पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू
ʹश्रीरामचरितमानसʹ के उत्तरकाण्ड के 78वें दोहे में गोस्वामी तुलसीदासजी ने काकभुशुण्डिजी से कहलाया हैः
रामचन्द्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूंछ बिषान।।
ʹश्रीरामचन्द्रजी के भजन बिना जो मोक्षपद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान होने पर भी बिना पूँछ और सींग का पशु है।ʹ
सारे कर्मों का तात्पर्य, मनुष्य जन्म का फल यही है कि कैसे भी करके इस जीव को परमात्म-प्राप्ति हो, परम पद की प्राप्ति हो।
शुकदेवजी महाराज परीक्षित से कहते हैं, सूत जी महाराज शौनकादि ऋषियों से कहते हैं
एतान्वान्सांख्ययोगाभ्यां सर्वधर्मपरिनिष्ठया।
जन्मलाभ ततः पुंसां अन्ते नारायणस्मृतिः।।
ʹमनुष्य जन्म का इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे भी हो-ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से, जीवन को ऐसा बना लिया जाये कि मृत्यु के समय भगवान श्रीहरि की स्मृति बने रहे।ʹ
परीक्षित ने प्रार्थना करते हुए शुकदेवजी से पूछाः ʹʹमनुष्य को क्या करना चाहिए ? किसका श्रवण करना चाहिए ? किसका स्मरण करना चाहिए ? किसका जप करना चाहिए ? भजन किसका करें और त्याग किसका करें ?”
शुकदेवजी ने कहाः “देहाध्यास का त्याग करें और श्रीहरि का भजन करें। विषय-विकार व अहंता-ममता का त्याग करें और प्रभुनाम में प्रीति बढ़ायें।”
तस्मात्सर्वमात्मनः राजन् हरि सर्वत्र सर्वदा।
श्रोतव्यो कीर्तितव्यश्च स्मृतव्यो भगवन्नृणाम्।।
इसलिए शुकदेवजी महाराज कहते हैं- “मनुष्य को चाहिए कि सब समय और सभी स्थितियों में अपनी संपूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही आश्रय ले। उन्हीं का श्रवण करे, कीर्तन करे और स्मरण करे। यही मनुष्य जन्म का फल है। इसी में मानव का कल्याण है।”
महाभारत के एक प्रसंग में आता है कि विदुरजी धृतराष्ट्र से कहते हैं- “आप पाण्डवों का हिस्सा दे दीजिये। धर्मात्मा युधिष्ठिर एवं गांडीवधारी अर्जुन आदि के प्रति अन्याय न करें। इसी में आपका कल्याण है। यह दुर्योधन न मानो पापरूप में आपके कुल में जन्मा है, कलियुग के स्वरूप में जन्मा है। अतः इसके मोह में न पड़कर धर्माचरण करें।”
यह बात दुर्योधन सुन रहा था। उसने विदुरजी का घोर अपमान कर दिया और विदुरजी वहाँ से चल दिये। उसी समय से कौरव कुल के विनाश का आरंभ हो गया क्योंकि पुण्यात्मा विदुरजी का अपमान किया था दुर्योधन ने।
माण्डव्य ऋषि के श्राप से साक्षात् यमराज ही धर्मात्मा विदुर दासी पुत्र के रूप में जन्मे थे। थोडे से सत्संग मात्र से ही उनका देह में अहं, कर्म में कर्त्तापन और जगत में सत्यभाव मिट चुका था। वे ज्ञातज्ञेय हो चुके थे। आत्मा की असंगता, निर्लेपता और शुद्ध-बुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप का उन्हें ज्ञान हो चुका था।
महाभारत का युद्ध हुआ और पाण्डव विजयी हुए। महाराज युधिष्ठिर धृतराष्ट्र एवं गांधारी को बड़े आदर से देखते थे।
महाभारत का युद्ध हुआ और पाण्डव विजयी हुए। महाराज युधिष्ठिर धृतराष्ट एवं गांधारी को बड़े आदर से देखते थे।
विदुरजी यात्रा करते-करते अपने ज्ञातज्ञेय पद में जागकर, अपने शुद्ध-बुद्ध आनंदस्वरूप आत्मा को ʹमैंʹ रूप में जानकर, निःशोक पद में प्रतिष्ठित हुए थे। वे जब हस्तिनापुर आये, तब युधिष्ठिर ने बड़े आदर-स्नेह से उनका सत्कार किया। अर्घ्य-पाद्य आदि से उनकी आवभगत करते हुए पाँचों भाइयों ने उनका सम्मान किया।
धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उनसे कहाः “काका ! हम बालक थे, तभी से आपने हमारी खूब-खूब संभाल ली, हमारी सहायता की। लाक्षागृह से हमें जीवित बचाने में समय-समय पर आप हमें सन्मार्ग बताते आये हैं। आप कुशल तो हैं ? यात्रा में आपको कैसे-कैसे अनुभव हुए ? किन-किन महात्माओं के दर्शन हुए एवं किन-किन महात्माओं से क्या-क्या प्रभु-प्रसाद मिला ?”
