सत्संग से जागे विवेक

सत्संग से जागे विवेक


पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

सत्संग से वंचित होना महान पापों का फल है। किसी भी कीमत पर सत्संग का त्याग नहीं करना चाहिए। वशिष्ठजी कहते हैं कि चांडाल के घर की भिक्षा एक ही बार मिले, वह भी ठीकरे में लेकर खाना पड़े पर जहाँ ज्ञान का सत्संग मिलता हो वहीं पड़े रहना चाहिए।

कोई बड़ा धनवान हो चाहे बड़ा सम्राट हो, अंत में तो वह धन को, साम्राज्य को यहीं छोड़कर चला जायेगा और ब्रह्मविद्या नहीं होगी तो किसी न किसी माँ के गर्भ में जाकर लटकने का, फिर जन्म लेने का और मरने का दुर्भाग्य चालू रहेगा। जिसको सत्संग में रूचि है, प्रीति है, श्रद्धा है, वह देर सबेर ज्ञान पाकर मुक्त हो जायेगा।

जैसे आपको कोई चीज अच्छी लगती है तो आप उसका त्याग नहीं करते हैं, फेंक नहीं देते हैं, संभालकर घर में रख लेते हैं। चाहे घर छोटा भी हो, कमरे में जगह नहीं हो तो छत पर भी रख देते हो। ऐसे ही जो लोग सत्संग में जाते हैं, उन्हें सत्संग की कोई न कोई बात तो अच्छी लगती ही है। जो बात अच्छी लगे उसे अगर दिलरूपी घर में जगह नहीं है तो दिमाग रूपी छत में भी रख लेंगे तो कभी-न-कभी काम आएगी।

सत्संग की आधी घड़ी, सुमिरन बरस पचास।

बरखा बरसे एक घड़ी अरहट फिरे बारह मास।।

जैसे अरहट बारहों मास फिरता रहे फिर भी उतना पानी नहीं दे पाता लेकिन एक घड़ी की वर्षा बहुत सारा पानी बरसा देती है। ऐसे ही सत्संग से भी अमाप लाभ मिलता है।

सत्संग ही साधना को पुष्ट करता है। साधक ऐसे ही जप करता रहेगा तो कभी भी ऊब जायेगा पर सत्संग सुनता रहेगा तो कभी जप की महिमा सुनेगा, कभी ध्यान की महिमा सुनेगा, कभी ज्ञान की बातें सुनेगा तो जप में, ध्यान में, ज्ञान में रूचि होगी। काम करते-करते सत्संग में सुनी हुई बातों को याद रखेगा तो भी बहुत लाभ होगा।

सत्संग ऐसी बढ़िया चीज है कि सत्संग सुनते रहने से आदमी के चित्त में विवेक जगता है। एक होता है सामान्य विवेक, दूसरा होता है मुख्य विवेक। सामान्य  विवेक याने शिष्टाचार। कैसे उठना, कैसे बैठना, कैसे बोलना, बड़ों के साथ कैसा व्यवहार करना, महापुरुष है तो उनसे दो कदम पीछे चलना, कुछ पूछे तो विनम्रता से उत्तर देना, उनके सामने अपने चित्त की दशा का वर्णन करना, यह सामान्य विवेक सत्संग में मिलता है। सत्संग सुनते-सुनते जब आदमी के चित्त की पहली भूमिका बन जाती है तो सामान्य विवेक या शिष्टाचार अपने-आप में पैदा होने लगता है।

दूसरा विवेक है मुख्य विवेक। वह है आत्मा-अनात्मा का विवेक। सत्संग में सुनी हुई बातें याद रखकर उसका मनन करने से मुख्य विवेक जगता है। एक होती ही है रहने वाली चीज, वह है आत्मा। दूसरी होती है छूटने वाली, नष्ट होने वाली चीज, वह है अनात्मा, मायारूपी जगत के पदार्थ। जो अनात्म पदार्थ हैं वे चाहे कितने भी कीमती हों, कितने भी सुंदर हों, कितने भी सुखद लगें किन्तु कभी तो उनका वियोग होगा ही। या तो वह चीज नहीं रहेगी या तो उसे ʹमेरीʹ कहने वाला  शरीर नहीं रहेगा। संसार की कोई भी चीज हो वह केवल देखऩे भर को है, कहने भर को हमारी है। आखिर तो छूटेगी ही। जब चीज छूट जाये तब रोना पड़े, उसके वियोग का दुःख सहना पड़े उसके पहले समझकर उसमें से ममता छोड़ दें। जो छूटने  वाली चीज है उसे छूटने वाली समझ लें और जो नहीं छूटने वाला है, सदा साथ देने वाला है उस आत्मा में प्रीति कर लें तो काम बन जायेगा।

