मृत्यु का रहस्य

मृत्यु का रहस्य


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीमद् भगवदगीताʹ में आता हैः

ʹन जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

ʹयह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। (गीताः 2.20)

परमात्मा कहते हैं- ʹहे जीवात्मा तू अजर है, अमर है। जिस स्वरूप को जाने लेने से तेरी फिर कभी मौत नहीं होती, उसे जानकर अमर हो जा। यही तेरा कर्त्तव्य है।ʹ

यदि आप परमात्मा की इस बात को मान लो तो आपकी, आपके ससुराल की एवं आपके ननिहाल की सात-सात पीढ़ियों का अर्थात् कुल 21 पीढ़ियों का उद्धार हो जाये।

भगवान की बात मान लेने से हमारा कल्याण हो जाये, लेकिन हम करते क्या हैं ? हम दोस्त की बात मानते हैं, संबंधियों की बात मानते हैं, परिवारवालों की बात मानते हैं और अपनी इच्छा-वासना पूरी करने के पीछे सारा जीवन खपा देते हैं और जन्म-मृत्यु के चक्र में उलझ जाते हैं। दूसरों की बातें तो सदियों से मानते आ रहे हो किन्तु यदि एक बार भी परमात्मा की बात मान लो तो फिर जीते-जी मुक्ति पाना आपके लिए सहज हो जायेगा।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

देहिनोस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।

ʹजैसे इस मनुष्य देह में जीवात्मा की बाल्यावस्था, जवानी और वृद्धावस्था आती है, वैसे ही अन्य प्रकार के शरीरों की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।ʹ (गीताः 2.13)

जिस प्रकार कपड़े पुराने एवं जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर मनुष्य उन्हें बदलकर नये कपड़े धारण करता है, वैसे ही यह शरीर जब बाल्यावस्था एवं यौवनावस्था को पार कर जरावस्था में पहुँचता है तब हमारी आत्मा इसको त्यागकर नया शरीर धारण करती है। अतः इसमें दुःखी होने की, भयभीत होने की क्या बात है ? पुराने कपड़े उतारकर नये कपड़े पहनने में रूदन किस बात का ? पुराना झोंपड़ा छोड़ नये महल में जाने पर शोक किस बात का ? पुरानी जीर्ण-शीर्ण कार छोड़कर नयी चमचमाती हुई कार में बैठने में भय किस बात का ? इसी प्रकार जब यह शरीर पुराना हो जाता है, जर्जर हो जाता है तब प्रकृति माता इस शरीर को उठाकर, जीव को अपनी गोद में ले लेती है और कुछ समय आराम करवाकर फिर उसे नये शरीर में भेज देती है। यह तो उन अनन्त की, विराट की यात्रा में, मंजिल तक पहुँचने की यात्रा में एक प्रक्रियामात्र है, पड़ावमात्र है। जैसे कन्या ससुराल से थक-हारकर कुछ तरोताजा होने के लिए मायके जाती है, वहाँ कुछ दिन अपनी माँ के साथ स्वतंत्र होकर रहती है और माँ कुछ दिन बाद उसे समझाकर, सजा-धजाकर ससुराल में पति के घर भेज देती है, वैसे ही जब जीव प्रकृति माता की गोद में जाता है तो वह करूणामयी प्रकृति माँ उसे फिर से नूतन शरीर में नूतन प्राण देकर संसार में भेज देती है और वह जीव अपनी आगे की यात्रा शुरु कर देता है। फिर चिंता, भय, शोक और रूदन किस बात का ?

रोना ही हो तो इस बात के लिए रोओ कि न जाने कितने शरीर मिलने के बाद यह मानव-तन मिला है और अगर इस मनुष्य शरीर में अपना कल्याण नहीं किया तो फिर कब करेंगे ? अथवा तो यूँ मान लो कि दिनभर की थकान को मिटाने के लिए जैसे रात्रि की नींद नितांत जरूरी है, वैसे ही वर्षों से चली आ रही इस यात्रा में ʹमेरे-तेरेʹ की, राग-द्वेष की, काम-क्रोध की थकान मिटाने के लिए मृत्युरूपी रात्रि की जरूरत है, नहीं तो सदैव इस घुटन भरे माहौल में रहना मुश्किल हो जाये।

