पुज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
भगवान से कुछ माँगो मत। माँगने से देने वाले की अपेक्षा तुम्हारी माँगने की वस्तु का महत्त्व बढ़ जाता है। ईश्वर और गुरु माँगी हुई चीजें दे भी देते हैं किन्तु फिर अपना-आपा नहीं दे पाते।
बलि ने भगवान वामन से कह दियाः “प्रभु ! आप जो चाहे ले सकते हैं।”
तब भगवान ने तीन कदम पृथ्वी माँगी और दो कदम में ही इहलोक तथा परलोक दोनों ले लिए। फिर कहाः “बलि ! अब तीसरा कदम कहाँ रखूँ ?”
बलिः “प्रभु ! मुझ पर ही रखो।”
भगवान वामन ने तीसरा कदम बलि के सिर पर रखा और उसको भी ले लिया। बलि बाँध दिये गये वरुणपाश में।
उस समय ब्रह्माजी वहाँ आये और भगवान से बोलेः
यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
दूर्वाकुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्।
अप्युत्तमां गतिमसो भजते त्रिलोकीं
दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत्।।
“प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदय से, कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्घ्य देता और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्त होती है, फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से, धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है ?” श्रीमद् भागवतः 8.22.23
तब भगवान ने जो बात कही वह बड़ी ऊँची बात है क्योंकि श्रोता बहुत ऊँचा है। ग्वाल-गोपियों के आगे श्रीकृष्ण वही बात करेंगे जो उन्हें समझ में आये। अर्जुन जैसे बुद्धिमान के आगे श्रीकृष्ण गीता का बात करते हैं। जितना श्रोता ऊँचा, उतनी ही वक्ता की ऊँचाई प्रकट होती है। भगवान को तो ब्रह्माजी जैसे श्रोता मिल गये थे, अतः वे बोलेः “हे ब्रह्मन् ! कर्त्ता कर्म का विषय नहीं बन सकता। जीव कर्म का कर्त्ता तो हो सकता है लेकिन कर्म का विषय़ नहीं बन सकता है। आप कर्म के कर्त्ता तो बन सकते हैं लेकिन कर्त्ता स्वयं कर्म का विषय नहीं बन सकता है।
कर्त्ता सब कुछ दे सकता है लेकिन अपने आपको कर्त्ता कैसे देगा ? जब लेने वाला मैं उसे स्वीकार करूँगा तब ही कर्त्ता मुझे पूर्ण रूप से अर्पित होगा। मैं कर्त्ता को ही स्वीकार कर रहा हूँ क्योंकि मैं कर्त्ता को अपना-आपा अर्पण करना चाहता हूँ। बलि कुछ माँग नहीं रहा है, वह दे ही रहा है। जब वह सब दे रहा है तो मैं कैसे चुप रहूँ ? मैं अपना-आपा बलि को देना चाहता हूँ इसीलिए मैंने बलि को ले लिया।”
कर्त्ता कर्म का विषय नहीं हो सकता और कर्त्ता कितना भी लेगा-देगा वह माया में होगा। उसको प्रतीति होगी कि ʹमुझे कुछ मिला… मैंने यह दिया….ʹ लेकिन देते-देते ऐसा दे दें कि देने वाला ही न बचे। देने वाला जब नहीं बचेगा तो लेने वाला कैसे बचेगा ? हम न तुम दफ्तर गुम। यह इतनी ऊँची बात है कि इसी बात को भगवान श्रीराम अपने अति प्रिय, अत्यन्त कृपापात्र हनुमानजी से कहते हैं।
सेतुबंध रामेश्वर की स्थापना के लिए हनुमानजी को काशी से शिवलिंग लाने के लिए भेजा गया।
हनुमानजी को शिवलिंग लाने में थोड़ी देर हो गयी। इधर रामेश्वर में देर हो रही थी अतः पण्डितों ने, ज्योतिषियों ने कहाः “स्थापना का मुहूर्त बीता जा रहा है।”
तब श्रीरामजी ने कहाः “मुहूर्त बीतने के बाद हनुमान जी आयेंगे तो क्या किया जाय ? आप स्थापना करवा दीजिये।”
