Monthly Archives: July 1997

माँ पार्वती व जीवन्मुक्त संत


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

पूरा प्रभु आराधिया पूरा जा का नाँव।

पूरे को ही पाइया पूरे के गुण गाँव।।

ऐसे पूरे प्रभु की आराधना करने वाले एक जीवन्मुक्त संत बैठे हुए थे। पार्वती जी एवं शिवजी विचरण करते हुए उधर से निकले, तब पार्वती जी ने शिवजी से कहाः

“देखिये तो सही, आपका यह भक्त ! घर बार, राज-पाट छोड़कर साधु हुआ है। अब चिंता की अग्नि में बाटी सेंक रहा है। इसको कुछ दे दीजिये।”

शिवजीः “इनको मैं क्या दूँ… इन्होंने तो ऐसा पाया है कि दूसरों को जो चाहे वह दे सकते हैं।”

पार्वती जीः “प्रभु ! क्यों ऐसा कहते हैं ? बेचारे दुःखी हैं, चलिये।”

शिवजीः “तुम कहती हो तो चलो।”

दोनों गये उन महापुरुष के पास और शिवजी बोलेः “भिक्षां देहि।”

महापुरुष में जो दो बाटी सेंक रखी थीं, वे उठाकर पीछे देखे बिना ही दे दी। तब शिवजी ने कहाः “अरे ! जरा पीछे देखो तो सही, किसको भिक्षा दे रहे हो ?”

उन संत पुरुष ने पीछे देखा और बोलेः “अच्छा भोलेनाथ आप आये हैं ?”

शिवजीः “कुछ माँग लो।”

महापुरुषः “क्या माँगू ?”

शिवजीः “मैं तुम्हें इस धरती का राजा बनाता हूँ।”

महापुरुषः “मेरी बाटी वापिस दे दो। अभी मैं प्रेम से निश्चिन्त बैठा हूँ, फिर राज्य की झंझट कहाँ सँभालूँ ? आपकी सेवा का फल मुक्ति होना चाहिए कि राज्य की झंझट ?”

शिवजी पार्वती जी की ओर देखकर मंद-मंद मुस्कराये। दोनों वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।

समय पाकर माता पार्वती जी अकेली आयीं। उस समय वे महापुरुष गुदड़ी सी रहे थे। माँ पार्वती ने कहाः “बाबा ! कुछ माँग लो।”

महापुरुषः “माँ ! कुछ देना ही चाहती हो तो जरा यह गुदड़ी सी दीजिये।”

पार्वतीजीः “गुदड़ी क्या गादी तकिये से सजा-सजाया भवन दे दूँ।”

महापुरुषः “माताजी ! छोड़िये ये सब झंझट।”

माता जी चली गयी। कुछ समय बीता। पुनः माता पार्वती जी पधारीं। उस समय वे महापुरुष टाँग पर टाँग चढ़ाकर आकाश की ओर निहारते हुए ब्रह्मानंद की मस्ती में बैठे हुए थे। पार्वती जी आयीं तो वे न खड़े हुए, न कुछ बोले। तब पार्वती जी ने कहाः “क्या बैल की तरह बैठे हो ! जाओ, बैल बन जाओ।”

समय पाकर वे महापुरुष बैल के रूप में प्रगट हुए। पार्वती जी ने पूछाः “क्यों महाराज ! कैसे हैं ?”

बैलरूपी महापुरुष बोलेः “माता जी ! आपकी बड़ी कृपा है। मनुष्य रूप में तो जरा मल-मूत्र त्याग के लिए स्थान का विचार करना पड़ता था। अब तो चलते-चलते भी कर लिया तो कोई हर्ज नहीं है। पहले तो भोजन बनाकर खाना पड़ता था किन्तु अब तो भूख लगी, चारा तैयार।”

माता जी को हुआ कि इनको तो कोई असर ही नहीं होता। ये तो ऊँट जैसे हैं। अतः बोलीं “ऊँट की नाईं गर्दन ऊँची किये बैठे हो, जाओ ऊँट बनो।”

कहानी कहती है कि समय पाकर वे ऊँट बने। कुछ समय बीतने के बाद माता जी ने पूछाः “क्या…. क्या हाल है ?”

