संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
जो सहज जीवन जीता है, उसका जीवन खूब सरल एवं आनन्द से परिपूर्ण होता है। मूर्ख एवं अहंकारी लोग जीवन को जटिल बना देते हैं। उनका जीवन अपने तथा औरों के लिए समस्या बन जाता है।
तीन प्रकार के लोग होते हैं- एक वे होते हैं जो ʹयह करूँ…. यह न करूँ…. यह छोड़ूँ…. यह पकड़ूँ…..ʹ ऐसी मान्यता रखते हैं। दूसरे प्रकार के वे लोग होते हैं जो कुछ भी करके अपने को बड़ा दिखाना चाहते हैं। ऐसे लोगों का जीवन उलझा हुआ होता है अथवा अधमतापूर्वक नष्ट होता है। तीसरे प्रकार के वे लोग होते हैं जो अपना व्यवहार इस ढंग से करते हैं कि जहाँ हैं, जैसे हैं, ठीक हैं। व्यवहार में अनाग्रहपूर्ण बुद्धि रखकर जीवन के रहस्य को, जीवन के छुपे खजाने को प्राप्त करने में अपना जीवन बिताते हैं, उनका जीवन सार्थक है।
जिसे कुछ बनने की, कुछ करने की इच्छा होती है वे तो किसी-न-किसी प्रकार के आग्रह से घिरे ही रहते हैं। कोई अपने को तपस्वी मानता हो। उसके पास यदि आप जाओ तो वह आपको कहेगा कि ʹबीड़ी सिगरेट छोड़ दो, मांस-मछली-अण्डे छोड़ दो…।ʹ आपने यह सब छोड़ा हा है तो कहेगा कि ʹलहसुन, प्याज छोड़ दो।ʹ आप ये छोड़कर आगे बढ़ना चाहोगे तो कहेगा कि ʹतीन बार भोजन करते हो तो दो बार ही करो।ʹ आप दो बार खाने लगोगे तो कहेगा कि ʹअब एक वक्त का भोजन बंद कर दो।ʹ एक बार खाते होगे तो कहेगा कि ʹनमक बंद कर दोʹ। आप वह भी बन्द कर दोगे तो कहेगा कि ʹअनाज छोड़ दो। अब फलाहार करने लगो।ʹ छोड़ो….. छोड़ो…. छोड़ते जाओ… छोड़ते जाओ…. फिर कहेगा कि ʹफल खाते हो, तपस्वी हो तो अब संसार में क्या रहना ? पत्नी और बच्चों को भी छोड़ दो।ʹ मान लो, वह भी छूट गया तो कहेगा कि ʹसब छूट गया, अब वस्त्रों को भी छोड़ दो। कौपीन पहनो।ʹ
जीवन जीने का यह एक मार्ग हैः त्याग….त्याग….त्याग…
जिन्होंने सब छोड़ दिया है, जो केवल कौपीन पहनते हैं, फलाहार अथवा भिक्षा पाते हैं एवं ईश्वर का चिंतन करते हैं उनके जीवन में यदि सत्संग नहीं है तो कोई दिव्य संगीत नहीं होता। जीवन में जो दबा हुआ होता है, वह कभी-कभार समय पाकर प्रगट हो जाता है कि ʹतू मुझे नहीं जानता, मैं कबसे घर-बार छोड़कर यहाँ बैठा हूँ ? संसारी लोग क्या जानें कि भजन क्या होता है ? तपस्या क्या होती है ? मैं लहसुन नहीं खाता, प्याज नहीं खाता…. मैंने बार-बच्चों को छोड़ दिया, पत्नी को छोड़ दिया…. मैं कोई जैसा-तैसा साधु थोड़े ही हूँ ? मेरे आगे तू क्या डींग मारता है?ʹ
अच्छा है, ठीक है कि छोड़ पाये हो, लेकिन छोड़कर आने की याद चित्त में अभी तक बनी हुई है। यह उचित नहीं है। अपने अहंकार को सजाने के लिए जो कुछ करते हो वह अनुचित है। आपके पास चीज-वस्तुएँ, रूपये पैसे होना कोई खराब बात नहीं है लेकिन दूसरों का शोषण करके, दूसरों को सताकर एकत्रित की गयी अथवा जिनका सदुपयोग न किया जा सका हो ऐसी चीजों, रुपयों पैसों का होना न होना बराबर ही है।
कुछ वर्ष पहले किसी व्यक्ति ने मुझे बताया किः “चार गधे लेकर जो आदमी यहाँ रोड पर काम करता था, उसके पास अब 25-30 लाख रूपये हैं लेकिन उसकी पत्नी हमारी कॉलोनी में 10-10 पैसे में नींबू बेचती है।”
