पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
श्री महाभारत में आता हैः
न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्।
न विना गुरुसम्बन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः।।
गुरु प्लावयिता तस्य ज्ञानं प्लव इहोत्यते।
विज्ञाय कृतकृत्यस्तु तीर्णस्तदुभयं त्यजेत्।।
“जैसे ज्ञान विज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार सदगुरु से संबंध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु इस संसारसागर से पार उतारने वाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान नौका के समान बताया गया है। मनुष्य उस ज्ञान को पाकर भवसागर से पार और कृतकृत्य हो जाता है। फिर उसे नौका और नाविक दोनों को ही अपेक्षा नहीं रहती।ʹʹ (महा. शांति. 326.22,23)
छल, कपट, धोखा-धड़ी पलायनवादिता आदि आसुरी वृत्तियों से बचाकर जो हमें सच्चाई, पवित्रता एवं तत्परता की ओर ले जायें, ऐसे सदगुरु मिलना-यह मानव जन्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन ऐसे सदगुरु मिल जायें, फिर भी हम सुधरे नहीं तो मनुष्य जन्म का दुर्भाग्य भी तो पूरा है। अतः गुरुद्वार पर कैसे रहना चाहिए-यह सभी को ज्ञात होना चाहिए।
शिष्य को चाहिए कि गुरु-आश्रम में वह अपना सारा समय सेवा, साधना, जप-ध्यान आदि में ही लगाये और अपनी गलती हो तो गलती को गलती मानकर उसका प्रायश्चित करे।
हमारी जो भी गलत आदत है उसको सामने रखकर सुबह संकल्प करो किः “अब मैं ऐसा नहीं करूँगा।” फिर भी गलत आदत नहीं निकलती है तो सदगुरु से, भगवान से प्रार्थना करो, गुरुभाइयों से कहो किः “मुझमें यह गलती है।” अपनी गलती को चिल्लाकर भगाओ तो भागेगी, नहीं तो गलती को गलती के रूप में भी नहीं स्वीकार कर सकोगे।
मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन लाना बड़ा विकट है। कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति का बदलाव सरलता से स्वीकार नहीं करता है। जो आदतें पड़ गयी हैं, जो पुराने संस्कार पड़ गये हैं, उनको यह छोड़ना नहीं चाहता। इसीलिए पत्थर को भगवान बनाना बड़ा आसान है लेकिन झूठ-कपट करने वाले इस मिट्टी के पुतले को ब्रह्म बनाना बड़ा कठिन है। किसी मठ-मंदिर या संस्था को चलाना भी सरल है लेकिन बेईमानों-कपटियों को ब्रह्मसुख देना असंभव है क्योंकि वे अपनी गलत आदतों को छोड़ने के लिए राजी नहीं होते। दुर्गुणों का त्याग किये बिना सब ऐच्छिक साधन एवं सुख गुरु से प्राप्त कर लेना चाहते हैं। वे तो मानो, डामर की सड़क पर खेती करना चाहते हैं। यदि ब्रह्मसुख पाना है, आत्मसुख पाना है तो साधक को आगे झूठ-कपट, बेईमानी, अपने बचाव की आदत आदि दुर्गुणों का त्याग करना ही पड़ेगा।
साधक को चाहिए कि वह जप-ध्यान, सेवा, साधना तत्परता से करता रहे और नियम में निष्ठा रखे। ऐसा करने से पुरानी गंदी आदतें दूर होंगी एवं मनसुखता मिटेगी। लेकिन यदि जप-ध्यान से, सेवा से वह कतरायेगा, नियम में नहीं रहेगा तो भ्रष्ट हो जायेगा, पतित हो जायेगा।
साधारण जगह पर किये गये किसी भी कार्य़ की अपेक्षा तीर्थ व गुरुद्वार पर किये गये कार्य का फल अनंतगुना होता है। साधारण जगह पर किये हुए जप-तप की अपेक्षा तीर्थ व गुरुद्वार पर किया गया जप-तप अनंतगुना फल देता है। इसी प्रकार साधारण जगह पर किये गये झूठ-कपट, बेईमानी की अपेक्षा तीर्थ व गुरुद्वार पर किये गये झूठ-कपट एवं बेईमानी से ज्यादा पाप लगता है।
मन में जैसा आता है, वैसा ही जो करने लग जाता है उसका पतन हो जाता है। कोई भी काम करो तब सोचो की गुरु देखेंगे तो उनको कैसा लगेगा ? उनके मन में क्या होगा ?
ईश्वन ने मनुष्य जन्म दिया है, स्वास्थ्य दिया है, मार्गदर्शक सदगुरु मिले हैं, खाने-पीने रहने की सुविधा मिली है, फिर भी जो अपनी बुरी आदतें निकालकर अपना कल्याण न करे, अपनी उन्नति न करे तो किसका दोष ?