ऊँट रूपी महापुरुषः “माँ ! बैल को तो हरा या सूखा घास चाहिए। कभी मिले न भी मिले। किन्तु ऊँट बनाकर तो आपने एकदम आराम दे दिया। जब भूख लगे तो गर्दन ऊँची करके पेड़ों से भोजन मिल जाता है। माताजी ! आप दे-देकर भी क्या देंगी ? या तो अनुकूल वस्तुएँ या प्रतिकूल वस्तुएँ देंगी लेकिन देंगी इस नश्वर शरीर को ही। आप चाहे बैल बनायें चाहे ऊँट, शरीर है प्रकृति का। आपका श्राप प्रकृति के इस बदलने वाले शरीर को लग सकता है। मुझ आत्मा तक उसकी पहुँच नहीं। माता जी ! अब आपको कुछ चाहिए तो आप ही कुछ माँग लीजिये।”

कैसे हैं ब्रह्मवेत्ता संत !

माता पार्वती जी ने कहाः “यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही हैं तो मुझे एक वरदान दे दीजिये कि आप जैसे जीवन्मुक्त पुरुष मेरे यहाँ बालक रूप अवतरें।”

उन संत महापुरुष ने स्वीकार कर ली बात और वे ही स्वामी कार्तिकेय होकर माता पार्वती के घर अवतरित हुए।

औलिया की जूती

निजामुद्दीन औलिया एक सूफी फकीर एवं बाबा फरीद के प्रेमभाजन थे। एक बार निजामुद्दीन औलिया के पास एक गृहस्थ मुसलमान आया और बोलाः “बाबा ! मुझे अपनी लड़की के हाथ रंगने हैं। हो जाये कुछ रहमत…”

औलियाः “आज कोई धनवान नहीं दिखता। कल आना।”

दूसरे दिन भी वह गृहस्थ आया किन्तु उस दिन औलिया का कोई सेठ भक्त नहीं आया। पुनः निजामुद्दीन औलिया ने कहाः “कल आना।” इस प्रकार ʹकल… कल…ʹ करते कुछ दिन बीत गये किन्तु कोई सेठ आया नहीं।

तब वह गृहस्थ बोलाः “बाबा ! मुझ गरीब का भाग्य भी गरीब है। अब आपसे जो रहमत हो सके, वही दे दीजिये।”

निजामुद्दीन औलियाः “भाई ! मेरे पास तो इस वक्त मेरी जूती पड़ी है। वही ले जाओ।”

औलिया की जूती लेकर वह गृहस्थ निकल पड़ा और सोचने लगा कि,  ʹइस जूती के तो दो चार आने मिल जायेंगे। चलो, उसी पैसों से गुड़ लेकर खा लेंगे।ʹ इस प्रकार के विचार करते-करते वह जा रहा था।

इधर अमीर खुसरो अपने वजीरपद से इस्तीफा देकर चालीस ऊँटों पर अपने पूरे जीवन की कमाई लदवाकर औलिया के चरणों में जीवन धन्य बनाने के लिए आ रहा था। इस गृहस्थ के पास आने पर उस प्यारे शिष्य अमीर खुसरो को अपने गुरुदेव निजामुद्दीन की बू आयी तो वह सोचने लगा कि मानो-न-मानो, मेरे औलिया की खुशबू इसी आने वाले आदमी की ओर से आ रही है। अमीर खुसरो ने फिर गौर किया। जब वह आदमी पीछे गया तो खुशबू पीछे से आने लगी। उसे जाते देखकर अमीर खुसरो ने आवाज लगायीः “ठहरो भाई ! मेरे औलिया के यहाँ से तुम क्या लिये जा रहे हो ? मेरे औलिया का ओज दिखाई दे रहा है। क्या है तुम्हारे पास ?”

उस आदमी ने सारी बात अमीर खुसरो को बता दी और कहाः “उन्होंने मुझे अपनी यह जूती दी है।”

खुसरोः “अच्छा ! बताओ, तुम कितने में इसे दोगे ?”