युधिष्ठिर विदुरजी के साथ काफी देर तक इस प्रकार की ज्ञानचर्चा करते रहे। बाद में विदुरजी धृतराष्ट से मिले एवं बोलेः “जिन पाण्डवों को आपने लाक्षागृह में जल मरने के लिए भिजवाने में, भूमि न देने में, अन्याय करने में अपने दुष्ट पुत्र दुर्योधन का साथ दिया था, उन्हीं पाण्डवों के टुकड़ों पर अपने इस नश्वर कलेवर को कब तक पालते-पोसते रहेंगे ?
यह वृद्ध शरीर काल का ग्रास है। इससे अब आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? इस शरीर को आप कितना भी संभालेंगे, किन्तु रहेगा नहीं। इन प्राणों का मोह आप कब तक करते रहेंगे ? ये प्राण असावधानी में ही निकल जायें, उसकी अपेक्षा आप प्राणनाथ का अनुसरण करें।
भाई ! इस सृष्टि में जो भी जन्मा है, वह मरा अवश्य है। अतः आपके लिये यही उचित है कि देह, संबंधियों एवं कुटुंबियों के मोह और गेह में सत्यबुद्धि की इस अविद्या को त्यागकर एकांत में श्रीहरि की उपासना कर अपना जीवन सफल कर लें।
अभी-भी वक्त है, चेत जायें। अनजाने में ही काल-कराल के ग्रास हो जाएँ, उससे पहले सावधानीपूर्वक उस अकाल की यात्रा कर लें तो अच्छा है।
छोड़ दें देह की अहंता और संबंधियों की ममता को। अकेले आये थे और अकेले जाना है। यह बीच का झमेला कब तक संभालेंगे ?”
किसी संत पुरुष ने ठीक ही कहा हैः
दुनियाँ के हँगामों में गर आँख हमारी लग जाये।
तू मेरे ख्वाबों में आना प्यार भरा पैगाम लिये।।
न कोई संगी-साथी ऐसा जो जीवन में साथ चले।
इन मेलों में रहकर मजबूर हम अकेले चले।।
इस संसार में जीवात्मा को अकेले जाना पड़ेगा, उससे पहले अपने ईश्वरत्व का अनुभव कर ले तो कितना अच्छा होगा ! कुटुम्बी अग्निदान कर दें, उससे पहले ब्रह्मविद्या का दान पा लें तो कितना अच्छा होगा ! कान की सुनने की क्षमता क्षीण हो जाये, उससे पहले सुनने की आसक्ति मिट जाये तो कितना अच्छा होगा ! नेत्रज्योति देखऩे से इन्कार करने लगे, उससे पहले देखने की आसक्ति मिटा दे तो कितना अच्छा होगा ! पैर चलने से जबाव देने लग जायें, उससे पहले संसार में भटकने की इच्छा मिट जाये तो कितना अच्छा होगा !
ज्यों-ज्यों दिन बढ़े, त्यों-त्यों अपनी वासनाएँ मिटाने जाना चाहिए, संसारी आकर्षण घटाते जाना चाहिए, संसारी संबंध कम करते जाना चाहिए और सत्यस्वरूप परमेश्वर का स्मरण-चिंतन बढ़ाते जाना चाहिए। इसी में आपका कल्याण है।
विदुर जी की बातें सुनकर धृतराष्ट्र गंगा किनारे तपस्या करने के लिए तैयार हो गये। किन्तु तपस्विनी गांधारी कैसे चुप बैठती ? वह भी साथ हो ली। माता कुन्ती भी उन्हीं के साथ हो ली।
चुपचाप रातों-रात ही हस्तिनापुर की राज्यलक्ष्मी को नमस्कार करके गांधारी और कुंती समेत धृतराष्ट्र निकल पड़े। विदुरजी के उपदेश ने काम किया। सोया वैराग्य जाग उठा।
सुबह हुई। महाराज युधिष्ठिर संध्या-वंदन, यज्ञ-यागादि करके प्रणाम करने के लिए आये तो देखा कि ʹधृतराष्ट्र जी नहीं हैं, गांधारी माँ नहीं हैं और माँ कुन्ती भी नहीं हैं। अरे ! मेरे से ऐसा कौन-सा अपराध हो गया कि वे चले गये ? क्या गंगाजी में कूद पड़े होंगे ? हम नन्हें थे, तब हमें पिता की तरह पालने वाले धृतराष्ट्र कहाँ गये ?ʹ
वे विह्वल हो संजय से पूछने लगे।
संजय के आगे महाराज युधिष्ठिर अपनी व्यथा व्यक्त करने लगेः “हाय रे हाय ! मैं कैसा अधम हूँ कि पिता-तुल्य धृतराष्ट्र नाराज हो गये ! माता गांधारी एवं माँ कुन्ती भी न जाने मेरे किस अपराध के कारण मुझे छोड़कर चली गयीं ?”
