ब्राह्मण पुत्र मेधावी

ब्राह्मण पुत्र मेधावी


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।

विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।

ʹमुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति करके एकांत देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्य के समुदाय में प्रेम का न होना….(यह ज्ञान है, मोक्ष का मार्ग है।) भगवदगीताः 13.10)

इन्द्रियों एवं मन को तुच्छ वृत्तियों को संतुष्ट करने में लगना, आत्मानंद को पाने के बजाय अपने को विषय विकारों के कीचड़ में गिराना-इसे व्यभिचार कहते हैं। मनुष्य जन्म के मुख्य लक्ष्य परमतत्त्व को पाने के लिए कोशिश न करके संसार में आसक्त होकर जन्म गँवा देना ही व्यभिचार कहा गया है।

प्रतिकूलता में ईश्वर को याद किया, साधन-भजन के मार्ग पर थोड़ी यात्रा की, परंतु जैसे ही प्रतिकूलता कम हुई कि फिर से भोगों में लंपट हो गये… या फिर, संसार में अनुकूलता है, सुख सुविधाएँ हैं तो ईश्वर को पाने के लिए तत्परता दिखाई परंतु जैसे ही अनुकूलता कम हुई, असुविधाएँ आयीं तो ईश्वर को भुला दिया और संसार को ठीक करने में लग गये। इसे व्यभिचारिणी भक्ति कहा गया है। अनुकूलता आये चाहे प्रतिकूलता आये-दोनों ही अवस्था में जो परमतत्त्व को पाने के लिए तत्पर रहता है, संसार में चाहे सुख-सुविधा मिले चाहे दुःख मिले, साधन-भजन के मार्ग पर जो यात्रा जारी रखता है ऐसा भक्त अव्यभिचारिणी भक्ति करता है।

व्यभिचारिणी भक्ति करने वाला साधक थोड़ी-सी अनुकूलता या प्रतिकूलता आने पर साधन छोड़कर संसार में गिर जाता है या तो साधन के प्रकार बदलता रहता है। किन्तु अव्यभिचारिणी भक्ति करने वाला साधक बाह्य परिस्थिति से, सुख-दुःख के प्रसंग से चलायमान नहीं होता। व्यभिचारिणी भक्ति से थोड़ी पुण्याई बढ़ती है, थोड़ा सुख मिलता है परंतु मनुष्य को परम सुख की प्राप्ति तो अव्यभिचारिणी भक्ति से ही होती है। भगवान कहते हैं-

मयि चानन्ययोगेन….

भगवान के साथ अनन्य योग करें, अन्य-अन्य योग नहीं। कई लोग ईश्वर की भक्ति तो करते हैं लेकिन चिंता करते रहते हैं कि ʹमेरा क्या होगा ? मेरे परिवार का क्या होगा ?ʹ इसका नाम अनन्य भक्ति नहीं है, भगवान को संपूर्णरूप से समर्पित हो जाना अनन्य भक्ति है। भगवान में अनन्य भाव है तो फिर यह सोचना शेष नहीं रहता कि ʹमेरा क्या होगा ?ʹ जब सब कुछ उसी को सौंप दिया फिर चिंता कैसी ? अतः अनन्य भाव से अव्यभिचारिणी भक्ति करते हुए विविक्त देश का सेवन करें अर्थात् विषयी-विकारी पुरुषों के संग से किनारा कर लें और जहाँ साधन-भजन हो ऐसी जगह पर रहें। भगवद् ध्यान में, भगवद् ज्ञान में रमण करने वाले महापुरुषों के सान्निध्य में रहें। शंकराचार्यजी ने कहाः

एकांतवासो लघुभोजनादौ….