फिर दूसरे शिवलिंग की स्थापना कर दी गयी। थोड़ी ही देर में हनुमानजी शिवलिंग लेकर पहुँच गये किन्तु देरी होने की वजह से उनके द्वारा लाये गये शिवलिंग की स्थापना नहीं हो सकी, अतः उन्हें दुःख हुआ। दुःख क्यों हुआ ? क्योंकि कर्त्ता अभी मौजूद है… सेवा करने वाला मौजूद है।
जब प्रभु श्रीराम को इस बात का पता चला तब वे बोलेः “हे हनुमान ! सेवक का कर्त्तव्य है कि तत्परता और कुशलता से सेवा कर लें। फिर स्वामी ने सेवा को स्वीकार किया या नहीं किया – इस बात का सेवक को दुःख नहीं होना चाहिए। ʹमेरी लाई हुई चीज सेवा में स्वीकारी नहीं गई…ʹ यह सोचकर दुःखी क्यों हो रहे हो ? हे केसरीनंदन ! अष्टसिद्धियाँ और नवविधियाँ तुम्हारे पास हैं। तुम संयम की साक्षात् मूर्ति हो। तमाम प्रशंसनीय गुण तुममें हैं लेकिन हनुमान ! तुम्हें संतों की शरण में जाना चाहिए और अपना-आपा पहचानना चाहिए। जब तक तुम अपना-आपा शुद्ध-बुद्ध स्वरूप नहीं जानोगे, तब तक सुख-दुःख की थप्पड़ें इस मायावी व्यवहार में लगती ही रहेगी। हे अंजनिसुत ! तुम्हें सावधान होकर ब्रह्मवेत्ता संतों का सत्संग सुनना चाहिए।”
अब श्रीराम कैसे कहें कि ʹतुम्हें सावधान होकर, मेरी शरण में आकर सत्संग सुनना चाहिए।ʹ इसलिए एक ज्ञानी दूसरे ज्ञानी के ऊपर यश ढोलते जाते हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण कहेंगे कि “संतों की शरण में जाओʹʹ और संत कहेंगे कि ʹश्रीराम की, श्रीकृष्ण की शरण जाओ।” सीधा कैसे कहें ? कभी मौज में आ जाते हैं भगवान तो कह देते हैं कि ʹसब कुछ छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ।ʹ जैसे अर्जुन से कहाः
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
श्रीरामजी कहते हैं हनुमान जी सेः ʹहे पवनपुत्र ! तुम्हें संतों की शरण जाना चाहिए एवं ʹकर्म का कर्ता कौन है ? कर्म किसमें हो रहे हैं ? सुख-दुःख किसको होता है ? सफलता-विफलता किसमें होती है ?ʹ इस रहस्य को तुम्हें समझना चाहिए। ʹसफलता-विफलता का, सुख-दुःख का जिस पर असर होता है, उसका और तुम्हारा आपस में क्या सम्बन्ध है ?ʹ यह भी जान लो। हे हनुमान ! जब तक जीव इस बात को, इस रहस्य को नहीं जानता है, तब तक उसे कितना भी मिल जाये फिर भी माया के थपेड़ों से वह चलित होता रहता है।
हे केसरीनंदन ! जीव का वास्तविक स्वरूप अचल है, अनामय है, निरंजन है, निर्विकार है, सुखस्वरूप है लेकिन जब तक वह अपने अहं को, अपने क्षुद्र जीवत्व को नहीं छोड़ता और पूर्णरूप से ब्रह्मवेत्ताओं की बिनशरती शरणागति स्वीकार नहीं करता तब तक यह जीव कई ऊँचाइयों को छूकर पुनः उतार-चढ़ाव के झोंकों में ही बहता रहता है। जहाँ कोई ऊँचाई और ऊँचा न ले जा सके एवं कोई नीचाई नीचे न गिरा सके – उस अव्ययपद को, उस परमपद को पाने के लिए तुम्हें अवश्य यत्न करना चाहिए।”
हद हो गयी ! इस ब्रह्मविद्या के लिए तो शास्त्र कहते हैं-
स्नातं तेन सर्व तीर्थम्।
दातं तेन सर्वं दानम्।
कृतो तेन सर्वं यज्ञो।
येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।
ʹउसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सारा दान दे दिया, उसने सारे यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण के लिये भी मन को ब्रह्मविचार में स्थिर कर दिया।ʹ
इस ब्रह्मविद्या की महिमा का जितना भी बयान किया जाये, कम है। यह समझ में आये तो निहाल, थोड़ा समझ में आये तो भी कल्याण और केवल कान को छूकर भी चली जाये तब भी कुछ तो काम करेगी ही।
