ईश्वर की आद्यशक्ति और उसका विस्तार

ईश्वर की आद्यशक्ति और उसका विस्तार


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ईश्वर की जो मायाशक्ति है, उसी को आद्यशक्ति कहते हैं। उसी से इस संपूर्ण संसार का व्यवहार चलता है। उसी शक्ति से सत्त्व, रज एवं तम – ये तीन गुण उत्पन्न हुए हैं। सत्त्वगुण के अधिष्ठाता भगवान विष्णु, रजोगुण के अधिष्ठाता भगवान ब्रह्माजी एवं तमोगुण के अधिष्ठाता भगवान शिव माने जाते हैं। गुरुवाणी में आता हैः

एक माई जगत वियायी, तीन चेले परवान।

एक संसारी, एक भंडारी, एक देवे निर्वान।।

ये ही तीन देव क्रमशः सृष्टि का सर्जन, पालन एवं संहार करते हैं। इन सबका जो शुद्ध-बुद्ध स्वरूप है, उसी को परब्रह्म परमात्मा कहते हैं। जैसे, हजारों-हजारों लहरों का जो आधार है, उसको सागर कहते हैं वैसे ही ब्रह्म सागर है, अवतार उसमें लहरियाँ हैं और जीव हैं बुदबुदे। बाहर से लहरें एवं बुदबुदे एक दूसरे से भिन्न-भिन्न दिखते हैं, बड़े छोटे दिखते हैं, किन्तु तत्त्व से तो दोनों एक ही हैं। इसीलिए कहा जाता है – आत्मा सो परमात्मा।

जो बुदबुदा है वही लहर है और जो लहर है वही  बुदबुदा है। तात्त्विक दृष्टि से देखें तो लहर, लहर नहीं एवं बुदबुदा, बुदबुदा नहीं – दोनों पानी ही हैं। ऐसे ही जीव भी चेतन है और ईश्वर भी चेतन है। जो शुद्ध चेतन है, उसका नाम है ब्रह्म। मायाविशिष्ट चेतन का नाम है ईश्वर एवं अविद्याग्रसित चेतन का नाम है जीव। यदि जीव की अविद्या मिट जाये, तो उसका वास्तविक स्वरूप तो है ही ब्रह्म। जैसे बुदबुदा अपने को पानी रूप में जान ले तो वह सागर ही है।

किन्तु जीव बेचारा माया अर्थात् अविद्या में ही जीता है और इसलिए भयभीत, दुःखी और चिंतित होता रहता है। वह धन कमाता है तब भी दुःखी होता है और नहीं कमाता है तब भी दुःखी होता है। शादी करता है तो भी दुःखी होता है और कुँवारा रहता है तो भी दुःखी होता है। यश में भी भयभीत रहता है एवं अपयश में भी भयभीत रहता है। जीव बेचारे की हालत ही ऐसी है कि वह स्वयं को सदा जोखिम में ही पड़ा महसूस करता है। उसकी ऐसी हालत होती है, अपनी बेवकूफी के कारण। नहीं तो वह सदा मुक्त और निर्लेप नारायण है। यह बेवकूफी मिटती है परमात्मा के ज्ञान से और परमात्म-ज्ञान मिलता है परमात्मा की शरण जाने से, परमात्मा-प्राप्त संतों की शरण जाने से।

यह बात जानने के बावजूद भी जीव भटकता रहता है। उसका कारण क्या है ? जीव (मनुष्य) का जगत-विषयक स्पंदन।

स्पंदन दो प्रकार का होता है-

ज्ञान प्रधान और संकल्प-विकल्प प्रधान। परमात्मा का चिंतन करते हैं, लेकिन संकल्प-विकल्प प्रधान स्पंदन वाले जीव जगत का चिंतन करके जगतमय ही हो जाते हैं। बार-बार जगत का चिंतन करने से उन्हें संकल्प-विकल्प की आदत पड़ जाती है और आत्मविषयक चिंतन छूट जाता है। जैसे शेर का बच्चा बाल्यकाल से बकरों के बीच रहने से अपना शेरपना भूल जाता है, वैसे ही जगत का चिंतन करते-करते जीव भी अपना वास्तविक स्वरूप (ब्रह्मत्व) भूल जाता है। ऐसे ही असाधु के साथ साधु रहने लगता है तो साधु भी असाधु हो जाता है, लेकिन यदि असाधु साधु के साथ रहने लगे तो वह भी साधु होकर पूजनीय हो जाता है।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! संग की बड़ी बलिहारी है। मिट्टी पवन का संग करती है तो गगनगामी होकर पुष्पवाटिका में पहुँच जाती है, साधुओं की जटाओं में पहुँच जाती है…. यदि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के नियम को लाँघकर और ऊपर चली जाये तो फिर सदा के लिए ऊपर ही रह जाती है। किन्तु यदि वही मिट्टी पानी का संग करती है तो कीचड़ बन जाती है। मिट्टी तो एक ही है, किन्तु संग का बड़ा प्रभाव है। ऐसे ही जीव जब परमात्मा की शरण लेता है, संत-महापुरुषों का संग करता है तो देर-सबेर परमात्मामय हो जाता है। किन्तु यदि जगत के व्यक्तियों-वस्तुओं का संग करता है, नश्वर पदार्थों का संग करता है, तो नश्वरता की आदत पड़ जाती है।”