एकांतवास, लघुभोजन अर्थात् इऩ्द्रियों का अल्प भोजन यानी देखना, सुनना, सूँघना, चखना, स्पर्श करना आदि के नियंत्रण से मन की चंचलता का नाश होकर बुद्धि में आत्मप्रकाश होता है। फिर मन की वृत्तियाँ सूक्ष्म होती हैं, वृत्तियाँ सूक्ष्म होने से हम परमतत्त्व के करीब पहुँचते हैं।

साधन ऐसा होना चाहिए कि शीघ्र ही भगवान का साक्षात्कार हो जाय। विषय़ी-विकारी लोगों के प्रभाव में आये बिना भक्ति में तदाकार होने से मनुष्य निष्पाप होता जाता है। निष्पाप होने से विवेक जागता है, संसार से वैराग्य आता है। निर्दोष होने से उसे संसार की असारता, परमात्मा की महत्ता का पता चलता है।

संसार पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की तरफ, विनाश की तरफ जा रहा है। ऐसे परिवर्तनशील संसार में, नश्वर-भोग पदार्थों में आसक्ति का अभाव तथा भोगसामग्री का औषधिवत् उपयोग ही बुद्धिमानी है।

नाशवान संसार से विरक्त होकर एक बार युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह के आगे अपनी मनोदशा का वर्णन कियाः

“पितामह ! काल के चक्र में हमें कभी सुख मिला तो कभी दुःख मिला। हम कभी वन में भटके तो कभी सिंहासन पर बैठे। काल अपनी गति से चल रहा है और आयुष्य क्षीण होता जा रहा है। कभी शत्रुओं के तो कभी मित्रों के, कभी भोग-पदार्थ के चिंतन में तो कभी आलस्य-प्रमाद में जीवन पानी की तरह बह रहा है। हे पितामह ! दिन प्रतिदिन मौत नजदीक आती जा रही है। मौत हमें मार दे उसके पहले अमर आत्मा में विश्रांति कैसे पायें ?”

वक्ताओं में श्रेष्ठ, व्रतधारियों में दृढ़ ऐसे भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हैं- “हे य़ुधिष्ठिर ! तुमने अपने विवेक को जागृत करके उत्तम प्रश्न पूछा है। तुम्हारे प्रश्न से बंगदेश के ब्राह्मण की कथा स्मरण में आती है।

बंगदेश में एक ब्राह्मण जप-तप, होम-हवन, व्रत-उपवास आदि कर्मकांड करते हुए ईश्वर के मार्ग पर चल रहा था। तपोनिधि ब्राह्मण की पुण्याई से उसके घर एक मेधावी बालक का जन्म हुआ। ʹमेधाʹ अर्थात् प्रज्ञा। बालक जन्म से ही अत्यधिक प्रज्ञावान, बुद्धिमान होने के कारण उसका नाम भी ʹमेधावीʹ रखा गया।

मेधावी 5 साल का हुआ तब अपने तपोनिधि पिता से उसने प्रश्न कियाः “पिताजी ! मनुष्य का कर्त्तव्य क्या है ?”

पिता ने उत्तर देते हुए कहाः “मनुष्य का कर्तव्य है कि 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गुरुद्वार पर रहे, विद्याभ्यास करे, तत्पश्चात दूसरे 25 साल अर्थात् 50 वर्ष की आयु तक गृहस्थाश्रम में रहकर संसार निर्वाह करे। तदनन्तर 25 साल तक अर्थात् गृहस्थाश्रम से निवृत्त होकर वानप्रस्थ जीवन गुजारे और आखिर मोक्षप्राप्ति हेतु संन्यास ले ले।”

आत्मज्ञान में तपोधन ब्राह्मण की गति नहीं थी इसलिए मनुष्य जीवन के सर्वसाधारण शास्त्रोक्त नियम बता दिये लेकिन 5 साल के मेधावी को पिता जी की ये बातें जचीं नहीं। उसने पूछाः

“मनुष्य 25 साल ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके गुरुद्वार पर रहकर विद्याभ्यास करे, फिर 25 से 50 वर्ष की उम्र तक संसारी विषयों में, विकारों में रहे, उसके बाद मुनि-तपस्वी का जीवन बिताने से क्या लाभ होगा ? पिता जी ! भोगवासना के दलदल में फँसा मनुष्य फिर उससे बाहर नहीं निकल पाता है। समझने पर भी वह फिसलता ही जाता है। शपथ भी खाता है फिर भी फिसल जाता है। इसलिए भोग-सामग्री का अनुभव करके फिर मुक्ति के लिए पुरुषार्थ करना उचित नहीं लगता। भोग तो सूअर और कुत्ते की योनि में भी मिलते हैं। मनुष्य शरीर मिला है तो उसकी उपयोगिता क्या ? पशु योनि की तरह इसे भी व्यर्थ गँवा देना चाहिए क्या ? इससे अच्छा  तो यह होगा कि आरंभ से ही संसार में फँसे बिना ईश्वर के मार्ग पर चल दें।”