यह मृत्यु ही है जो इन्सान के जीवन में नम्रता, समता, स्नेह और सहानुभूति को पोसती है। अगर मृत्यु नहीं आती एवं सभी अमर होते तो पत्थर की तरह निष्क्रिय एवं कठोर होकर पड़े रहते। ʹमृत्यु जीवन का अनिवार्य अंग है…ʹ यह सोचकर ही इन्सान परलोक का कुछ विचार करता है। ʹमृत्यु तो आने ही वाली है…. अधिक इकट्ठा करके भी साथ क्या ले जायेंगे ? चलो, थोड़ा-बहुत दान-पुण्य करते हैं ताकि परलोक सँवर जाये…ʹ यह सोचकर भी इन्सान लोभ छोड़ते हैं, संग्रह में थोड़ा संयम बरतते हैं, सत्कर्म में लग जाते हैं। जीवन को सदगुणों से महकाने के ले यह मृत्युरूपी रात्रि उतनी ही जरूरी है जितनी जीवनरूपी सुबह।

कबीरजी ने कहा हैः

जा मरने से जग डरे, मोरे मन आनंद।

कब मरिये कब पाइए,  पूरण परमानंद।।

अभी तक तो हम इस देहरूपी घड़े को ʹमैंʹ मानकर सजाते-सँवारते रहे लेकिन आज पता चल गया कि इसके फूटने से इसमें व्याप्त आकाश का कुछ नहीं  बिगड़ता। संत-महापुरुष तो जानते हैं कि मृत्यु शरीर की होती है, हमारी (आत्मा) की नहीं। वे तो अपने पूर्ण स्वरूप को पाये हुए होते हैं और जो संतत्त्व को उपलब्ध होने की ओर अग्रसर हो रहे हैं, वे भी शोक क्यों करें ? मृत्यु और जन्म तो प्रकृति का खेल है। भगवान श्रीराम के होते हुए भी उनकी माँ को विधवा होना पड़ा था। जिनकी गोद में भगवान खेले, उन पिता दशरथ को भी ʹहाय राम ! हाय राम !ʹ कहते हुए संसार से आखिर जाना ही पड़ा। यह तो परमात्मा की कृपा है, व्यवस्था है कि कभी शरीर दिया तो कभी शरीर छीन लिया। अगर जीव न अपने वास्तविक स्वरूप को पा लिया तो फिर परमात्मा ने नया शरीर नहीं दिया और जीव मुक्त हो गया।

जीवात्मा की मृत्य होती है तो उसे एक मुहूर्तपर्यन्त मूर्च्छा-सी रहती है। वह देखता है कि ʹये मेरे कुटुम्बी हैं… रो रहे हैं….ʹ तो वह उस शरीर में मोहवश पुनः प्रवेश करना चाहता हूँ लेकिन प्रकृति की ऐसी व्यवस्था है कि वह उसे उस शरीर में प्रवेश नहीं करने देती। एक मुहूर्त के बाद जब मूर्च्छा हटती है तब उसका शरीर उसके काबिल ही नहीं रहता, शरीर में परिवर्तन हो जाता है। जैसे गंदी बस्ती के झोंपड़े हटाकर नगरपालिका वहाँ सिपाही तैनात कर देती है ताकि लोग वापस वहीं जम न जायें। जब वे लोग कहीं अन्यत्र व्यवस्था कर लेते हैं तब पुलिस वहाँ से हटा ली जाती है। वैसे ही प्रकृति व्यवस्था करके मृत प्राणियों को मूर्च्छित सा कर देती है। उनका सूक्ष्म शरीर थोड़े समय तक उसी क्षेत्र में घूमता है लेकिन उस स्थूल शरीर में वह प्रवेश नहीं कर पाता।

जीवात्मा ज्यादा समय तक सूक्ष्म शरीर में न भटके, इसके लिए सनातन धर्म में कई व्यवस्थाएँ की गयी हैं। ऐसी ही एक व्यवस्था यह भी है कि जब किसी शव को शमशान में जलाकर दागी घर आते हैं तो उनसे पूछा जाता हैः

“आप कौन हो ?”

वे कहते हैं- “हम दागिये हैं।”

“यहाँ से गये थे तब पाँच थे। अभी कितने हो ?”

वे कहते हैं- “चार।”

फिर पूछते हैं- “पाँचवा कहाँ गया ?”

