सच्चे सुख की खोज

सच्चे सुख की खोज


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कबीर जी ने कहा हैः

भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।

खोजत-खोजत जुग गये पाव कोस घर आय।।

आत्मतत्त्व के रहस्य को जानने वाले भेदू पुरुषों के सान्निध्य बिना जीव बेचारा कितने ही जन्मों से विषय-विकार के सुख में, अहंकार के सुख में, भविष्य के सुख में, और स्वर्ग के सुख में उलझ-उलझकर भटक रहा है। फिर भी आज तक उसे कहीं भी वास्तविक सुख नहीं मिला और न ही वह स्थिर हो सका।

मनुष्यमात्र की माँग है आनंद, मुक्ति, नित्य सुख और अमरता की। मनुष्य धन-संपत्ति क्यों इकट्टी करता है ?

सुख के लिए।

नौकरी क्यों करता है ?

सुख के लिए।

वह तन्दुरुस्ती क्यों चाहता है ?

सुख के लिए।

चोर चोरी क्यों करता है ?

सुख के लिए।

मनुष्य मंदिर में भगवान के दर्शन करने क्यों जाता है ?

सुख के लिए।

आप जो कुछ मत, पंथ, देवी-देवता, गुरु अथवा धन-वैभव, सामाजिक संबंध चाहते हो, मानते हो उसकी गहराई में भी सुख की ही इच्छा होती है। जीवमात्र की प्रत्येक प्रवृत्ति सुख के लिए होती है। किंतु फिर भी आज तक उसे सच्चा सुख नहीं मिला।

एक मियाँभाई मृत्युशैय्या पर पड़े थे। उन्होंने मुल्ला जी का बुलवाया और कहाः “यह दक्षिणा लीजिये और मेरे खुदा से दुआ माँगिये।ʹʹ फिर वह मियाँ भाई खुद आकाश की तरफ देखकर खुदा से दुआ माँगने लगा।

“हे खुदाताला ! मैं तुम्हारे कहने के मुताबिक कुछ न कर सका, मुझे माफ करना। मैं जैसा भी हूँ, तुम्हारा हूँ। मेरी रक्षा करना। मैं तुम्हारी शरण में हूँ।”

उसके बाद मियाँभाई ने दूसरी प्रार्थना शुरु कीः “हे शैतान ! मैं तुझसे दोस्ती भी न निभा सका। मुझे तू माफ करना। मैं जैसा भी हूँ, तेरी शरण में हूँ।”

मुल्लाजीः “यह क्या बकवास कर रहा है ?”

मियाँभाईः “मुल्लाजी ! आप दक्षिणा लेकर जाइये। मरना तो मुझे है। क्या पता मैं किसके हाथ में जाऊँगा ? खुदाताला के पास जाऊँगा कि शैतान के पास जाऊँगा इसकी मुझे खबर नहीं है, इसलिए मैं दोनों से प्रार्थना कर रहा हूँ।”

आज के मनुष्य की ऐसी दयनीय दशा है। मनुष्य को पता ही नहीं है कि मृत्यु के बाद भगवान की शरण जायेंगे या फिर से जन्म-मरण के चक्र में ही भटकेंगे क्योंकि साधना, संयम सदाचार द्वारा अनुभूति नहीं की है न ! यदि मनुष्य तत्परता से साधना करने लगे तो कुछ ही दिनों में उसे अनुभूति होने लगेगी। जिस प्रकार यदि टेलिफोन का नंबर घुमाना आए और कोड नंबर पता हो तो नन्हें से डिब्बे के द्वारा आप किसी भी राज्य या देश में संबंध स्थापित कर सकते हो परंतु यदि नंबर घुमाना ही न आता हो या सही नंबर पता ही न हो तो ? गलत नंबर लग जाता है।

आत्मज्ञानी महापुरुषों का मार्गदर्शन न मिलने पर आप दुन्यावी चीजों में से सुख पाने के लिए कितने ही भटको परंतु सच्चा सुख नहीं मिलेगा। आत्मज्ञानी महापुरुष के दर्शन और सत्संग द्वारा दृढ़ निश्चय करके साधन-भजन किया जाए तो सच्चे सुख की अनुभूति हो जाएगी। उधार धर्म नहीं…. ʹमौत के बाद स्वर्ग में जाएँगेʹ ऐसा नहीं परंतु यहीं बिस्त का बिस्त, स्वर्ग का स्वर्ग जो तुम्हारा अंतर्यामी आत्मदेव है, उसको जानकर परम सुख की अनुभूति करने की कला जान लो।