संजय ने कहाः “मुझे भी पता नहीं कि वे महात्मा लोग कहाँ गये ?”
युधिष्ठिर महाराज विलाप कर ही रहे थे कि इतने में एकाएक देवर्षि नारद वहाँ आये और बोलेः “हे युधिष्ठिर ! तुम शोक न करो।”
नारदजी त्रिकालज्ञानी हैं। जो होने वाला है वह भी नारदजी को दिख रहा है, जो हुआ है वह भी दिख रहा है। धृतराष्ट्र गये तो पूर्व रात्रि को ही हैं किन्तु मानो छः महीने का भविष्य प्रत्यक्ष दिख रहा है।
नारदजी कहते हैं “हे युधिष्ठिर ! धृतराष्ट्रादि हस्तिनापुर से निकल कर गंगाजी में आत्महत्या करने के लिए नहीं गये हैं वरन् वे चलते-चलते सप्तर्षि पहुँचेंगे। तुम उन्हें विक्षेप न करना, युधिष्ठिर !
कौन किसका काका और कौन किसका भतीजा ? कौन किसका पिता और कौन किसका पुत्र ? वे कब तक तुम्हारे साथ रहेंगे और तुम कब तक उनकी रक्षा करोगे ? मनुष्य का तो ऐसा हाल है कि जैसे मेढक खुद तो साँप के मुँह में पड़ा है और अपना मुँह फाड़कर अन्य जन्तुओं को निगलना चाहता है, वैसे ही मनुष्य स्वयं तो काल के मुख में पड़ा है फिर भी विषय-भोगरूपी जीव-जन्तुओं को खाने के लिए दौड़ रहा है।
जहाँ वास्तविक रक्षा हो सकती है वहीं, ऋषियों के चरणों में वे पहुँचे हैं। सप्तर्षि की प्रसन्नता के लिए गंगाजी जहाँ सात धाराओं में विभक्त होकर बह रही हैं, उस सप्तर्षि के क्षेत्र में ही वे लोग पहुँचे हैं। मृत्यु के समय कुटुंबियों एवं मित्रों के संग एवं आसक्ति का त्याग करना ही श्रेयस्कर है, इसीलिए वे चुपाचाप चले गये हैं। तुम उनका पीछा न करना और उनके मार्ग में तुम अवरोध न बनना। इस मोहपाश को तुम भी काटो और उऩको भी मोहपाश काटने में सहयोग दो। अतः तुम यहीं रहो।”
नारदजी भगवान का संकल्प हैं। नारदजी महात्मा हैं। जो परमात्मा से मिलाने की बात करें, जो परमात्मा के रास्ते आने वाले विघ्नों को हटाने का मार्ग बता दें, वे महात्मा हैं।
शुकदेवजी महाराज कहते हैं-
एतावान्सांख्ययोगाभ्यां सर्वधर्मपरिनिष्ठया।
जन्मलाभ ततः पुंसां अन्ते नारायणस्मृतिः।।
ʹमनुष्य जन्म का इतना ही लाभ है कि चाहे कैसे भी हो-ज्ञान से भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से, जीवन को ऐसा बना लिया जाये कि मृत्यु के समय भगवान श्रीहरि की स्मृति बनी रहे।”
नारदजी आगे कहते हैं- “हे युधिष्ठिर ! धृतराष्ट्र अपने तन की आसक्ति एवं मन के संबंधों को समेटकर सच्चे संबंधी परमात्मा तक की यात्रा करने गये हैं। तीन दिन में एक बार भोजन करते हैं और कहीं आपस में बातें करने में समय नष्ट न हो जाये, इसलिए मुँह में गंगाजी का छोटा-सा पत्थर रख लिया है। गांधारी भी व्रत-उपवास का अवलंबन लेती हैं। कुन्ती भी अपना समय दोनों की सेवा और साधना में बिताती हैं। धृतराष्ट्र ने अपना अंतिम समय सार्थक कर लिया, अतः तुम शोक न करो।”
विदुर जी के कुछ वचनों को सुनकर ही धृतराष्ट्र ने अपना अंतिम समय सँवार लिया। इसी प्रकार तुम भी संतों के वचनों को सुनकर अपना जीवन सार्थक कर लो तो कितना अच्छा !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 3-5, अंक 71
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