हनुमान जी कितने निष्काम कर्मयोगी हैं ! शायद इस समय मुझे धरती पर ऐसा देखने को नहीं मिला। मेरी नजर में तो अभी तक हनुमानजी जैसा त्यागी, संयमी, बुद्धिमान और निष्काम कर्मयोगी नहीं आया। होंगे….कहीं और होंगे… उनका अनादर करने का पाप हम अपने सिर नहीं लेना चाहेंगे। फिर भी हमारी नजर में तो नहीं दिखा।
इतनी ऊँचाई को छूने वाले हनुमानजी चाहते तो कह सकते थे अपने स्वामी श्री राम से कि, ʹप्रभु ! पत्नी तो आपकी खो गयी है अतः आप जानो। मैं ब्रह्मचारी… भला आपकी पत्नी को खोजने से मेरी सेवा कैसे हो सकती है ? दूसरा कोई काम बताइये। यह सेवा तो मुझसे नहीं होगी। मैं ब्रह्मचारी होकर आपकी पत्नी को खोजने जाऊँ तो लोग क्या कहेंगे ? आप तो मुझे कोई मंत्र दे दीजिये ताकि मैं गुफा में बैठकर भजन करूँ…ʹ लेकिन हनुमान जी ने ऐसा नहीं कहा, वरन् सेवा में ऐसे लगे कि मैनाक पर्वत की भी इच्छा हो गयी कि ʹपरिश्रम करके हनुमानजी थक गये होंगे तो तनिक मुझ पर विश्राम कर लें।ʹ और मैनाक पर्वत सागर से निकला और बोलाः “हे पवनपुत्र ! थोड़ा विश्राम कर लीजिये।”
तब हनुमान जी कहते हैं-
राम काज कीन्हें बिनु।
मोहि कहाँ विश्राम।।
सेवा में कितने तत्पर रहे होंगे हनुमानजी ! ऐसे हनुमानजी से श्रीरामजी कहते हैं- “हे अंजनि-सुत ! तुम्हें संतों का संग करके, अपने चित्त के साथ का जो संबंध है, उसका विच्छेद करना चाहिए। जिसको सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि का असर होता है उस अपने चित्संवित् से तदाकारता हटाकर जब तुम अपने स्वरूप को जानोगे तब प्रलयकाल का मेघ भी तुम्हें विचलित नहीं कर सकेगा। सूर्य बर्फ का गोला होकर धरती पर आ जाये और धरती तपती हुई आकाश में उड़ने लग जाये फिर भी ब्रह्मवेत्ता के चित्त में कोई विशेष आश्चर्य नहीं होता। अतः हे केसरीनंदन ! तुम्हें ब्रह्मज्ञान पाना चाहिए।”
यह कौन कह रहा है ? श्रीरामचन्द्रजी कह रहे हैं श्री हनुमानजी से। हनुमानजी कितनी ऊँचाई पर हैं उनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर भी हनुमानजी से भी ब्रह्मज्ञान कितना ऊँचा है – यह श्रीरामजी की वाणी से परिलक्षित होता है, जिसका मात्र अनुमान हम कर सकते हैं। यदि हनुमानजी को हर्ष या शोक हो रहा है तो अभी हनुमानजी सात्त्विक सेवक हैं, महान हैं लेकिन श्रीरामजी की निगाह में हनुमानजी अभी भी कृपा के पात्र हैं। हनुमानजी पर कृपा करके श्रीरामजी बोल रहे हैं।
अगर भगवान और संत कृपा करके आपको कोई फल-मिठाई दे दें – यह कोई बहुत कृपा नहीं है। उनकी परम कृपा न जाने किस रूप में आती है यह तो वे ही जानें ! जो सदगुरु हैं, ब्रह्मवेत्ता महापुरुष हैं उनसे हानि तो कभी भी नहीं होती है। बहुत मुश्किल है उन्हें समझना।
दुनिया को हिला देने वाले विवेकानंद जैसे शिष्य श्रीरामकृष्ण परमहंस के श्रीचरणों में बैठकर सत्संग सुनते थे और ऐसे रामकृष्ण परमहंस बार-बार रसोई घर में पहुँच जाते और माँ शारदा से पूछतेः
“क्या बनाया है ?”
माँ शारदाः “दाल, चावल, चटनी आदि।”
रामकृष्ण परमहंसः “बढ़िया है… जल्दी बनाओ।”
यह क्रम एक दो दिन से, एक दो माह से नहीं, वरन् बरसों से चला आ रहा था। आखिर एक दिन माँ शारदा बोल पड़ीं-
“आप इतने बड़े संत हैं और बार-बार सत्संग छोड़कर रसोईघर में भोजन की बातें करने आ जाते हैं !”