व्यक्तिः “आप जो मूल्य लगायें।”

अमीर खुसरोः “मेरे औलिया की जूती का मूल्य चुकाने की सामर्थ्य तो मुझमें नहीं है। फिर भी मैं मुफ्त में लेना भी नहीं चाहूँगा। मेरे जीवन की सारी कमाई चालीस ऊँटों पर लदी है। इनमें से एक ऊँट, जिस पर सीधा-सामान है, केवल वही मैं रखता हूँ बाकी के उनतालीस ऊँट तुम्हें देता हूँ। यदि दे सको तो मेरे शहंशाह की यह जूती मुझे दे दो।”

वह व्यक्ति तो हैरान हो गया कि जिसे मैं दो चार आने की जूती मान रहा था, उसके लिए अमीर खुसरो अपने पूरे जीवन की कमाई देने पर भी सौदा सस्ता मान रहा है ! उसने औलिया की जूती भी अमीर खुसरो को दे दी।

अमीर खुसरो पहुँचा गुरु के द्वार पर और प्रणाम किया अपने औलिया को। एक रेशमी रूमाल से ढँककर सौगात पेश की औलिया के कदमों में।

निजामुद्दीनः “क्या लाये हो ?”

अमीर खुसरोः “आपकी दी हुई चीज आपके चरणों में लाया हूँ।”

निजामुद्दीनः “आखिर क्या लाये हो ? कौन से मेवे-मिठाइयाँ हैं ?”

अमीर खुसरोः “गुरुदेव ! मेरे औलिया ! मेवे-मिठाइयों से भी ज्यादा कीमती चीज है।”

निजामुद्दीनः “क्या है ?”

अमीर खुसरोः “औलिया ! मेरे सारे जीवन की कमाई का सार है।”

निजामुद्दीनः “आखिर है क्या ?”

अमीर खुसरोः “मेरे मालिक ! मेरे आका ! मैं क्या बोलूँ ? मेरे लिये तो मेरे पूरे जीवन की कमाई है।”

निजामुद्दीनः “अच्छा ! खोलो तो सही !”

धीरे से रेशम का रूमाल हटाया अमीर खुसरो ने। देखते ही चौंक पड़े निजामुद्दीन औलिया और बोलेः “अरे ! यह तो मेरी जूती ! थोड़ी देर पहले ही एक गरीब को दी थी। क्या तूने छीन ली उससे ?”

अमीर खुसरोः “मेरे रब ! मैंने छीनी नहीं है।”

निजामुद्दीनः “तो क्या खरीदी है ?”

अमीर खुसरोः “इस बंदे में क्या ताकत कि आपकी जूती खरीद सके ?”

निजामुद्दीनः “फिर कैसे लाया है ?”

अमीर खुसरोः “मेरे औलिया ! मेरे जीवन भर की कमाई से लदे जो चालीस ऊँट थे उनमें से एक सीधे सामान, बोरी-बिस्तरवाले ऊँट को छोड़कर बाकी के उनतालीस ऊँट देकर इसे लाया हूँ।”

तब निजामुद्दीन बोलेः “फिर भी सौदा सस्ता है।”

संतों का समय व्यर्थ न करो

चाणोद करनाली में श्री रंगअवधूत महाराज नर्मदा के किनारे बैठकर नर्मदा की शांत लहरों को निहार रहे थे। वहाँ एक अधिकारी ने देखा कि जिनका काफी नाम सुना है, वे ही श्री रंगअवधूत महाराज बैठे हुए हैं। अतः वह उनके पास जाकर प्रणाम करके बोलाः

“बाबा जी ! बाबाजी ! 42 वाँ साल चल रहा है…. अभी तक घर में झूला नहीं बँधा, संतान नहीं हुई।”

श्रीरंगअवधूत जी बोलेः ʹ”यहाँ भी संतान की बात करता है ? जा अब।”

अधिकारी बोलाः “किन्तु बाबा जी ! अभी तक संतान नहीं हुई… मुझे संतान होगी कि नहीं ?”

“हाँ ! जा अब यहाँ से।”

“बाबा जी ! बेटा होगा क्या मुझे ?”

“हाँ बाबा, हाँ। जा अब यहाँ से।”

“बाबा जी ! क्या सचमुच मुझे बेटा होगा ?”