वे कहते हैं- “वह तो स्वर्ग चला गया है।”

ये प्रश्नोत्तर किये जाते हैं ताकि वह मृत जीव सूक्ष्म शरीर से यदि उनके इर्द-गिर्द भटकता हो तो सचमुच में स्वर्ग की यात्रा पर चला जाये। इस प्रकार सनातन धर्म में जीवात्मा की उन्नति के लिए की प्रकार की व्यवस्थाएँ की गई हैं।

यात्रा में चलते-चलते कई रात्रियाँ नींद भी करनी पड़ती है तो कई रात्रियाँ चलना भी पड़ता है। ऐसे ही मृत्यु भी एक यात्रा है। जितनी बार जन्म होता है, उतनी ही बार आराम करने के लिए मृत्यु भी होती है। अगर मृत्युरूपी नींद नहीं होती तो हर जन्म के ʹमेरे-तेरेʹ के संस्कार, लेन-देन के संस्कार मनुष्य को पागल कर देते। संसार एक पागलखाना हो जाता।

अगर माली बगीचे में काट-छाँट नहीं करे तो बगीचा जंगल में बदल जाये। ऐसे ही ईश्वररूपी माली अगर इस संसाररूपी बगीचे में मृत्यु के बहाने काट-छाँट नहीं करे तो यह संसार भयानक जंगल जैसा हो जाये। इसलिए मृत्यु बहुत जरूरी है। जैसे, आदमी तेज गर्मी के कारण पसीने से तरबतर हो गया हो और शीतल जल में डुबकी लगाये तो तरोताजा होकर बाहर निकालता है, ऐसे ही मृत्युरूपी महा निद्रा में गोता मारकर जीव पुरानी झंझटों, तनावों आदि को भूल जाता है, तरोताजा हो जाता है और नये सिरे से अपनी जीवन-यात्रा का आरम्भ करता है।

मृत्यु एक ईश्वरीय वरदान है, फिर भी यदि कोई जान-बूझकर आत्महत्या करता है तो यह महापाप है। परमात्मा ने हमें यह अमूल्य मानव-चोला दिया है तो हमारा कर्त्तव्य है कि हम इसे साफ-सुथरा रखें, इसे स्वस्थ-तंदुरुस्त रखें। ऐसा नहीं कि मृत्यु जरूरी है तो अनाप-शनाप खाकर मौत को आमंत्रण दें। यद्यपि कपड़ा मैला होता है, गलता है, फटता है लेकिन उसे जान-बूझकर फाड़ देना तो बेवकूफी है। ऐसे ही शरीर बूढ़ा होता है, बीमार होता है, मरता है – यह प्रकृति की व्यवस्था है लेकिन इसे जान-बूझकर मौत के मुँह में ढकेलना ठीक नहीं।

पूर्णता के शिखर पर पहुँचने के लिए जन्म मृत्यु मानों सीढ़ियों के समान हैं। दिन जितना प्रिय है, रात भी उतनी ही प्यारी है। जीवन जितना प्रिय है, विवेकीजनों को मृत्यु का सिलसिला भी उतना ही प्यारा है। वे इससे दुःखी नहीं होते हैं। जिसका विवेक मरा हुआ है वह तो जीते-जी मरा हुआ है, मगर जिसका विवेक जाग्रत है वह मृत्यु के समय भी नहीं मरता वरन् अमर हो जाता है।

जीवन जीना तो कला है ही, मरना भी एक कला है। मनुष्य को चाहिए कि मौत आ जाये तो वह रोये नहीं, फिक्र न करे वरन् उस समय सावधान हो जाये। यदि कोई मृत्यु के करीब हो तो उसके पास अमरता भरे उच्चारण करो किः “तुम्हारी मौत नहीं हो रही है…. मौत हो रही है मरने वाले शरीर की। तुम शरीरी हो, शरीर नहीं हो। तुम कार के चालक हो, कार नहीं हो। तुम देह नहीं वरन् देह को चलाने वाले विदेही आत्मा हो।”

मृत्यु के बाद कहो किः “यह शरीर जो मरा पड़ा है वह तुम नहीं हो। तुम तो शरीर की मौत के बाद भी वातावरण में विद्यमान हो। तुम हमें देख रहे हो किन्तु हम तुम्हें नहीं देख पा रहे हैं। तुम्हारी सूक्ष्म इन्द्रियाँ जगी हैं, हमारी स्थूल इऩ्द्रियाँ हैं इसलिए तुम हमें देख सकते हो, हम तुम्हें नहीं देख सकते। अब तुम्हें यह प्रेरणा देते हैं कि हाड़-माँस का ऐसा शरीर तुमने पहले भी कई बार पाया और कई बार छोड़ा। अब एक बार और छोड़ दिया। अब तो तुम ऐसी यात्रा करो कि तुम्हें बार-बार शरीर में न आना पड़े। अब तो तुम अपनी आत्मा को पहचानकर परमात्मा से मुलाकात करो और मुक्त हो जाओ…. ૐ….. ૐ…. ૐ… तुम चैतन्यस्वरूप हो… तुम साक्षीस्वरूप हो… तुम भगवान के सनातन अंश हो… तुम अजन्मा आत्मा हो।”

यदि आप मृतात्मा को ऐसी प्रेरणा देते हैं तो उसका कल्याण तो उसी क्षण हो जायेगा और आपके कुटुम्ब में भी सुख-शांति छा जायेगी। यही तो मंगल मृत्यु है। ऐसी मृत्यु का स्वागत करके अमर हो जाओ। आखिर कब तक रोते रहोगे ? कब तक परेशान होते रहोगे ?

