जनकपुरी में लगी आग

जनकपुरी में लगी आग


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

महर्षि याज्ञवल्क्य के सत्संग-प्रवचन में जब राजा जनक पहुँचते तभी महर्षि प्रवचन का प्रारम्भ करते थे। प्रतिदिन ऐसा होने से सत्संग में आने वाले अन्य ऋषि-मुनि एवं तपस्वियों को मन में ऐसा होता था कि याज्ञवल्क्य जैसे महर्षि भी सत्तावानों की, धनवानों की खुशामद करते हैं। क्या हम साधु-महात्मा उनके श्रोता नहीं हैं ?

साधु-महात्माओं के मन का बात महर्षि भाँप गये। उनके मन में आया कि गुरु के प्रति यदि थोड़ी-सी भी श्रद्धा में कमी आयेगी तो इन्हें लाभ नहीं हो पायेगा। उनकी शंका को दूर करने के लिए महर्षि ने एक लीला रची।

जनकपुरी के चहुँ ओर आग लग गई। अनुचर भागता हुआ आया। सत्संग-श्रवण में तल्लीन राजा जनक को समाचार दियाः “महाराज ! जनकपुरी को चारों ओर आग लग गई है।”

राजा ने उसे धीरे से कहाः “अभी तो मेरे मन में अज्ञान की भीषण आग लगी है, उसे सत्संगरूपी अमृतवर्षा से बुझा रहा हूँ। इस कार्य में विघ्न मत डाल। तू भी यहाँ शांति से बैठ जा।

थोड़ी देर में दूसरा आदमी आता है। फिर तीसरा आया। उन सबको राजा जनक ने यही समझाकर बिठा दिया- ” वह तो संसार की बाह्य आग है। एक दिन तो सबको उसमें जलना ही है। तुम लोग चुपचाप बैठ जाओ। मेरी अज्ञानरूपी आग पर हो रही सत्संगरूपी अमृतवर्षा से मेरी भीतरी आग बुझा लेने दो।”

इतने में राजा का मंत्री आया और बोलाः “राजन ! आग लगी है। महल के इर्द-गिर्द आग की लपटें नियंत्रण से बाहर हो रही हैं।”

यह सुनकर सत्संग में बैठे अन्य साधु-महात्मा उठे और भागने लगे।

उन्हें भागते देखकर याज्ञवल्क्य ने पूछाः “आप लोग क्यों भाग रहे हो ?”

तब किसी ने कहा मेरा तुम्बा जल जायेगा तो किसी ने कहा मेरी कौपीन जल जायेगी।

महर्षि याज्ञवल्क्यः “अरे महात्माओं ! राजा जनक तो अपने महल की भी चिन्ता नहीं करते और आप लोग ऐसी छोटी-मोटी वस्तुओं की चिंता कर रहे हो ? बैठ जाओ। यह वास्तविक आग नहीं है। यह तो मेरी योगशक्ति की लीला थी।”

तब साधुओं को अपनी स्थिति एवं राजा जनक की स्थिति का अंतर समझ में आया।

वे समझ गये कि महर्षि याज्ञवल्क्य सत्संग शुरु करते समय धनवान और सत्तावान राजा जनक की खुशामद करने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं करते थे अपितु अपने सच्चे मुमुक्षु शिष्य की प्रतीक्षा करते थे। साधु महात्माओं को समझ में आ गया कि महाराज जनक राज्य भोगते भोगते भी साधु हैं। उनके मन पर संसार की परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तव में वे ही ब्रह्मज्ञान के अधिकारी हैं।

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संसार कर्मभूमि है

एक बार माँ पार्वती ने भगवान शिव से पूछाः “भगवन ! कई ऐसे लोग देखे गये जो थोड़ा सा ही प्रयत्न करते हैं और सहज में ही उनके पास अनायास ही रथ, वस्त्र-अलंकार आदि धन-वैभव मंडराता रहता है और ऐसे भी कई लोग हैं जो खूब प्रयास करते हैं फिर भी उन्हें नपा तुला मिलता है। ऐसे भी कई लोग हैं जो जिंदगीभर प्रयत्न करते हैं फिर भी वे ठनठनपाल ही रह जाते हैं। जब सृष्टिकर्ता एक ही है, सबका सुहृद है, सबका है तो सबको एक समान चीजें क्यों नहीं मिलतीं ?”