तब रामकृष्ण ने बड़े गहरे अनुभव की बात, मार्मिक बात कहीः “मेरी शरीररूपी नाव ब्रह्मज्ञान के उदधि में इतनी लहराती है कि अगर उसे खूँटी से छोड़ दूँ तो वह किनारा छोड़कर महासागर में लीन हो जायेगी, इसलिए स्वाद की आसक्तिरूप खूँटी से मैंने उसे बाँध रखा है। जिस दिन मेरी रूचि चली जायेगी, उस दिन समझ लेना कि यह नाव खूँटी से निकलकर व्यापक सागर में व्याप्त हो जायेगी… फिर तीन दिन से ज्यादा यह नाव नहीं रह पायेगी।”
ब्रह्मवेत्ता के जीवन में संसारियों की नाईं कोई-न-कोई उन्नीस-बीस बात रहती है तभी उनका शरीर टिकता है। जैसे, नाव तो दरिया में जा सकती है लेकिन फिर भी किनारे के थपेड़े खाती है क्योंकि खूँटी से बँधी है, ऐसे ही ब्रह्मवेत्ता तो सब कुछ छोड़कर ब्रह्म में लीन हो सकते हैं। फिर भी उठना-बैठना, लेना-देना आदि थपेड़े सहते हैं क्योंकि उन्होंने खूँटी लगा रखी है। कहीं न कहीं आसक्ति की खूँटी उन्होंने बाँध रखी है। पत्थर तो ऐसे ही सदैव किनारे पर पड़ा रहता है जबकि नाव खूँटी के कारण वहीं पड़ी रहती है। पत्थर के पड़े रहने में और नाव के पड़े रहने में बहुत अंतर है। पत्थर तो उठाकर चलो और जितनी देर उठाकर चलो उतनी देर पत्थर गति करता है और छोड़ दिया तो जम जायेगा जबकि नाव को अगर किनारे से, खूँटी से छोड़ दिया तो अपने-आप कहीं की कहीं पहुँच जायेगी।
श्री रामकृष्ण के वचन समय पाकर प्रत्यक्ष हुए। एक दिन माँ शारदा थाली सजाकर श्रीरामकृष्ण के पास पहुँची। उस समय श्री रामकृष्ण ने मुँह घुमा लिया। माँ शारदा को बात याद आ गयी और धड़ाम से थाली हाथों से गिर पड़ी। ʹअब खूँटी किनारे से उखड़ गयी है।ʹ फिर कुछ ही दिनों में श्री रामकृष्ण परमहंस का शरीर नहीं रहा। वे ब्रह्मलीन हो गये।
….तो ब्रह्मवेत्ता महापुरुष न जाने कौन-सी छोटी-छोटी बात की खूँटी लेकर अपने शरीररूपी नाव को किनारे पर लगाये रखते हैं ताकि बैठने वाले कोई रह न जाये।
भगवान बुद्ध जा रहे थे महानिर्वाण के लिए… इतने में एक आदमी दौड़ता-भागता आया और बोलाः
“मुझे भंते से कुछ पूछना है।”
आनंदः “भंते की नाव किनारा छोड़कर चल पड़ी है। अब आये हो ? इतने दिन तक कहाँ थे ?”
व्यक्तिः “मैंने चालीस साल से भगवान बुद्ध का नाम सुना था लेकिन एक मन बोलता था-जाऊँ, भंते के चरण पकड़ूँ।ʹ दूसरा मन कुप्रचार का शिकार होकर सोचता कि-ʹक्या जायें ऐसे आदमी के पास ?ʹ इस प्रकार कभी निंदकों का कुप्रचार मुझे रोक रखता था तो कभी मेरे सत्कर्मों की पुण्याई मुझे खींचती थी भगवान बुद्ध की ओर… इस प्रकार ʹजाऊँ-न-जाऊँ… जाऊँ-न-जाऊँ…ʹ इसी में मेरे चालीस साल बीत गये। मैंने बड़ी गलती की।” वह भावविभोर होकर चिल्ला पड़ा। महानिर्वाण की ओर जाते भगवान बुद्ध यह सुनकर बोल पड़ेः
“अरे ! कौन है आनंद ? आऩे दे। जाते-जाते कोई ऐसा न कहे कि अरे ! नाव छूट गयी।”
दो मिनट बात कर ली बुद्ध ने। उसके जीवन पर निगाह डाल दी बुद्ध ने और बाद में महानिर्वाण के लिए गये… कैसी होगी करूणा बुद्धत्व को पाये हुए संतों में ! कैसा होगा उनका हृदय !! जब आप उनके अनुभव में स्थिर होंगे तब आपको पता चलेगा कि ब्रह्मज्ञानी के हृदय में कितनी करूणा होती है ! कितनी कृपा होती है उनके हृदय में ! कितनी महानता होती है !