“अरे ! तुझे कहा न ! जा यहाँ से।”

“किन्तु बाबा जी ! एक बार फिर से कह दीजिये न कि बेटा होगा।”

“जा साले ! अब कभी नहीं होगा।”

जो संत दिव्य सात्त्विक भाव में होते हैं उनका संकेत भी काफी होता है। अतः बार-बार एक ही बात पूछकर ऐसे निजानंद की मस्ती में मस्त रहने वाले संतों का समय नष्ट करना मूर्खता है। संतों के पास श्रद्धा-भक्ति से बैठकर सत्संग-श्रवण करना और उसका मनन-चिंतन करना तो बढ़िया है किन्तु संसार की नश्वर वस्तुओं के लिए बार-बार उनका समय लेना अपराध है।

कोई जाय संत के पास और कहेः “महाराज ! इसे यह बीमारी है… डाक्टरों ने ऐसा कहा है।”

संतः “अच्छा….. जाओ, देखो कोई इलाज करो।”

अब वह इलाज करे न करे फिर भी उसे स्वतः फायदा होने लगेगा। केवल महापुरुष के कानों में बात पहुँचायी तो भी फायदा हो जाता है। सत्त्वगुण में जागे हुए महापुरुष का संकेत भी काफी होता है। सत्त्वगुण में जो महापुरुष हैं वे तो नजरों-नजरो में ही दे देते हैं। उनके आगे माँगना नहीं पड़ता। अतः एक ही बात बार-बार पूछकर उनका समय खराब करना माने अपना भाग्य ही खराब करना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 12 से 15, अंक 55

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हस्तामलक स्तोत्र


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दक्षिण भारत के श्रीबली नामक गाँव में प्रभाकर नाम के एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। उनका एक पागल सा लड़का था। वह लड़का बचपन से ही सांसारिक कार्यों के प्रति उदासीन वृत्ति रखता था। उसका व्यवहार एक गूंगे और बहले बालक के समान था। एक बार जब शंकराचार्य अपने शिष्योंसहित इस गाँव में पधारे तब प्रभाकर अपने पागल जैसे दिखने वाले पुत्र को लेकर आचार्य भगवान शंकर के समीप गये। उन्होंने आचार्य को साष्टांग दंडवत प्रणाम किये। श्री शंकराचार्य ने उन दोनों को उठाया और प्रभाकर से प्रश्न किया। उसके जवाब में प्रभाकर ने कहाः “हे स्वामिन् ! मेरा यह पुत्र बचपन से ही गूंगा और तमाम प्रकार के व्यवहार से उदासीन है। अभी इसकी आयु तेरह साल हुई है फिर भी यह हमारी बातचीत नहीं समझता है। इसको इसमें रस नहीं है। जो शास्त्र ब्राह्मणों को पढ़ने चाहिए ऐसे किसी भी शास्त्र का अभ्यास इसने नहीं किया है और न ही इसने वेद पढ़ा है। इसको अक्षरज्ञान ही नहीं है। बड़ी मुश्किल से मैंने इसके उपनयन संस्कार किये हैं। यह अपने किसी मित्र के साथ खेलने नहीं जाता है। इसका ऐसा स्वभाव देखकर कोई शरारती लड़का इसे मारता है तो उसकी मार यह सहन कर लेता है। फिर भी इसे क्रोध नहीं आता है। कभी तो यह भोजन करता है और कभी नहीं करता है। उसके बावजूद भी यह सदैव आनंदी और सुखी रहता है। इसकी यह मूढ़ दशा किस कारण से हुई है ? कृपा करके आप मेरे इस पुत्र का उद्धार कीजिये।”

शंकराचार्य ने उस बालक को प्रश्न पूछे। वह बालक बहरा या गूंगा न था। वह तो पूर्ण प्रकाशित ज्ञानी था, जीवन्मुक्त था। उस बालक ने शंकराचार्य द्वारा पूछे गये प्रश्नों के जो उत्तर दिये वे एक स्तोत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए।