हम लोग क्या करते हैं कि जो छूटने वाली चीजें हैं उनसे प्रीति करते हैं और जो सदा साथ रहने वाला है उनकी ओर ध्यान नहीं देते हैं। जो प्रीति अपने आत्मा में करता है और छूटने वाली चीजों का उपयोग करता है उसका जीवन सुखमय हो जाता है।

किसी रास्ते से गुजर कर आप कहीं जाना चाहते हो तो सड़क बढ़िया हो चाहे घटिया हो, चाहे चढ़ाव आये चाहे उतार आये, आप वहाँ से गुजर कर अपने गन्तव्य स्थान को पहुँच ही जाओगे। चढ़ाव देखकर आप रुक नहीं जाओगे और उतार देखकर बैठ नहीं जाओगे । ऐसे ही जीवन के चाहे किसी भी क्षेत्र में जाओ, चढ़ाव उतार आयेंगी ही, अनुकूलता-प्रतिकूलता आयेगी ही। संयोग-वियोग भी होता रहेगा। इन सबको गुजरने दो और अपने लक्ष्य की स्मृति बनाये रखो। जिस पत्नी का संयोग हुआ है एक दिन उसका वियोग भी होगा, पुत्र परिवार का भी वियोग होगा। धन-पद-प्रतिष्ठा, दुःख-सुख सब संयोगजन्य हैं। उनका वियोग अवश्य होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है क्योंकि ये सब नश्वर हैं। फिर भी उनके लिए आदमी तड़पता रहता है तो मनुष्य जन्म में जो आत्मज्ञान का अधिकार है वह गँवा देता है।

व्यवहार में आप कुशल रहो। व्यवहार चलाने के लिए रूपये पैसे की जरूरत पड़ती है। ठीक है, किन्तु अंदर समझ बनाये रखो कि इसमें कोई सार नहीं है। बहुत धन मिल गया तो भी क्या ? पद-प्रतिष्ठा मिल गई फिर क्या ? ये सब अनात्म पदार्थ हैं, उनका संयोग हुआ है तो वियोग भी होगा। इन छूटने वाले पदार्थों का साथ कब तक टिकेगा ?

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

असत् कभी टिकता नहीं है और सत् का कभी नाश नहीं होता है। उस सत् के साथ मन से भी संबंध बनाये रखना है।

रेलवे में मुसाफिरी करते वक्त हमने देखा है कि यात्री जब मिलते हैं तो आपस में बातचीत करते हैं- ʹआप कहाँ से आये हो ? कहाँ जाना है ?ʹ फिर एक दूसरे का स्वभाव मेल खाता है तो दोस्ती जम जाती है। वे साथ में खाते हैं, कुछ खरीदते हैं तो एक एक दूसरे को देते हैं। एक-दूसरे का एड्रेस भी लेते हैं और उतरते समय तो बहुत लम्बी-चौड़ी बातचीत करते हैं- ʹअच्छा फिर मिलेंगे, खत लिखेंगे… आयेंगे… जायेंगे…ʹ वह सब स्टेशन से बाहर निकलकर घर पहुँचते ही हवा हो जाता है। रेलवे की दोस्ती वहीं तक सीमित रह जाती है।

तुम्हारे ये जो श्वासोच्छ्वास चल रहे हैं तो समझो यह आयुष्यरूपी गाड़ी चल रही है। रेलगाड़ी तो कहीं दो मिनट, कहीं पाँच मिनट, कहीं आधा घंटा भी रूकती है पर यह गाड़ी तो चौबीस घंटों चलती ही रहती है। रेलगाड़ी छुक-छुक करती चलती है, यह गाड़ी ʹसोઽहं सोઽहंʹ करती है। रेलगाड़ी में तो आप चाहो तो बीच के स्टेशन में उतरो चाहे अंतिम स्टेशन पर उतरो मरजी आपकी। इस गाड़ी को तो जहाँ रूके, छोड़ना ही पड़ेगा। ऐसी गाड़ी में साथ में जो स्नेही, सगे-संबंधीरूपी पैसेंजर मिल गये उनके साथ ठीक से संबंध निभा लो लेकिन अंदर से समझ लो कि गाड़ी छूटने तक का खेल है, चाहे उनकी गाड़ी पहले छूटे, चाहे अपनी गाड़ी पहले छूटे। गाड़ी से उतरे कि सब भूल जाना है। केवल अपने घर को याद रखना है।