आपका एक राज्य तो क्या पूरी धरती का राज्य भी ब्रह्मसुख के आगे कोई कीमत नहीं रखता। इन्द्र का राज्य और वैभव भी ब्रह्मसुख के आगे कुछ कीमत नहीं रखते। इन्द्र भी जिनके आगे अपने को दरिद्र मानता है ऐसे महापुरुष रोटी का टुकड़ा माँगकर, भिक्षा माँगकर समाज में घूमते हैं किन्तु उन्हें न पहचानने के कारण मनुष्य कितनी मूर्खता कर बैठता है !
एक बार समर्थ रामदास किसी गन्ने के खेत से गुजरे और थककर वहीं बैठ गये। तब उस खेत का किसान अचानक वहाँ आया और उसने समझा कि यही चोर है जो मेरे गन्ने चुराकर ले जाता है। अतः उसने उठाये गन्ने के सोटे और दे मारे समर्थ की पीठ पर।
समर्थ वहाँ से चलकर पहुँचे शिवाजी के यहाँ। शिवाजी महाराज अपने गुरुदेव को स्वयं नहलाते थे। जब शिवाजी नहला रहे थे अपने गुरुदेव को तब उनकी पीठ पर ध्यान जाते ही बोल पड़ेः “सोटियों के निशान ! किसने मारा गुरुदेव !”
समर्थः “कुछ नहीं हुआ, शिवा ! तुम अपना काम करो।”
किन्तु शिवाजी तो राजा थे। अतः दूसरे शिष्यों से सारी हकीकत जान ली और उस किसान को राज-दरबार में बुलवाया।
किसान राजदरबार में गया। जाकर देखता है तो शिवाजी महाराज से भी ऊँचे गुरुस्थान पर वे ही पुरुष बैठे हैं जिन्हें उसने चोर समझकर सोटियों से मारा था !
शिवाजी बोलेः “गुरुदेव ! इसी आदमी ने आपकी पिटाई की थी न ? आपने तो नहीं बताया लेकिन मैंने सब जानकारी लेकर आपके समक्ष इसको हाजिर किया है…”
तब समर्थ बोल उठेः “शिवा ! तू मेरा शिष्य है न ?”
शिवाजीः “जी गुरुदेव !”
समर्थः “तब तू इसको सजा मत दे। पेड़ को कोई पत्थर मारता है तो पेड़ भी कुछ देता है। इसने मुझे अनजाने में मारा है अतः तू इसको दस एकड़ जमीन दे दे।”
कैसा गजब का न्याय किया है समर्थ ने ! किन्तु यह भी संतों की करूणा का पूरा बयान नहीं है। वरन् वे तो अपने को घिसते हुए, अपने को खपाते हुए, अपने को जलाते हुए भी हमें चमकाना चाहते हैं। क्या मेरे लीलाशाह बापू को रोटी की कमी थी ? क्या कपड़ों की कमी थी ? क्या वाहवाही की कमी थी ? नहीं, कभी नहीं। फिर भी उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया लोक कल्याण में। स्वयं श्रीराम ने अपने श्रीमुख से संत-महिमा का बयान किया है और नवधा भक्ति का वर्णन करते समय शबरी से कहा हैः
प्रथम भक्ति संतन कर संगा।
ʹपहली भक्ति है संतों का संग।ʹ
सातवें सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।
सातवीं भक्ति है जगत भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत देखना और संतों को मुझसे अधिक करके मानना।ʹ
मैं तो लोगों को कर्म का फल देने के लिए मनुष्य जन्म में भेजता हूँ किन्तु मेरे संत तो उनके कर्मों को नहीं देखते वरन् अपनी उदारता को देखकर उन पर बरस जाते हैं। माया तो कर्म का फल भुगताने के लिए शरीर देती है जबकि संत उनके कर्मबंधन काटकर मेरे स्वरूप का ही दान कर देते हैं… अपने आपका ही दान कर देते हैं।
ऐसे संतत्व को पाने के लिए आप भगवान से कोई संसारी उल्लू सीधा मत करवाइये। संत से कोई संसारी स्वार्थ मत सिद्ध करवाइये वरन् उनको निर्दोष निःस्वार्थ प्रेम कीजिये। वे तो अपना आपा दे डालने के लिए घूम रहे हैं लेकिन आप उनसे संसारी खिलौने कब तक लेते रहेंगे ? नानक जी ने कहा हैः
जो तिद भावे सो भलिकार।
तू सदा सलामत निरहंकार।।
ʹतुझे जो अच्छा लगे उसी में मेरा भला है।ʹ यह भाव रखें। ʹतू मुझे यह दे दे… वह कर दे… हम यह देने आये हैं…. यह लेने आये हैं…ʹ – यह सौदेबाजी नहीं वरन् ʹहम आपके चरणों में अपना-आपा ही देने आये हैं….ʹ ऐसा समर्पण हो तो फिर वे स्वयं अपना-आपा तक देने में संकोच नहीं करते।