कई लोग ऐसे होते हैं जो शत्रु को भी मित्र बना लेते हैं और कई ऐसे होते हैं कि मित्र को भी शत्रु बना लेते हैं। कई ऐसे होते हैं कि असंत के आगे भी संत जैसा व्यवहार करते हैं तो असंत के अंदर भी छुपा हुआ संतत्व जग जाता है और कई मूर्ख ऐसे होते हैं कि संत के आगे भी ऐसा व्यवहार करते हैं कि संत को भी असंत जैसा नाटक करना पड़ता है। उनको क्रोध होता नहीं है, फिर भी क्रोध लाना पड़ता है। अतः अपना व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि जहाँ से न मिलता हो वहाँ से भी मिलना शुरु हो जाये। ऐसा व्यवहार न करो कि जहाँ से छलकता हो, वहाँ से भी छलकना बंद हो जाये। इन्सान अपने कर्मों से ही ईश्वर और सदगुरु के करीब या उनसे दूर होता है। संत कभी किसी को अपने से दूर नहीं करते।
करणी आपो आपनी के नेड़े के दूर।
आश्रम में आते हो तो ध्यान करने वाले व्यक्ति को मददरूप हो जाओ। यदि मददरूप नहीं हो सकते हो तो कम-से-कम उसे विघ्न मत डालो। यहाँ कई ऐसे नये-नये अटपटे लोग आ जाते हैं जो कि हम ध्यान में होते हैं, साधक लोग शांति से बैठे होते हैं फिर भी जोर से बड़बड़ाने लगते हैं किः “आश्रम अच्छा है…. महाराज कहाँ हैं ?ʹʹ ऐसा नहीं करना चाहिए। इतना बोलो, ऐसा बोलो और इसीलिए बोलो कि जिससे तुम्हारे भी पाप नष्ट हों, तुम्हारा मन भी शीतल हो, शांत हो और सुनने वाले का मन भी गहरी शांति में खो जाये। आश्रम की शांति बनी रहे।
इसी प्रकार आश्रम की स्वच्छता बनाये रखने में भी सावधान रहना चाहिए। ऐसा नहीं कि फल खाकर छिलके बगीचे में ही छोड़ दिये… आश्रम में कोई नौकर नहीं है। यहाँ साधक लोग रहते हैं। तुम जूठा पदार्थ छोड़कर जाओगे और साधक बुहारी करके उसे कचरापेटी में डालेंगे तो तुम्हारे पाप बढ़ेंगे और पुण्य नष्ट होंगे। हो सके तो तुम भी आश्रम में तिनका उठाकर किनारे लगाओ। हो सके तो जूठन उठाकर फेंक दो। तुम जूठा छोड़कर मत जाओ। पहले का काफी ʹजूठाʹ तुम्हारे सिर पर पड़ा है, और कब तक ढोते रहोगे ?
आश्रम में संत-दर्शन की भी कोई विधि होती है। जहाँ से हवा आती है उस तरफ संत हों, संत की हवा का हमें स्पर्श हो – ऐसी जगह पर खड़े रहना चाहिए। हमारा श्वास छूकर, हमारी हवा छूकर संत को लगे-यह ठीक नहीं है। नहीं तो हमारी खिन्नता और मूढ़ता वहाँ जाती हैं और वहाँ से जो छलकता है, उसमें 19-20 हो जाता है। फिर तुम्हारे विचार और तुम्हारी गंदगी का कुछ मिश्रण ही तुम्हें मिल जाता है। इसीलिए कुछ दुष्ट प्रकृति के लोग या तामसी लोग आ जाते हैं और ऐसे ढंग से खड़े होते हैं तो उनको प्रेम की जगह पर डाँट मिल जाती है क्योंकि उनके पास जो है वे ही आंदोलन मिश्रित हो जाते हैं।
संत यदि ध्यान में हों, किसी काम में हों या किसी से बात करते हों तो उनकी छाती पर ख़ड़े नहीं रहना चाहिए। संत जितना धीरे बोलेंगे उतना सारगर्भित होगा। जितनी भीड़ होगी उतना जोर से बोलना पड़ेगा। अतः ऐसे समय पर दूर खड़े रहो। अवसर पाकर ही बात करो।
इस प्रकार गुरुद्वार पर रहने की, गुरुदर्शन करने की युक्ति जानकर, उनका अमल करके तुम बहुत लाभ उठा सकते हो।
एक भगवान, भगवान के प्यारे संत सदगुरु एवं शास्त्र ही हमको परमात्मा के रास्ते पर चढ़ाते हैं, बाकी तो सब गिराने वाले ही मिलते हैं। बुद्धिमान वही है जो ससांररूपी ताप से बचने के लिए संतों का संग करता है, सत्शास्त्रों का विचार करता है एवं आत्मविद्या को पाकर संसार में तपाने वाली अविद्या को मिटा देता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 79
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