ये प्रश्नोत्तर इस प्रकार हैं-

कस्त्वं शिशो कस्य कुतोसि गन्ता किं नाम ते त्वं कुत आगतोसि।

एतन्मयोक्तं वद चार्भक त्वं मत्प्रीत्ये प्रीतिविवर्धनोसि।।1।।

ʹहे शिशो ! तू कौन है ? किसका पुत्र है ? तू कहाँ जा रहा है ? तेरा नाम क्या है ? तू कहाँ से आया है ? मेरी प्रीति के लिए हे बालक ! तू मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे। तू हमें बहुत प्रिय लगता है।ʹ

तब उस बालक ने जवाब दियाः

नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः।

न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः।।2।।

ʹमैं मनुष्य नहीं हूँ, देव या यक्ष नहीं हूँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं हूँ। मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थी या वानप्रस्थी भी नहीं हूँ और संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो ज्ञानस्वरूप परम पवित्र परमानंदरूप ब्रह्म हूँ।ʹ

निमित्तं मनश्चक्षुरादिप्रवृत्तौ निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः।

रविर्लोकचेष्टानिमित्तं यथा यः स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।3।।

ʹजिस प्रकार सूर्य लोगों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करता है, उसी प्रकार मन और इन्द्रियों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करने वाला एवं आकाशादि उपाधियों से रहित ऐसा शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यमग्न्युष्णवन्नित्यबोधस्वरूपं मनश्चक्षुरादीन्यबोधात्मकानि।

प्रवर्तन्त आश्रित्य निष्कंपमेकं स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।4।।

ʹजैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है, ऐसे ही अविकारी और शुद्ध चित्स्वरूपवान मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जिसका आश्रय लेकर स्थूल मन तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यवहार में प्रवृत्त रहते हैं।ʹ

मुखाभासको दर्पणो दृश्यमानो मुखत्वात्पृथक्त्वेन नैवास्तु वस्तु।

चिदाभासको धीषु जीवोपि तद्वत् स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।5।।

ʹजैसे दर्पण में दिखता हुआ मुख का प्रतिबिम्ब वस्तुतः बिम्बरूप मुख से पृथक नहीं है, किन्तु बिम्बरूप ही है वैसे ही बुद्धिरूपी दर्पण में जीवरूप से प्रतीयमान चैतन्य का प्रतिबिम्ब बिम्बरूप चैतन्य से पृथक नहीं है किन्तु चैतन्य रूप ही है। वही नित्य, शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा दर्पणाभाव आभासहानौ मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकम्।

तथा धीवियोग निराभसको यः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।6।।

ʹजिस प्रकार दर्पण के या दर्पण में दिखने वाले चेहरे के प्रतिबिम्ब के अभाव में भी चेहरे का अस्तित्व तो होता ही है, उसी प्रकार बुद्धि के अभाव में भी अस्तित्व रखने वाला मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

मनश्चुरादेर्वियुक्तः स्वयं यो मनश्चक्षुरादेर्मनश्चक्षुरादिः।

मनश्चक्षुरादेरगम्यस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।7।।

ʹमैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जो मन और चक्षु आदि से परे है, जो मन का भी मन और चक्षु आदि का भी चक्षु आदि है एवं जो मन, चक्षु आदि से प्राप्त नहीं है।ʹ

य एको विभाति स्वतःशुद्धचेताः प्रकाशस्वरूपोपि नानेव धीषु।

शरावोदकस्थो यथा भानुरेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।8।।

ʹजो स्वयं अकेला ही अपने विशुद्ध स्वप्रकाश अखंड चैतन्यरूप से प्रकाशता है… जैसे जल से भरे हुए अनेक मटकों में एक ही सूर्य अनेक रूप से भासता है उसी प्रकार एक ही स्वयं ज्योति आत्मा अनेक बुद्धियों में अनेक रूप से भासता है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथानेकचक्षुः प्रकाशो रविर्न क्रमेण प्रकाशीकरोति प्रकाश्यम्।

अनेका धियो यस्तथैकः प्रबोधः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।9।।

ʹजैसे सूर्यदेवता अनेक नेत्रों को क्रम से प्रकाश न करता हुआ एक साथ ही प्रकाश करता है वैसे ही अनेक बुद्धियों को एक ही साथ सत्ता-स्फूर्ति देने वाला नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