बाह्य पदार्थ पाकर तो हम खूब ऊँचे दिखते हैं लेकिन समझ नहीं होती तो भीतर से हम खूब नीचे रह जाते हैं। अंदर या बाहर से न ऊँचे दिखने की कोशिश करो, न अपने को नीचा मानने की भूल करो। दिखना-मानना, यह सब सापेक्ष है। अपने को ऊँचा तब मानोगे, जब दूसरे को नीचा मानोगे। अपने को नीचा तब मानोगे जब दूसरे को ऊँचा मानोगे। लव-कुश आपके आगे बहुत अच्छे लगेंगे, बड़े समर्थ लगेंगे लेकिन श्रीराम के आगे उतने बड़े व समर्थ नहीं लगेंगे। तहसीलदार किसी क्लर्क के आगे बड़ा दिखेगा लेकिन कलेक्टर के पास जाये तो छोटा दिखेगा। कलेक्टर मंत्री के आगे छोटा लगेगा। वह मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री के आगे छोटा लगेगा।
बड़ों के आगे आप छोटे हो जाते हो और छोटों के आगे आप बड़े बन जाते हो। मूर्ख के आगे आप विद्वान लगते हो परन्तु अपने से अधिक विद्वान के आगे आप मूर्ख लगते हो। यह सापेक्ष दृष्टि है और सापेक्ष दृष्टि में हमेशा भय, घृणा, लज्जा आदि बने ही रहते हैं।
एक सुनी हुई घटना है, एक फौजी था। उसी पदोन्नति होते-होते वह कमाण्डर बन गया। जब वह परेड लेने जात अथवा कहीं घूमने जाता, तब दूसरे फौजी उसे सलाम करते। उनके सलाम करने पर कमाण्डर के मुख से स्वाभाविक ही निकल जाता किः “ऐसे ही तो करते हो !”
उसके निकट के दो अंगरक्षक बार-बार यह सुनते। वे आपस में कहते किः “जब भी कमाण्डर को कोई सलाम करता है तो उनके मुख से स्वाभाविक ही निकल जाता है कि ʹऐसे ही तो करते हो !ʹ इसका क्या कारण है ?” आखिर एक दिन उन्होंने अपने कमाण्डर से पूछ ही लियाः “साहब ! पिछले काफी समय से हम आपके साथ रह रहे हैं। जब कोई आपको सलाम करता है तब आप उसके ऊपर नाराज हो जाते हैं एवं कहते हैं किः ʹऐसे ही तो करते हो !ʹ इसका कारण क्या है ?”
कमाण्डर ने कहाः “इसका एक ही कारण है। मैं भी पहले सिपाही था। सलाम कर-करके बड़े पद पर पहुँचा हूँ। मैं जब सिपाही था, तब कोई साहब आता तो मुझे जबरदस्ती सलाम करनी पड़ती थी। ʹवे कब यहाँ से जायें ?ʹ इस भाव से, बिना प्रेम के उन्हें सलाम करता था। अब सभी मुझे सलाम करते हैं तो मुझे लगता है कि ये सब भी मुझे आदर नहीं देते, मुझे सलाम नहीं मारते, वरन् इस पद को सलाम करते हैं। वह भी करना पड़ता है, इसलिए करते हैं। इसीलिए मेरे मुँह से ʹऐसे ही तो करते होʹ – यह स्वाभाविक निकल जाता है।”
जीवन में जो भी प्रेम बिना का होगा, वह लेने वाला को भी बोझा लगेगा और देनेवाले को भी आनंद नहीं आयेगा। जो कुछ होगा, उसमें अहंकार की दुर्गंध आयेगी। लेकिन जिसके जीवन में हृदय की विशालता होगी, शुद्ध प्रेम होगा, उसका जीवन खिल उठेगा, सहज आनंदस्वभाव से परितृप्त हो उठेगा। फिर ʹयह करना है… यह छोड़ना है… यह पाना है….ʹ आदि नहीं बचेगा। जो भी करना होगा, वह सहज स्वाभाविक होता जायेगा। ऐसा जीवन जीने वाला ही अपने सहज स्वरूप को पा लेता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 83
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