ब्राह्मणः “संसार में प्रवेश करने से, पुत्रप्राप्ति होने से पितृओं का ऋण चुकाया जाता है। पुत्र पितृओं का कल्याण करता है।”

ब्राह्मण पुत्र मेधावी की बुद्धि सूक्ष्म थी। छोटे बच्चे को चॉकलेट देकर पटाया जाता है इस तरह पिताजी ने अपनी बातों से उसे समझाना चाहा, परन्तु इन बातों से समझ जाए ऐसा वह नहीं था। उसने तर्क करते हुए कहाः “पुत्र से ही यदि कल्याण हो जाता हो तो कई ऐसे पुत्र होते हैं जो पिता के नाम को तो क्या पूरे कुल-खानदान को भी बदनाम और बरबाद करने वाले कर्म करते हैं। ऐसे पुत्रों से पितृओं का क्या कल्याण हो सकता है ? संसार में कितने ही लोगों को पुत्रप्राप्ति हुई है फिर भी उनका अकल्याण होना क्यों दिखाई दे रहा है ?”

मनुष्य पुत्र के सहारे, पत्नी के सहारे, धन या सत्ता के सहारे अपना कल्याण चाहता है तो यह उसकी बुद्धि का दोष है।

प्रज्ञापराधो मूलं सर्वरोगाणाम्।

प्रज्ञापराधो मूलं सर्वदुःखानाम्।।

सारे रोगों का मूल, सारे दुःखों का मूल है प्रज्ञा का अपराध। मंद बुद्धि के कारण ही मनुष्य सौन्दर्य, सत्ता धन आदि का सहारा लेकर सुख पाने की इच्छा रखता है। वह यहाँ है तो सुख पाने की अंधी दौड़ में मर जाता है, जीवनभर झूठ-कपट, बेईमानी, धोखेबाजी करता रहता है तो मरने के बाद भी नरकों में जाकर पचता है।

भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं-

“हे य़ुधिष्ठिर ! बालक मेधावी अपने ब्राह्मण पिता से कहता हैः “पिता जी ! मुझे यह बात समझ में नहीं आती है कि भोग भोगकर, संसार के अनुभव से गुजरकर फिर मोक्षमार्ग पर चलें उसके बदले पहले से ही विवेक जागृत करके, दूसरों के अनुभव से सावधान होकर हम आरंभ से ही संसार में न फँसें और मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर हो जाएँ  कितना अच्छा ! पिता जी ! आप ही मुझे बताइये कि ऐसा कौन सा मार्ग है जिससे शीघ्र मोक्षप्राप्ति हो। पिता जी ! मुझे लग रहा है कि कोई दिन-रात मेरे पीछे पड़ा है और मुझे मार रहा है।”

पिताः “तू ऐसी बातें क्यों करता है ? तू खुद डरा हुआ है और मुझे भी डरा रहा है।”

मेधावीः “पिताजी ! मैं डरा हुआ नहीं हूँ। मैं सच कहता हूँ। आप होम-हवन, जप-तप आदि करके स्वर्ग का सुख पाना चाहते हैं लेकिन मैंने तो सुना है कि वह सुख सच्चा सुख नहीं है, सदा टिकने वाला नहीं है। काल डंडा लेकर सबके पीछे पड़ा है, सबको मार रहा है। ऐसी दशा में 25 साल निर्वाह में गँवा देने की बात अनुचित समझता हूँ। कौन कब मृत्यु की झपेट में आ जाए, कोई पता नहीं है। जीवन का कोई भरोसा नहीं है अतः भोगों का अनुभव लेने के बजाये अपने कल्याण की बात सोचनी चाहिए। ऐसा कौन सा भोग है कि जिसे भोगने के बाद रोग न मिला हो ? सांसारिक भोग से या स्वर्गादि के सुखों के भोग से शक्तिहीनता, जड़ता, पराधीनता ही मिलती है। इसलिए मैं सोचता हूँ कि भोग की अपेक्षा योग का मार्ग लेना ही कल्याणकारी साबित होगा।”