विवस्वत्प्रभातं यथारूपमक्षं प्रगृह्णाति नाभातमेवं विवस्वान्।

यदाभात आभासयत्यक्षमेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।10।।

ʹजैसे सूर्य से प्रकाशित रूप को ही नेत्र ग्रहण कर सकता है यानी देख सकता है, सूर्य से अप्रकाशित रूप को नेत्रेन्द्रिय ग्रहण नहीं कर सकती वैसे ही सूर्य भी जिस चैतन्य आत्मा से प्रकाशित हुआ ही रूप, नेत्र आदि प्रकाश देता है। आत्मा से अप्रकाशित सूर्य किसी को कभी भी प्रकाश नहीं दे सकता यानी सर्व-लोक प्रकाशक सूर्यादि ज्योति आत्मप्रकाश से प्रकाशित होती है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा सूर्य एकोप्स्वनेकश्चलासु स्थिरास्वप्यनन्यद्विभाव्स्वरूपः।

चलासु प्रभिन्नः सुधीष्वेक एव स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।11।।

ʹजिस प्रकार एक ही सूर्य स्थिर और अस्थिर जल के विषय में अलग-अलग प्रतिबिम्बित होता हुआ दृश्यमान होता है, उसी प्रकार चर और अचर – इन दोनों प्रकार की बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला मैं अद्वितीय शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

धनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्क यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढ़ः।

तथा बद्धवद् भाति यो मूढ़दृष्टेः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।12।।

ʹजिस प्रकार बादलों से ढके हुए सूर्य को मंद बुद्धिवाला पुरुष तेज और प्रकाशरहित समझता है, उसी प्रकार मूढ़ बुद्धिवाले पुरुष को जो बद्ध-स्वरूप दिखता है वह शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप मैं हूँ।ʹ

समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेकं समस्तानि वस्तूनि यं न स्पृशन्ति।

वियद्वत्सदा शुद्धमच्छस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।13।।

ʹजो सदा शुद्ध और निर्मल है तथा जो समस्त पदार्थों के अंतर्गत स्थित होते हुए भी वे पदार्थ उसे स्पर्श नहीं कर सकते या उसे दूषित नहीं कर सकते वह मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

उपाधी यथा भेदता सन्मणीनां तथा भेदता बुद्धिभेदेषु तेपि।

यथा चन्द्रिकाणां जले चंचलत्वं तथा चंचलत्वं तवापीह विष्णो।।14।।

ʹजिस प्रकार रंग और आकार में भेद होने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के मणियों में भेद की कल्पना होती है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न बुद्धियों के भेद की उपाधि के कारण एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न स्वरूप से दृश्यमान होता है। जैसे जल में चंद्र अनेक एवं चंचल दिखता है ऐसे ही हे विष्णु ! तुम भिन्न-भिन्न दिखते हो। (वस्तुतः तो तुम एक, नित्य, शुद्ध और अविकारी हो।ʹ)

ब्राह्मण पुत्र के ये उत्तर सुनकर श्रीमद् आद्य शंकराचार्य समझ गये कि यह बालक तो ब्रह्म को हस्तामकलकवत् यानी हाथ में रखे हुए आँवले की तरह स्पष्टतः जानने वाला ब्रह्मवेत्ता है। अतः उन्होंने उसका नाम भी हस्तामलक रख दिया और वह प्रश्नोत्तररूप स्तोत्र ʹहस्तामलक स्तोत्रʹ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हस्तामलक आगे चलकर शंकराचार्य के चार पट्टशिष्यों में से एक हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 16 से 18 अंक 55

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ध्यान का अर्थ – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


कम से कम सुनें, कम से कम मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, कम-से-कम इन्द्रियों को भोजन दें। जैसे, केवल पानी में इतनी शक्ति नहीं होती लेकिन पानी को जब गर्म किया जाता है, तब उसी पानी से बनी वाष्प में भारी शक्ति आ जाती है और टनों वजनवाली ट्रेनों तक को ले भागती है। इसी प्रकार बुद्धि सूक्ष्म होती है तो उसमें अनुपम योग्यता आ जाती है। बुद्धि अगर स्थूल होगी, मोटी होगी तो परमात्मा में नहीं लग पायेगी। अतः सूक्ष्मता चाहिए, गहराई चाहिए।

