सेवा लेनी चाहिए। यदि आपसे चाबुक उठवाता तो सेवा लेने का बोझा मेरे सिर पर चढ़ता।”
हे भारत के नौजवानों ! दृढ़ संकल्प करो किः “हम स्वावलंबी बनेंगे।ʹʹ नौकरों तथा यंत्रों पर कब तक आधार रखोगे ? हे भारत की नारी ! अपनी गरिमा को भूलकर यांत्रिक युग से प्रभावित न हो। श्रीरामचन्द्रजी की माता कौशल्यादेवी इतने सारे दास-दासियों के होते हुए भी स्वयं अपने हाथों से अपने पुत्रों के लिए पवित्र भोजन बनाती थीं। तुम भी अपने कर्त्तव्यों से च्युत मत हो। किसी ने सच ही कहा हैः
स्वावलंबन की एक झलक पर।
न्यौछावर कुबेर का कोष।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 24, अंक 50
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