आदत भी तीन प्रकार की होती हैः सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

सब आदतें तो गुलामी करवाती हैं लेकिन संत-महापुरुष इन तीनों आदतों से परे अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं और वे ही पूर्ण स्वतंत्र रह पाते हैं। ऐसे ही एक पूर्ण स्वतंत्र महापुरुष हो गये मस्तराम  बाबा।

एक बार उनके चरणों में एक राजा ने आकर प्रणाम किया और कहाः “बाबाजी ! चाचा ने खटपट करके जो राज्य मुझसे छीन लिया था, वह राज्य मुझे वापस मिल गया। चूँकि मैं आपको  प्रणाम करके आपका आशीर्वाद लेकर गया था, इसलिए मुझे अपना राज्य वापस मिल गया। यह आपकी ही कृपा है।”

मस्तराम बाबाः “अरे, बिल्कुल झूठ।”

राजाः “नहीं, नहीं बाबाजी ! आपकी ही कृपा से राज्य मिला है।”

तब मस्तराम बाबा ने खुलासा करते हुए कहाः “अरे मेरी कृपा होती तो तुझे यह नश्वर राज्य तो क्या, मैं ही मिल जाता। यह तो मेरी दासी की कृपा हुई है।”

सच ही तो है। जिन्होंने आत्म-राज्य पा लिया हो, ऐसे ब्रह्मवेत्ता संतों के लिए माया दासी के समान ही होती है। ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की मनौती मानने से, उनका दर्शन करने से और उनके आशीर्वाद लेने से यदि कोई सांसारिक सफलता मिल जाए तो यह कोई आखिरी उपलब्धि नहीं है। आखिरी उपलब्धि तो यह है कि,

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली।

जिसने अपनी आत्मा से मुलाकात कर ली।।

श्रीमद् भगवद् गीता के छठवें अध्याय के 22वें श्लोक में आता हैः

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।

ʹपरमेश्वर की प्राप्तिरूप लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा लाभ नहीं मानता है और भगवद्-प्राप्तिरूप अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है।ʹ

जो ऐसे संत-महापुरुषों को छोड़कर माया की शरण में जाता है, जगत की शरण में जाता है, वह फिर चाहे संसार का सारा राज्य ही क्यों न पा ले, सारे शत्रुओं पर विजय ही क्यों न पा ले अथवा सारी संपत्ति ही क्यों न पा ले, फिर भी सदा के लिए पूर्ण सुखी, पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता क्योंकि काम-क्रोध आदि विकारों के प्रभाव से यह सब फीका हो जाता है अथवा तो मृत्यु का झटक एक साथ ही सब कुछ छीन लेता है और चौरासी का चक्कर शुरु हो जाता है।

माया तामसिक लोगों को पाप में, राजसी लोगों को काम एवं लोभ मोह में तथा सात्त्विक लोगों को भजनादि में सुख दिखाती है, किन्तु परमात्मा का दर्शन नहीं करने देती। परमात्म-दर्शन तो वही कर सकता है अथवा पूर्ण सुखी, पूर्ण स्वतंत्र एवं पूर्ण आनंदित तो वही हो सकता है, जो अपनी पुरानी जीवभाव की आदतों को मिटा दे। किन्तु यह तभी संभव है जब जीव जगत का चिंतन छोड़कर परमात्म-चिंतन करने लगे, माया को छोड़कर मायाधीश की शरण में जाये, नश्वर को छोड़कर शाश्वत का मार्ग बतलाने वाले संत-महापुरुषों के चरणों का आश्रय ले ले।

ૐ शांति…. ૐ आनंद …….. ૐ माधुर्य।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 71

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