यह जेट युग है, बैलगाड़ी में बैठकर मुसाफिरी करने का जमाना नहीं है। जैसे पहले अपने दादा-परदादा बैलगाड़ी में जाते थे लेकिन अभी आपको शीघ्र पहुँचाए ऐसा साधन चाहिए क्योंकि समय कम है। ऐसे ही साधना में भी तीव्रता चाहिए और शीघ्र पहुँचा दे ऐसा साधन चाहिए।

संत महापुरुष के सान्निध्य से, सत्संग से जो भी साधना की विधि सीखने को मिले, उसका अभ्यास दृढ़तापूर्वक नियम से रोज चालू रखो। आपको साधन-भजन की जो चिनगारी मिले उसकी सुरक्षा करो। जैसे, खेत में बीज उगे हों लेकिन उनकी सुरक्षा न की जाये तो बीज मुरझा जाते हैं और यदि उनकी सुरक्षा की जाये तो थोड़े ही समय में वे पौधे होकर फलते हैं। वटवृक्ष के एक छोटे से बीज में से विशाल वटवृक्ष हो सकता है। ऐसे ही नियमित रूप से साधन-भजन किया जाये और उसकी सुरक्षा की जाये तो छः महीने में अनुभवरूपी मीठे फल भी चखने को मिल सकते हैं। लेकिन साधन-भजन करने में सातत्य होना चाहिए।

कई लोग दो दिन साधन-भजन करेंगे, नये-नये नौ दिन नियम से चलेंगे और फिर बीच में छोड़ देंगे अथवा तो दूसरा साधन पकड़ेंगे। इस प्रकार वर्षों बीत जाते हैं फिर भी बेचारे ठनठनपाल ही रह जाते हैं, सच्चे सुख से वंचित ही रह जाते हैं।

सुख सबकी माँग है। हाँ, तमोगुणी, रजोगुणी और सत्त्वगुणी जीवों को सुख प्राप्त करने का माध्यम जरूर अलग-अलग होता है। जैसे की तमोगुणी जीव तामसी आहार करके, किसी भी प्रकार के कर्म किये बिना ही आलस्य तथा प्रमाद में ही जीवन बिताते हैं, उनका सुख कीचड़ का सुख है। जैसे, गोबर का कीड़ा गोबर में ही सुख मानता है और नाली का कीड़ा नाली में ही सुख पाता है वैसे ही तामसी स्वभाव का मनुष्य तामसी व्यवहार में ही सुखबुद्धि करता है।

कई मनुष्य रजोगुणी स्वभाव के होते हैं। वे थोड़ी प्रवृत्ति करेंगे और देखेंगे कि यदि माल और वाहवाही होती होगी, तो कहेंगे कि ʹवाह ! मजा ही मजा है !ʹ यह रजोगुणी सुख है।

कुछ सात्त्विक मनुष्य होते हैं। वे ध्यान-भजन करते हैं, सेवा और परोपकार करते हैं, सदाचारी पवित्र जीवन बिताते हैं, संतदर्शन-सत्संग से उनका हृदय पुलकित होता है। इसे सात्त्विक सुख कहते हैं।

परंतु संतों और सत्शास्त्रों का कहना है कि सत्त्वगुणी मनुष्य को भी तब तक सच्चा, शाश्वत् सुख नहीं मिलता, जब तक वह गुणातीत न बने। संत महापुरुषों का सान्निध्य पाकर ऐसा आत्मानुभव प्राप्त कर लेना चाहिए कि फिर उनका अनुभव अपना अनुभव हो जाय। जब-जब वृत्ति अंतर्मुख करें तो संतत्त्व ही केवल शेष रहे।

दिले तस्वीरे है यार….

