वाल्मीकिजी द्वारा भगवान को बताये हुए घर

वाल्मीकिजी द्वारा भगवान को बताये हुए घर


वाल्मीकि जयंतीः 24 अक्तूबर 1999

वनवास के समय भगवान श्रीराम माँ सीता एवं अनुज श्री लक्ष्मणजी के साथ वाल्मीकि जी के आश्रम में आये। महर्षि वाल्मीकिजी ने कन्दमूल-फलादि से उनका आतिथ्य सत्कार किया। तत्पश्चात श्रीराम ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक महर्षि वाल्मीकिजी से अपने रहने योग्य स्थान के बारे में पूछा।

महर्षि वाल्मीकि जी श्रीराम की महिमा का वर्णन करते हुए बोलेः “आप पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ ? परन्तु मैं यह पूछते हुए सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। फिर मैं आपके रहने के लिए स्थान बताऊँ।”

वाल्मीकि जी के रहस्ययुक्त वचनों को सुनकर श्रीरामजी मुस्कराये। फिर वाल्मीकि जी ने श्रीरामजी को सीता जी एवं लक्ष्मणजीसहित निवास करने के लिए स्थान बतलाये। वाल्मीकिजी ने उन स्थानों का जो वर्णन किया है वह मानवमात्र के लिए अऩुकरणीय है क्योंकि उसमें उन सुन्दर साधनों का वर्णन किया गया है, जिनके द्वारा साधक अपने साध्य तत्त्व को, परमात्मा को अवश्य ही पा सकता है।

वाल्मीकि जी कहते हैं- “जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथारूपी अनेकों सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं।

जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं तथा जो बड़ी-बड़ी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौन्दर्यरूपी मेघ के एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं, हे रघुनाथजी ! उन लोगों के हृदयरूपी सुखदायी भवनों में भाई लक्ष्मणजी और सीतासहित आप निवास कीजिये।

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिनकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी, आप उनके हृदय में बसिये।

जिनकी नासिका प्रभु के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुन्दर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं, जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मण को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य प्रभुचरणों की पूजा करते हैं और जिनके हृदय में प्रभु का ही भरोसा है दूसरा नहीं तथा जिनके चरण प्रभु के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे राम जी ! आप उनके मन में निवास कीजिये।

जो नित्य आपके रामनामरूप मंत्रराज को जपते हैं और परिवारसहित आपकी पूजा करते हैं, जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा हृदय में गुरु को  आपसे भी अधिक बड़ा जानवर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं  इऩ सब कर्मों का एकमात्र फल आपके श्रीचरणों की प्रीति ही चाहते हैं उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में आप श्रीसीताजी सहित बसिये।

जिनको न काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दंभ और माया ही है, हे रघुनाथ ! आप उनके हृदय में निवास कीजिये।

जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा और निन्दा समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं और आपको छोड़कर जिनकी दूसरी कोई गति नहीं है, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिये।

जो परायी स्त्री को उसे जन्म देने वाली माता के समान मानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी लगता है, जो दूसरों की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं और विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं तथा हे रामजी ! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।

हे तात ! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मनरूपी मंदिर में आप दोनों भाई सीतासहित निवास कीजिये।

जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिए संकट सहते हैं, नीति निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है।

जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझते हैं, जिन्हें सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और रामभक्त जिन्हें प्यारे लगते हैं उऩके हृदय में आप सीतासहित निवास कीजिये।

जाति, पाँति, धन, धर्म, मान-बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर-इन सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किये रहते हैं, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय में रहिये।

स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिनकी दृष्टि में समान हैं क्योंकि वे सर्वत्र आपको ही देखते हैं और जो कर्म, वचन और मन से आपके दास हैं, हे रामजी ! आप उनके हृदय में डेरा डालिये।

जिनको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिनका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उनके मन में निरन्तर निवास कीजिये, वह आपका अपना घर है।”

इस प्रकार वाल्मीकिजी ने श्रीरामजी को निवास स्थान बताये। वास्तव में यदि कोई वाल्मीकि जी द्वारा दर्शाये गये संकेतों के अनुसार अपना हृदय बना ले तो उस हृदय में हृदयेश्वर परमात्मा अवश्य निवास करने लगें।

वाल्मीकि जी के तीन अवतार हुए। ʹश्रीयोगवाशिष्ठमहारामायणʹ के ʹकागभुशुण्डी-वशिष्ठ संवादʹ में वर्णन आता है। जो लोग वाल्मीकि जी के नाम या और किसी नाम से समाज और संत को बीच विद्रोह फैलाकर आगेवानी चाहते हैं उनको वाल्मीकि जी के वचन ठीक से समझने चाहिए। वालिया में से वाल्मीकि बने वे वाल्मीकि या तीन बार वाल्मीकि आये वे वाल्मीकि ? आप कौन-से वाल्मीकि को मानकर विद्रोह फैलाना चाहते हैं ? कृपा करके आप महापुरुष के होकर महापुरुषों के प्रति स्नेह रखें और उनके अंतःकरण को समझें। विद्रोह करके या करवाके अपने को, जाति को, समाज को खोखला न बनायें।

सभी समाजों की गहराई में राम जी, वाल्मीकि जी की आत्मा है। वाल्मीकि जी की समझ कितनी ऊँची है ! उनकी समझ सभी के लिए है, उनका ज्ञान सभी के लिए है। उनके ज्ञान का आदर करें, उनकी प्रेमदृष्टि का आदर करें। उनका नाम आगे रखकर विद्रोह का…..

भगवान सबको सदबुद्धि दे। देशवासी परस्पर मिलजुलकर रहें। सभी वर्ग, सभी जातियाँ इस विराट भारत माँ की संतानें हैं।

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

एक ही माँ के बच्चे हम सब, एक ही पिता हमारा है।

फिर भी ना जाने किस मूरख ने, लड़ना तुम्हें सिखाया है।।

भिड़ना-भिड़ाना तुम्हें सिखाया है।

बदला जमाना तुम भी बदलो, कलह के कृत्य छोड़ो…

प्रेम से समजा को जोड़ो….

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

क्यों भैया ! समझ गये न !

हाथ में जल लें और आज से ही संकल्प करें कि ऐसे विद्रोह में आयेंगे नहीं और विद्रोह फैलायेंगे नहीं। ૐ…..ૐ…..ૐ…. शांति….

जय वाल्मीकि ऋषि

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 82

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