चुप रहना, मौन रहना भी कोई मजाक की बात नहीं है। बहुत कठिन है। चुप वे ही रह पाते हैं जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। मौन वे ही रह पाते हैं, गहरे भी वे ही उतर पाते हैं, जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। अन्यथा, मनोरंजन और मनपसंद कार्यों में ही मनुष्य की समय-शक्ति खर्च हो जाती है। मौन रहकर, उसी में डूब जाना – यह भी एक बहुत बड़ी साधना है, बहुत बड़ी कमाई है।

सब काम करने से नहीं होते हैं। कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं। ध्यान ऐसा ही एक कार्य है। आप दुनिया का कोई भी काम करो लेकिन जाने अनजाने आप ध्यान के जितने करीब होगे उतने ही आप उस काम में सफल होगे। नींद में आप परमात्मा के थोड़े करीब होते हो, ध्यान के निकट होते हो, तभी शक्ति आ पाती है, विश्रान्ति मिल पाती है और उसी विश्रान्ति से, उसी नयी शक्ति से, नयी स्फूर्ति से नये दिन की नई सुबह से पुनः कार्य का आरंभ होता है।

मन में संकल्प भी आते हैं, विकल्प भी आते हैं। इच्छाओं की, वासनाओं की धारा अविरल बहती रहती है।

ध्यान का मतलब क्या ?

ध्यान है डूबना। ध्यान है आत्मनिरीक्षण करना….ʹहम कैसे हैंʹ यह देखना….ʹकहाँ तक पहुँचे हैंʹ यह देखना…. ʹकितना अपने आपको भूल पाये हैंʹ यह देखना…. ʹकितना विस्मृतियोग में डूब पाये हैंʹ, यह देखना…

सत्संग भी उसी को फलता है जो ध्यान करता है। ध्यान में विवेक जागृत रहता है। ध्यान में बड़ी सजगता, सावधानी रहती है।

करने से प्रेम करें, न करने की ओर प्रीति बढ़ायें। करने के अंत में न करना ही शेष रहता है। जितना भी आप करोगे उसके अंत में न करना ही शेष रहेगा।

ध्यान अर्थात् न करना…. कुछ भी न करना। जहाँ कोशिश होती है, जहाँ करना होता है, वहाँ थकावट भी होती है। जहाँ कोशिश होती है, थकावट होती है, वहाँ आनंद नहीं होता। जहाँ कोशिश भी नहीं होती, आलस्य-प्रमाद नहीं होता, अपितु निःसंकल्पता होती है, जो स्वयमेव होता है, वहाँ सिवाय आनंद के कुछ नहीं होता और वह आनंद निर्विषय होता है, निर्विकारी होता है। वह आनंद संयोगजन्य नहीं होता, परतंत्र और पराधीन नहीं होता वरन् स्वतंत्र और स्वाधीन होता है। मिटने वाला और अस्थायी नहीं होता, अमिट और स्थायी होता है।

सब उसमें नहीं डूब पाते। कोई-कोई बड़भागी ही डूब पाते हैं और जो डूब पाते हैं वे खोज भी लेते हैं। समुद्र के भीतर रत्न खोजे जाते हैं लेकिन जो रत्न खोजते हैं उनको कई बार असफल होना पड़ता है। रत्न ढूँढने वाले गोताखोरों को कई बार खाली हाथ ही आना पड़ता है। लेकिन वे कोशिश करना नहीं छोड़ते, हारते नहीं, थकते नहीं, टूटते नहीं, विश्वास को नहीं खोते वरन् अथक प्रयत्न, अदम्य साहस और भरपूर निष्ठा के साथ फिर-फिर से गोता लगाते हैं और वे पुरुषार्थी रत्न खोज ही लेते हैं। लाखों के रत्न उनके हाथ लग जाते हैं। अगर निराश होते तो लाखों के रत्नों से हाथ धोना पड़ता।