फिर भी, जो जिस भाव से भगवान और संत को नवाजता है उसी भाव की पूर्ति होती है देर-सबेर।
श्रीरामचरित मानस में आता हैः
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा।।
चहू चतुर कहूँ नाम अधारा।
ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।
ʹजगत में चार प्रकार के (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) राम भक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं। चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है। इनमें से ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं।ʹ (श्रीरामचरित-बालकांडः 21-3-4)
दुःख, पीड़ा और मुसीबत आये तब आर्त भाव से जो भगवान और गुरु को पुकारते हैं, उन्हें तुरंत लाभ होता है। शरणागति भाव से तुरंत लाभ होता है। ऐसे भक्त आर्त कहे जाते हैं। कोई अर्थार्थी होते हैं अर्थात् धन अथवा किसी संसारी स्वार्थ की सिद्धि के लिए भजते हैं। फिर भी भगवान ने उन्हें उदार कहा है क्योंकि देर-सबेर वे भगवान को पा ही लेते हैं।
समझो, धन के लिए साधक ने भगवान का भजन किया और धन मिल गया तो भगवान में श्रद्धा तो बढ़ ही जायेगी। भगवान में श्रद्धा बढ़ेगी तो देर सबेर भगवान के वचन भी उसे लगेंगे। आगे जाकर वह अपना-आपा भी अर्पण कर देगा इसलिए वह उदार है।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।
ʹये सभी उदार हैं अर्थात् श्रद्धासहित मेरे भजन के लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम हैं। परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही हैं – ऐसा मेरा मत है।ʹ गीताः 7-18
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि आर्त और अर्थार्थी उदार कैसे ? उदाराः सर्व एवैते… भगवान ऐसी गलती कैसे कर रहे हैं ? भगवान गलती नहीं कर रहे हैं ! भगवान सही कह रहे हैं। कोई कहे कि, ʹप्रभु ! वह तो अपना दुःख मिटाने के लिए आपको याद कर रहा हैʹ तब भगवान कहेंगे कि, ʹदुःख मिटाने के लिए ही सही, मेरी शरण तो आ रहा है न ! दवाई या छल-कपट की शरण में तो नहीं जा रहा है ! अतः वह उदार है।ʹ
ध्रुव अर्थार्थी था। उसे जगत की चीज चाहिए थी। किन्तु इस बहाने भी उसने भगवान की शरण ली तो देर-सबेर ध्रुव ने अपना आपा भी भगवान को अर्पित कर दिया, वह उदार हो गया।
दुःख मिटाने या संसार की कोई चीज पाने के लिए भगवान को भजना-यह छोटी बात तो है लेकिन इस छोटी बात का भी देर-सबेर बड़ा फल मिलने वाला है-ऐसा जानते हैं इसलिए छोटी नहीं मानते हैं और कहते हैं कि ʹये सब उदार हैं।ʹ
उदाराः सर्व एवैते…
कुछ भक्त ऐसे होते हैं जो भगवान को जानने के लिए भजन करते हैं। उन्हें जिज्ञासु कहते हैं। इन तीनों भक्तों से निराले होते हैं चौथे प्रकार के भक्त। वे हैं प्रेमी भक्त। उन्हें कुछ सांसारिक वस्तु पाना नहीं है, कोई दुःख मिटाना नहीं है और भगवान को पाने के लिए भी भगवान का भजन नहीं करना क्योंकि भगवान का तो उन्हें अनुभव हो ही गया है फिर भी भगवान की चर्चा करते-सुनते हैं। ऐसे ज्ञानी भगवद्-स्वरूप होते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि, ʹऐसे ज्ञानी तो मेरा ही स्वरूप हैं। अगर ऐसे ज्ञानी में और मुझमें तू भेद करना चाहता है कि क्या फर्क है तो ज्ञानी मेरा आत्मा है और मैं उसका शरीर। अर्जुन ! हम दोनों में क्या भेद हो सकता है ? जैसे कमरे में दो दीये जला दो तो किस दिये की कौन सी रोशनी है यह तुम कैसे अलग कर सकते हो ? दो तालाब लबालब भर गये हों और बीच की दीवार टूट गयी हो तो किस तालाब का कौन सा पानी है यह कैसे अलग कर सकते हो ? ऐसी ही बात इधर है-