आप बस में बैठकर कहीं जा रहे हो। रास्ते में बहुत बढ़िया बंगला दिखे, वह चाहे कितना भी सुंदर हो पर बस में से उतरकर उसमें रहने चले जाते हो क्या ? नहीं। अपना मकान भले किराये का हो, पुराना हो पर उसमें ही जाकर रहोगे क्योंकि वह अपना है जबकि सुंदर दिखऩे वाला वह बंगला तो पराया है, देखने भर को है। उसमें निवास नहीं हो सकता। ठीक ऐसे ही शरीररूपी घर कितना भी सुंदर लगे, सुखदायी लगे पर यह देखने भर को है, पराया है। इसमें सदा निवास नहीं हो सकता। अपना आत्मारूपी घर ही अपना है, शाश्वत है।

शरीर सदा टिकता नहीं है और आत्मा कभी मरता नहीं है। यह है मुख्य विवेक। ऐसा विवेक जिसका जागृत हो गया वह देर सवेर अमर आत्मा का ज्ञान पा लेगा।

अविनाशी आतम अमर जग ताते प्रतिकूल।

ऐसा ज्ञान  विवेक है, सब साधन का मूल।।

आत्मा अविनाशी है, शरीन नाशवान है। आत्मा सत्-चित्-आनंदस्वरूप है, शरीर असत्, जड़ और दुःखरूप है। आत्मा अजर-अमर है, शरीर परिवर्तनशील और मरणधर्मा है। ऐसा विवेक जिसका  पक्का हो गया उसने दुनिया में बहुत कुछ जान लिया। उसने बहुत पढ़ाई कर ली, उसने बहुत  परीक्षाएँ पास कर लीं। चाहे वह अनपढ़ हो, अंगूठाछाप हो पर सत्संग सुनते सुनते उसका विवेक जग जाता है। सुख-दुःख में वह इतना हिलता नहीं है। पढ़े हुए जिंदगी में जितने सुख-दुख के झोंके खाते हैं उतने झोंके खाने का दुर्भाग्य उसका नहीं होता है। संसार बमें ही रचा-पचा रहने वाला आदमी चाहे कितना भी पढ़ा लिखा हो  किन्तु उसके जीवन में सत्संग नहीं है विवेक नहीं है। आदमी को थोड़ा सा भी सुख मिलता है तो अभिमान आ जाता है और थोड़ा सा दुःख आता है तो परेशान हो जाता है। तो किसकी पढ़ाई सच्ची ? सत्संग में आदमी बिना परिश्रम के ऐसी पढ़ाई पढ़ लेता है कि अनपढ़ होते हुए भी वह पढ़े-लिखे को पढ़ा सकता है। तुलसीदास जी ने कहा हैः

बिनु सत्संग विवेक न होई।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

भगवान की कृपा के बिना सत्संग सुलभ नहीं है। माया की कृपा हो तो आदमी को धन-धान्य मिलता है, प्रजापति की कृपा हो तो पुत्र परिवार मिलता है। जब प्रभु की कृपा होती है तब सत्संग मिलता है।

सत्संग में प्रीति होना बड़े भाग्य की बात है और सत्संग से वंचित होना, सत्संग का त्याग करना महान पापों का फल है। किसी आदमी में सामान्य विवेक भी नहीं है, वह यदि सत्संग सुनता रहेगा तो उसका सामान्य विवेक जगेगा और प्रीतिपूर्वक, आदरपूर्वक, श्रद्धा से सत्संग का मनन करेगा तो मुख्य विवेक में उसकी गति हो जायेगी। सामान्य विवेक जगने से आदमी के चित्त में धर्म की उत्पत्ति होती है। वह धर्मात्मा बन जाता है। मुख्य विवेक जगता है और वह दृढ़ हो जाता है तो आदमी महात्मा बन जाता है। महात्मा वह है जो अपने शरीर सहित संपूर्ण जगत के पदार्थों को नाशवान समझकर, अविनाशी आत्मा में प्रीतिपूर्वक स्थित हो जाता है। जो अपने-आपको जान लेता है, वही परम विवेकी है। उसने ही जगत में बड़ा काम कर लिया जिसने अपने-आपको जान लिया।

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली।

जिसने अपने आपसे मुलाकात कर ली।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 5,6,7 अंक 53

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