भगवान शिव ने कहाः “जिसने किसी भी मनुष्य जन्म में, फिर चाहे दो जन्म पहले, दस जन्म पहले या पचास जन्म पहले बिना माँगे जरूरतमन्दों को दिया होगा और मिली हुई संपत्ति का सदुपयोग किया होगा तो प्रकृति उसे अनायास सब देती है। जिन्होंने माँगने पर दिया होगा, नपा-तुला दिया होगा, उन्हें इस जन्म में मेहनत करने पर नपा-तुला मिलता है और तीसरे वे लोग हैं जिन्होंने पूर्वजन्म में न पंचयज्ञ किये, न अतिथि सत्कार किया, न गरीब-गुरबों के आँसू पोंछे, न गुरुजनों की सेवा की वरन् केवल अपने लिये ही संपत्ति का उपयोग किया और कंजूस बने रहे ऐसे लोग इस जन्म में मेहनत करते हुए भी ठीक से नहीं पा सकते हैं और प्रकृति उन्हें देने में कंजूसी करती है।”

तब माँ पार्वती कहती हैं- “ऐसे लोग भी तो हैं, प्रभु ! कि जिनके पास धन-संपदा तो अथाह है लेकिन वे प्राप्त संपदा का भोग नहीं कर सकते।”

शिवजी ने कहाः “जिन्होंने जीवनभर संग्रह किया लेकिन मरते समय उन्हें ऐसा लगा कि कुछ तो कर जायें ताकि भविष्य में मिले…. इस भाव से अनाप-शनाप दान कर दिया तो उन्हें दूसरे जन्म में धन-संपदा तो अनाप-शनाप मिलती है किन्तु वे उसका उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि जो पहले भी किसी के काम नहीं आया, वह उनके काम में कैसे आ सकता है ?”

माँ पार्वतीः “हे ज्ञाननिधे ! ऐसे भी कई लोग हैं जिनके पास धन, विद्या, बाहुबल बहुत है फिर भी वे अपने कुटुम्बियों के, पत्नी के प्रिय नहीं दिखते और कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास धन-संपदा नहीं है, बाहुबल, सत्ता नहीं है, सौन्दर्य नहीं है, मुट्ठीभर हाड़पिंजर शरीर है फिर भी कुटुम्बियों का, पत्नी का बड़ा स्नेह उन्हें मिलता है।

शिवजीः “हे उमा ! जिन्होंने अपना बाल्यकाल, अपना पूर्जन्म संयमपूर्वक एवं दूसरों को मान देकर गुजारा है उनको कुटुम्बी स्नेह करते हैं और वे गरीबी में भी सुखी जीते हैं लेकिन जिन्होंने पूर्वजन्म के दान-पुण्य के बल से धन-सत्तादि तो पा ली है किन्तु दूसरों को हृदयपूर्वक स्नेह नहीं किया है, मान नहीं दिया है, दूसरों का शोषण करते हैं उन्हें कुटुम्बी मान नहीं देते।”

संसार एक कर्मभूमि है। Every action creates reaction. आप जो भी करते हैं वह घूम-फिरक आपके ही पास आता है। अतः आप स्नेह देंगे तो स्नेह मिलेगा, मान देंगे तो मान मिलेगा लेकिन मान मिले इस वासना से नहीं वरन् जिनको भी मान दें ʹउऩकी गहराई  में मेरा परमात्मा हैʹ इस भाव से मान दें तो आपके भाव में परमात्मा प्रगटेगा और सामने वाले के हृदय में आपके लिए मान-आदर प्रगट हो जायेगा।

मान लेने के लिए नहीं वरन् मान देने के लिए व्यवहार करो। हम बड़े में बड़ी गलती क्या करते हैं ? पत्नी चाहती है मेरी चले, पति चाहता है मेरी चले। बहू चाहती है मेरी चले, सास चाहती है मेरी चले। देवरानी चाहती है मेरी चले, जेठानी चाहती है मेरी चले। पति-पत्नी, माँ-बाप, पुत्र-बहू, देवर-जेठ आदि सब चाहते हैं मेरी चले, मुझे सुख मिले, मुझे मान मिले।

हकीकत में सुख और मान लेने की चीज नहीं, देने की चीज है। जो सुख का दाता है वह दुःखी कैसे रह सकता है ? आप सुख के भिखारी न बनो, मान के भिखारी न बनो अपितु सुख और मान देने लगो। कोई सुख और मान दे या न दे इसकी परवाह न करो तो आपके हृदय में सुख और मान का प्रकाश और माधुर्य प्रगट होने लगेगा।

कोई कहता हैः “बाबा जी ! फलाना आदमी बड़ी गुप्त सेवा करता है। उसने सत्संग में बहुत सेवा की। उसको तो हार पहनाने का मौका तक नहीं मिला।”

अरे ! हार पहनाने का मौका नहीं मिला तो क्या हुआ ? अखबार में नाम नहीं आया तो क्या हुआ ? वह ईश्वर का दैवी कार्य करता है तो उसका हृदयेश्वर तो उसकी सेवा स्वीकार कर ही रहा है। क्या ईश्वर के दो ही हाथ हैं कि जिस हाथ से सेवा लेता है उसी हाथ से बदला दे क्या ? नहीं, हजारों-हजारों हाथ ईश्वर के हैं और बिना हाथ भी ईश्वर आपको अपना कृपा-प्रसाद देता है, आपके हृदय में आनंद, माधुर्य और सदबुद्धि देता है इसलिए ईश्वर के दैवी कार्य में प्रशंसा की चाहना न रखो। प्रशंसनीय सत्कार्य करो और वह सत्कार्य ईश्वर को अर्पण कर दो। ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय आनंद देर-सबेर आपको प्राप्त हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 27,28,29 अंक 53

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