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनो।
व्योमवत् व्याप्तदेहाय तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
ऐसे गुरु को हम नमन करते हैं। जैसे, घड़े का आकाश और महाकाश। घड़ा फूट गया है तो घड़े का आकाश कौन-सा और महाकाश कौन सा यह कैसे बताओगे ? मान लो घड़ा फूटा नहीं है, घड़ा मौजूद है लेकिन घड़े को पता चल गया है कि ʹमैं घड़ा नहीं हूँ बल्कि आकाश हूँʹ तो वह आकाश है ही। ऐसे ही ज्ञानी जब महानिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं तब तो वे व्याप्त ब्रह्म होते ही हैं परंतु सशरीर होते हैं तब भी वे व्याप्त ब्रह्म से अभिन्न होते हैं। कबीर जी ने कहा हैः
जल में कुंभ कुंभ में जल, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जल ही समाना, यह अचरज है ज्ञानी।।
दूसरी जगह अपना अनुभव कहते हुए संत कबीर जी कहते हैं- “दरिया का थाह लेने गई नमक की पुतली… अब नमक की पुतली का जो हाल सागर में होता है वही हाल ज्ञानी के ʹमैंʹ का होता है।”
श्रीराम कहते हैं पवनसुत सेः “तुम ज्ञानवानों के सान्निध्य में जाओ और अपने ʹमैंʹ को जरा ज्ञानवानों के दरिया में समाने दो। फिर तुम्हें सफलता का हर्ष नहीं होगा और विफलता का शोक नहीं होगा।”
भगवान श्रीराम के गुरु वशिष्ठजी महाराज भी कहते हैं- जगत पर ज्ञानवर्ती का बड़ा उपकार है अतः आदरपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिए। वे संसार-सागर से तारने वाले मल्लाह हैं।
क्या-क्या कहें ? ब्रह्मवेत्ताओं की महिमा तो लाबयान है !
ऐसे महाराज वशिष्ठजी से राजा दशरथ कहते हैं- “हे गुरुदेव ! हे करूणानिधे ! मैं और मेरा परिवार और यह राजपाट सब मैं आपके श्रीचरणों में अर्पण करता हूँ। आप कृपा करके स्वीकार करना, गुरुवर ! आपने जो दिया है वह शाश्वत है लेकिन मेरे पास देने के लिए शाश्वत तो है नहीं। किन्तु मैं निगुरा कृतघ्न न रहूँ इसलिए आप मेरी ये तुच्छ चीजों का स्वीकार करें। शरीर हाड़-माँस का है, मन चंचल है और धन-वैभव मिथ्या व नाशवान है – ये मिथ्या व नाशवान आपको अर्पण कर रहा हूँ। आप मुझे शाश्वत दे रहे हैं और मैं मिथ्या दे रहा हूँ। गुरुदेव ! आप नाराज मत होना। मैं यह ठगने की सौदेबाजी कर रहा हूँ लेकिन आप मेरा यह सौदा स्वीकार करने की कृपा करना। आप अमिट दे रहे हैं और मैं यह मिटने वाला अर्पण कर रहा हूँ।”
राजा दशरथ गुरु वशिष्ठजी के चरणों में प्रणाम करते हुए कहते हैं- “गुरुवर ! ये चारों पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न को मैं आपके चरणों में अर्पित करता हूँ। मैं अपने आपको परिवार सहित अर्पित करता हूँ और मेरा अयोध्या का राज्य भी मैंने आपको दिया। आप स्वीकार करने की कृपा करें। आपने जो मुझे दिया है, उसकी जगह यह सब देकर भी मैंने आपका पूरा बदला नहीं चुकाया है….”
वशिष्ठजी बोलेः “ब्राह्मण क्या जाने राज्य करना ? राज्य तो क्षत्रिय ही करें और इन राम-लक्ष्मणादि को एवं तुमको तो हमने पहले से ही अपना मान रखा है। अतः मेरा ही समझकर राज्य करो लेकिन कर्त्तापने के बोझ से तुम निवृत्त हो जाया करो।”
कैसे हैं महाराज वशिष्ठ और कैसे हैं राजा दशरथ !