बाहरी नश्वर धन को प्राप्त करने के लिए भी जब उन गोताखोरों में अदम्य साहस और उत्साह होता है तो जिनको परमात्मारूपी शाश्वत हीरा प्राप्त करना है ऐसे उत्तम साधक भला अपने उत्साह को क्यों बलि पर चढ़ायेंगे ? निराश-हताश क्यों होयेंगे ? आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों… फिर-फिर से गोता, फिर-फिर से गहराई में… जो नयी शक्ति, नये उमंग के साथ, पूरे विश्वास के साथ फिर-फिर से प्रयत्न जारी रखते हैं अन्ततः वे सफल हो ही जाते हैं। गुरुकृपा प्राप्त कर लेते हैं, परमात्मानुभव प्राप्त कर लेते हैं। दिव्यातिदिव्य अनुभव उनके भीतर प्रगट होने लगते हैं।

अध्यात्म का रास्ता अटपटा जरूर है। खटपट भी थोड़ी-बहुत होती है और समझ में भी झटपट नहीं आता है लेकिन अगर थोड़ा सा भी समझ में आ जाये, धीरज न टूटे, साहस न टूटे और परमात्मा को पाने का लक्ष्य न छूटे, तो उन्हें प्राप्ति हो ही जाती है। असंभव कुछ नहीं, सब संभव है। जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी मिल जाती है।

जितना समय संसार के पीछे लगाया बदले में उतना नहीं मिला, न मिलेगा। वरन् जितना मिला, वह भी छूट जायेगा। उससे आधा समय भी अगर भगवान के प्रति लगाते, परमात्म-ध्यान और परमात्म-शांति में उतना समय व्यतीत करते तो स्थिति कुछ और होती, स्थिति कुछ निराली होती क्योंकि सृष्टिकर्त्ता से कुछ भी छुपा नहीं है। चाहिए केवल विश्वास, दृढ़ता, साहस, लगन….

निर्मल मन जन सो मोहि पावा…..

निर्मलता, पवित्रता…. खोपड़ी में जितना बाहर का कचरा भरोगे उतना ही निकालना पड़ेगा। पढ़ा हुआ कपटी उतना जल्दी भगवान को नहीं पा सकता, जितना सरल अनपढ़ पा सकता है। पढ़े हुए को तो, जो खोपड़ी में भरा है उसे पहले निकालना पड़ता है जबकि अनपढ़ की कैसेट कोरी (Blank) होती है। उसने कचरा कम भरा होता है अतः निर्मल और निर्दोष जल्दी हो पायेगा जबकि पढ़ा-लिखा देरी से होगा। परमात्मा के पास आपकी अक्ल होशियारी नहीं चल सकती है। आपकी डिग्रियाँ और प्रमाणपत्र वहाँ नहीं चल पायेंगे। निर्मलता, पवित्रता और स्नेह ही चलेगा। उसके बनकर, उसके होकर नाचोगे तो चलेगा, वह खुश होगा। उसके होकर जो भी करोगे, वह खुश होगा। शर्त यही है कि मिटना पड़ता है, उसका बनना और रहना पड़ता है। बगैर उसके काम नहीं चल सकता।

बीज जब तक अपना अस्तित्व रखता है तब तक पौधा नहीं बन पाता। पौधा अगर अपना अस्तित्व बनाये रखे तो विशाल वृक्ष नहीं बन पाता इसलिए मिटो…. खो जाओ…. जितना खोओगे, जितना मिटोगे उतना ही पाओगे।

गुरुभक्तियोग एक समर्पण का मार्ग है, मिटने का मार्ग है, हटने का मार्ग है ,खोने का मार्ग है, नामोनिशान तक मिटा देने का मार्ग है। व्यक्ति जितना खोता है, उतना पाता है। जितना सूक्ष्म होता है, उतना ही महान होता है। फिर किसी की गाली उसे प्रभावित नहीं करती, किसी की प्रशंसा उसे प्रभावित नहीं करती क्योंकि वह मिट चुका है। जीते-जी मिट चुका है। मरकर तो सभी मिटते हैं, सभी खोते हैं लेकिन फिर क्या ? जो जीते-जी मिट चुका, जीते-जी खो चुका, जीव मिटकर शिव बन चुका वही धन्य है…. ૐ शांति… खूब शांति… गहरी शांति…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 19,20,18 अंक 55

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