जबकि गरदन झुका ली और मुलाकात कर ली।

जब तक अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। तब तक मन स्थिर नहीं होता।

स्वामी विवेकानन्द कहते थेः

“थोड़ी साधना करो परंतु उत्साह और सावधानी के साथ करो। शास्त्र और महापुरुषों की बात को मोक्षप्राप्ति के लिए सुनो, न कि सत्संग में गये और मजा लेकर आ गये।”

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।

“हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।” भगवदगीताः 8.8

आपकी वृत्ति जिस-जिस वस्तु और व्यक्तियों में जाए उस-उस वस्तु और व्यक्ति में एक अनन्य परमात्मा ही विराजमान हैं – ऐसी दृढ़ता से छः महीने लगातार और सावधानी से अभ्यास किया जाय तो कल्याण हो जाता है।

अभ्यास करने वाले साधक को आहार विहार का ख्याल रखना चाहिए। अति बहिर्मुख, अति पामर, अति तामसी और अति राजसी लोगों का संपर्क नहीं करना चाहिए। असाधक या निगुरों के संपर्क से साधक की साधना क्षीण होती है जबकि साधकों का संपर्क साधक को मददरूप बनता है। इसलिए विरोधी वृत्ति के लोगों के साथ कदापि मेल नहीं रखना चाहिए। केवल ऐसे ही लोगों के साथ संग करना चाहिए जो आपकी नाईं आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हों, आपके जैसे ही विचार के हों, सदाचारी हों और सुशील हों। अन्य के साथ फालतू बैठना भी नहीं चाहिए क्योंकि कुसंग की लालच और उसका प्रभाव बहुत ही घातक होता है। इसीलिए कुसंगियों से सावधान रहकर अपनी साधना की रक्षा करनी चाहिए।

सावधानीपूर्वक आत्मज्ञान के नियमित अभ्यास से आत्मशांति और आत्मसुख की अनुभूति होने लगती है। प्रथम फायदा यह होगा कि आपका शरीर निरोग हो जायेगा। कर्कश वाणी मिटकर आपकी वाणी मधुर हो जायेगी। आपके संकल्प में अनुपम सामर्थ्य आ जायेगा। कुटिल स्वभाव दूर होकर मोह, मद, मत्सर आदि विकारों पर विजय मिल जायेगी। फिर विषय विकार आप पर हमला नहीं कर सकेंगे। जैसे एक बार आप जेबकतरे को पहचान लो फिर वह आप पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मान लो कि आप बस में जा रहे हो। आप जान गये हो कि जेबकतरा कौन है और आप अपनी जेव सँभालने में सावधानी भी रख रहे हो, फिर यदि जेबकतरे का हाथ आपकी जेब पर  पड़ता है तो आप तुरंत कहोगे किः “क्यों भाई साहब ! आपको पैसे चाहिए ?”

जेबकतरा अपने को बचाने के लिए गिड़गिड़ाते हुए बोलेगा किः “नहीं, नहीं, मैं तो मजाक करता था कि आपको पता चलता है कि नहीं। माफ करना, भैया !”

आप चोर पर नजर नहीं रखते हो इसलिए चोर चोरी कर जाता है। इसी प्रकार आप अपने मन पर सतर्क नजर रखने पर आप उस पर विजय पा सकते हो।

अतः मनुष्य जीवन का अंतिम ध्येय प्राप्त करने के लिए, महासत्य को पाने के लिए अत्यंत व्याकुलता का भाव प्रकट कर देना चाहिए। जिस प्रकार मकान को आग लगने के अवसर पर आलस्य-प्रमाद, निद्रा-तंद्रा, दिन-रात या ठंडी गर्मी का भी ख्याल नहीं रहता, ऐसे ही आंतरिक वैराग्य की अग्नि प्रज्वलित होने पर इन सब बातों में मनुष्य नहीं फँसता और सावधानी से लग जाता है। जन्म-जन्मांतरों के इकट्ठे हुए पाप-ताप और विरूद्ध संस्काररूपी इंधन को ज्ञानरूपी आग लगा दो जिससे वे भस्मीभूत हो जाएँ और अंतःकरण शुद्ध एवं निर्मल हो जाए तथा परम सुख, परम आनंद एवं परम शांति की झलकें आने लगे।

उठो…. जागो….कमर कसो… किसी संत महापुरुष की शरण में पहुँच जाओ…. और अभ्यास करके सच्चे सुख को पा लो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 34,35,36,37,43 अंक 55

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