संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्यं सिद्धिं विन्दति मानवः।।
ʹजिस परमात्मा से सर्वभूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है।ʹ (श्रीमद् भगवद् गीताः 18.46)
अपने स्वाभाविक कर्मरूपी पुष्पों द्वारा सर्वव्यापक परमात्मा की पूजा करके कोई भी मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो सकता है, फिर भले ही कोई बड़ा सेठ हो या छोटा-सा कोई गरीब व्यक्ति।
बिहार में मुंगेर और भागलपुर रोड के बीच एक पक्का कुआँ मौजूद है जिसे ʹपिसजहारी कुआँʹ भी कहते हैं।
श्यामो नामक एक 13 वर्षीय लड़की की शादी हो गयी। सालभर बाद उसके पति की मृत्यु हो गयी और वह लड़की 14 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही विधवा हो गयी। श्यामो ने देखा कि अपने जीवन को आलसी, प्रमादी या विलासी बनाना-यह समझदारी नहीं है। उसने माता-पिता को राजी कर लिया अपना पवित्र जीवन जीने के लिए। उसके माता-पिता भी महागरीब थे।
श्यामो सुबह उठकर पाँच सेर आटा पीसती और उसमें से कुछ कमाई कर लेती। फिर नहा धोकर थोड़ा पूजा पाठ आदि करके पुनः सूत कातने बैठ जाती। किसी के घर रसोई बनानी होती तो वह रसोई बनाने चली जाती। इस प्रकार उसने अपने को कर्म में पिरोये रखा और जो काम करती उसे बड़ी सावधानी और तत्परता से करती। ऐसा करने से उसे नींद भी बढ़िया आती और थोड़ी देर पूजा पाठ करती तो उसमें भी मन बड़े मजे से लग जाता। ऐसा करते-करते श्यामो ने देखा कि यहाँ से जो यात्री आते-जाते हैं उन्हें बड़ी प्यास लगती है। श्यामो ने आटा पीसकर, सूत कातकर, किसी के घऱ की रसोई करके अपना तो पेट पाला ही, बाकी कोरकसर करके जो धन एकत्रित किया था, अपने पूरे जीवन की उस संपत्ति को लगा दिया पथिकों के लिए कुआँ बनवाने में।
मुंगेर-भागलपुर रोड पर वही ʹʹपक्का कुआँʹʹ आज भी श्यामो की कर्मठता, त्याग, तपस्या और परोपकारिता की खबर दे रहा है।
परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी आयें किन्तु यदि इन्सान हताश-निराश न हो एवं तत्परतापूर्वक शुभ कर्म करता रहे तो फिर उसके सेवाकार्य भी पूजा-पाठ हो जाते हैं और उसके हृदय में भगवदीय सुख, भगवद-संतोष जो भक्तिभाव व योग से आते हैं वे ही सुख-शांति भगवद्-प्रीत्यर्थ सेवा करने वाले के हृदय में प्रकट होते हैं।
14 वर्ष की उम्र में ही विधवा हुई श्यामो ने अपने जीवन को पुनः विलासी विकारी जीवन में गरकाव नहीं किया वरन् पवित्रता, संयम एवं सदाचार का पालन करती हुई तत्परता से कर्म करती रही तो आज उसका पाँचभौतिक शरीर भले ही धरती पर नहीं है, पर उसकी कर्मठता, परोपकारिता एवं त्याग की यशोगाथा तो आज भी गायी जा रही है।
काश ! लड़ने झगड़ने और कलह करने वाले लोग उससे प्रेरणा पायें ! घर में, कुटुम्ब में, समाज में सेवा और स्नेह की सरिता बहायें तो हमारा भारत कितना अच्छा हो ! गाँव-गाँव को गुरुकुल बनायें…. घर-घर को गुरुकुल बनायें….
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 82
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