राज्य के द्वारा वशिष्ठजी के आश्रम की सेवा होती थी। अयोध्या में श्रीराम पधारें। समय पाकर अश्वमेध यज्ञ संपन्न होने जा रहा था। यज्ञ की पूर्णाहूति और श्रीराम का जन्मदिवस – दोनों एक साथ थे। उस दिन श्रीराम ने अपनी दोनों भुजाएँ उठाकर कहाः “आज के दिन कोई भी महर्षि इस सेवक राम को सेवा का अवसर दे और मुँहमांगा दान ले ले। अयोध्या का पूरा राज्य और कौस्तुभ मणि आदि अष्ट चीजें माँग ले, यहाँ तक कि सीता जी को माँग ले तो भी मैं देने को तैयार हूँ।”
यह सुनकर वशिष्ठजी महाराज उठ खड़े हुए और बोलेः “हे राम ! हम सीता जी को लेने के लिए तैयार हैं। आप सीता जी मुझे अर्पण कर दें।”
वशिष्ठजी महाराज के इन वचनों को सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। श्रीराम ने सेवकों को संकेत किया कि जाकर सीता जी से कहें कि सजधजकर तैयार होकर आ जायें।
कथा कहती है कि श्रीराम ने सीता जी को दान में देने का संकल्प कर दिया। सीता जी के आगमन पर वशिष्ठजी बोलेः “हे सीता ! बैठ जाओ मेरे पास।”
अयोध्या में हाहाकार मच गयाः ʹसेवक राम कितने महान् और उनके लोभी गुरु कैसे ? लगता है उनकी बुद्धि सठिया गयी है…ʹ
लेकिन श्रीराम के चित्त में कोई क्षोभ नहीं है और वशिष्ठजी को कोई परवाह नहीं है।
श्रीराम पुनः बोलेः “गुरुदेव ! और कोई आज्ञा ?”
वशिष्ठजीः “राम ! तुमने दान तो दे दिया लेकिन अभी दक्षिणा देना बाकी है।”
श्रीरामः “गुरुदेव ! दक्षिणा में आप जो आज्ञा करें।”
वशिष्ठजीः “दक्षिणा के रूप में मुझे एक वचन दे दो, राम ! कि आज के बाद अयोध्या, सीता और कौस्तुभ मणि आदि अष्ट चीजें किसी को दान में देने की घोषणा नहीं करोगे।”
श्रीरामः “जैसी आपकी आज्ञा, गुरुवर !”
वशिष्ठजीः “राम ! तुमने सीता को तो मुझे अर्पित कर दिया है और दान में दी गयी चीज तुम वापस नहीं लोगे क्यों क्षत्रिय हो। अतः सीता जी को तौलकर, उसका आठ गुना सोना मुझे दे दो और मैं सीता तुम्हें वापस देता हूँ।”
श्रीरामजी ने आठ गुना सोना तौल कर दे दिया। वशिष्ठजी ने अपनी कन्यारूप सीता श्रीराम को पुनः अर्पित कर दी और उस संपत्ति से यज्ञ-यागादि किया।
वशिष्ठजी के लिए जिन्होंने हाहाकार मचाया, निन्दाएँ कीं वे न जाने किस नरक में पचते होंगे मुझे पता नहीं है लेकिन श्रीराम का शीश तो वशिष्ठजी के चरणों में अंत तक झुकता ही रहा। कैसी है श्रीराम की श्रद्धा और कैसी है वशिष्ठजी की वह उदार वृत्ति कि दक्षिणा के रूप में वचन लेकर शिष्य को बाँधकर रख दिया !
गुरु यदि कभी शिष्य को बाँधते भी हैं तो शिष्य को सारे बँधनों से छुड़ाने के लिए बाँधते हैं कि ʹले, यह गुरुमंत्र है और दस माला के वचन में तुझे बाँधता हूँ।ʹ यह बंधन तो है लेकिन गुरुदेव का बंधन है। सारे बंधनों से छुड़ाने के लिए बंधन है।
जब सारे बंधन छूट जाते हैं तब गुरु यह बंधन भी छुड़वा देते हैं। अऩ्य दर्शनों से छुड़ाने के लिए गुरुदेव कहते हैं कि ʹभाई ! भगवान और गुरु के नित्य दर्शन कर।ʹ लेकिन जब और दर्शनों का आकर्षण मिट गया तो गुरु कहते हैं कि ʹतू और मैं एक हैं। अब कहाँ दर्शन ? जहाँ बैठा है वहीं तू मैं एक हैं…ʹ
शिष्य ने अर्पित किया अपना-आपा तो गुरु भी कहाँ देर करते हैं ? वरन् वे तो नश्वर की जगह शाश्वत देकर, मिटने वाले की जगह अमिट देकर और अपूर्ण की जगर पर पूर्णता का बोध कराकर शिष्य को भी पूर्ण बना देते हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं की तुलना किनसे की जाये ?
तस्य तुलना केन जायते ?
तभी तो कबीर जी ने कहा हैः
बलिहारी गुर आपणैं द्यौंहाड़ी के बार।
जिनि मानिष तैं देवता करत न लागी बार।।
ʹहर दिन कितनी बार न्यौछावर करूँ अपने-आपको सदगुरु पर जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परम देवता बना दिया और तदाकार हो गया मैं।ʹ
हे मेरे गुरुवर ! हे करूणानिधान ! आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम…
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 3 से 11, 15 अंक 55
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