तपोधन ब्राह्मण सोचता है कि आज तक जिंदगी के कई साल व्यर्थ भोग-पदार्थों की प्राप्ति की दौड़ में गँवा दिये लेकिन इस बच्चे ने तो मेरी आँखें खोल दीं। वे बोलेः “मेधावी ! तू सच कहता है। मैंने कर्मकांड करके अपनी वासनाओं को तृप्त करना चाहा मगर उससे शांति नहीं मिली, अंतर में तृप्ति नहीं मिली। वरन् कामनाएँ गहरी उतरती गई। मृत्यु कब आकर गला दबोच ले, कोई पता नहीं है। जैसे चूहे को कहीं से मिठाई मिले और वह आराम से खाने लगा हो और अचानक बिल्ली आकर उसे झपेट ले…… ऐसी हालत संसार के भोगों में रत मनुष्य की होती है। मुझे भी कब मृत्यु आकर झपेट लेगी, कोई पता नहीं है।

जिस शरीर को खिलाया-पिलाया, घुमाया-फिराया, आखिर में वह अग्नि में जलकर खाक हो जायेगा। वह खाक हो जाये उससे पहले अपने शिवस्वरूप को, आत्मा को जानने का उपाय खोजना चाहिए।”

भीष्म पितामह अपनी बात को आगे चलाते हुए कहते हैं- “हे बुद्धिमान युधिष्ठिर ! मनुष्य के जीवन के चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों पुरुषार्थ में से बुद्धिमान मनुष्य को चौथा पुरुषार्थ मोक्ष पाने में ही सार लगता है। जिनके चित्त में मोक्षप्राप्ति की इच्छा है वे धर्म के अनुकूल रहकर अर्थ और काम भोगते हैं। वे सजाग रहकर संसार के व्यवहार को चलाते हैं। इससे विवेक-वैराग्य की प्राप्ति होती है और वे परम पुरुषार्थ मोक्ष के मार्ग पर चल पड़ते हैं।

जिन्हें अपने कल्याण के लिए पुरुषार्थ करना हो उन्हें अपने स्थूल शरीर को परहित के कार्य में और सूक्ष्म शरीर यानी मन को भगवन्नाम के जप, ध्यान, आत्मचिंतन में लगाना चाहिए। निष्काम कर्म से अंतःकरण की शुद्धि होती है और भोग-वासनाएँ क्षीण होती हैं। योग से सामर्थ्य आता है। परमात्मा की अव्यभिचारिणी भक्ति करने से अंतःकरण दिव्य होता है और दिव्य रस की प्राप्ति होती है। जीवन के चार पुरुषार्थ में से अर्थ और काम तो शरीर के लिए हैं। धर्म के आचरण से मन ईश्वर की ओर चलता है जबकि मोक्ष परम पद को दिलाने वाला है। हे कुरुनंदन युधिष्ठिर ! यदि किसी बुद्धिमान के मन में प्रतिशोध की आग भड़कती रहती है तो वह धर्म का सहारा लेकर अपने मन को समझाता है, शांत रखता है। जो धर्म के अनुकूल व्यवहार करता है, वह अंत में भगवान की शरण जाता है लेकिन जो अधर्म का सहारा लेता है वह दुर्बुद्धि दुर्योधन की नाईं अपने को और अपने साथवालों को दुर्गति की खाई में डालता है।

ऐसे लोगों को चाहिए कि निष्काम भाव से कर्म करें जिससे अंतःकरण शुद्ध हो। शुद्ध अंतःकरण वाले मनुष्य को ही परमात्म-ध्यान, परमात्म-प्रेम के दिव्य प्रसाद की प्राप्ति होती है। ऐसा मानव उस ब्राह्मणपुत्र मेधावी की तरह अपना विवेक जगाकर परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 1997, पृष्ठ संख्या 20,21,22,23 अंक 52

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