…और वास्तव में देखा जाये तो आपकी मृत्यु कभी होती ही नहीं है, मरने का कोई उपाय ही नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी जैसा चिन्तन करता है, वैसा ही हो जाता है। यदि कोई सौ बार झूठी कल्पना भी करे तो वैसी कल्पना सच में भी घट सकती है लेकिन मरने की आप लाख बार चेष्टा करो फिर भी नहीं मरते क्योंकि आप एक ऐसा सत्य हो कि वहाँ मृत्यु पहुँच नहीं सकती। यदि मृत्यु आपके आत्मस्वरूप में आये तो वह भी अमर हो जाये।

कोई कह सकता है किः “महाराज ! सारी दुनिया मर रही है। समय पाकर हम भी तो मर जायेंगे।ʹ

परन्तु भैया ! आपने अपनी मृत्यु कभी देखी ही नहीं है। यदि आपने अपनी मृत्य देखी होती तो हजार बार आपका शरीर मरा, उसके साथ आप भी मर जाते। किन्तु ऐसा नहीं होता। दूसरे के शरीर को छूटते हुए देखकर हम कह देते हैं कि हमने मृत्यु देखी है और हम भी मरेंगे। मृत्यु की यह मान्यता हम बना लेते हैं लेकिन जिस आदमी का शव पड़ा होता है वह भी सचमुच मरता नहीं है बल्कि गहरा बेहोश हो जाता है। उसका सूक्ष्म शरीर निकल जाता है और उसकी आगे की यात्रा होने लगती है – मुक्ति की अथवा लोक-लोकान्तरों की यात्रा, कर्म एवं वासनानुसार ऊँच-नीच योनियों में अथवा भगवद् धाम में। जैसे उसके कर्म, भाव, इच्छा की प्रधानता तैसी उसकी यात्रा। अगर कर्म निष्काम हैं, ध्यान-भजन करके भाव ऊँचे कर लिये हैं और तत्त्वज्ञान सुनकर वासनाओं को बाधित कर दिया है, तो फिर उस आत्मारामी जीवन्मुक्त को किसी शरीर में, लोक-लोकान्तर में अथवा भगवद् धाम में जाना नहीं पड़ता। अखिल ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म तत्त्वों में विलीन हो जाता है और स्वयं व्पाप जाता है, परमेश्वर-स्वभाव में एकाकार हो जाता है।

चंदा को चाँदनी, सूरज को तेज, जल को रस, पृथ्वी को गन्ध, हवाओं को स्पर्श की सत्ता जिस परम चैतन्य से मिलती है, उस आत्मब्रह्म में वह आत्मवेत्ता, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष एक हो जाता है। जिसके ध्यान, आनंद और सामर्थ्य से ब्रह्मा, विष्णु, महेश और अन्य देव समर्थ हैं वह परम समर्थ तत्त्व सच्चिदानंदस्वरूप है। जैसे बिन्दु सिन्धु में मिलकर सिन्धु हो जाता है, जैसे घटाकाश महाकाश में मिलकर महाकाश हो जाता है वैसे ही वह जीव ब्रह्म में मिलकर ब्रह्म हो जाता है। वासना और कर्म के वशीभूत होकर निगुरे लोग, शास्त्र-विरूद्ध रास्ते पर चलने वाले लोग नरक और ऊँच-नीच योनियों में जाते हैं जबकि भक्त एवं गुरुमुख लोग यक्ष, गन्धर्व, देव आदि योनियों एवं स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होते हैं। दृढ़ भगवद् भक्त भगवद् धाम में  पहुँचते हैं और उनकी जैसी इच्छा एवं कर्मानुकूलता होती है, समय पाकर फिर वैसी यात्रा होती है। जीव का यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक जीव अपने ब्रह्मस्वरूप को नहीं जान लेता। स विषय को बार-बार पढ़ो, समझो और सोचो तथा पूर्णता को पाने का पूर्ण पुरुषार्थ करो। पूर्णता पाना कठिन नहीं, पर जिन्हें कठिन नहीं लगता उनमें श्रद्धा-विश्वास बने रहना कठिन है। माता देवहूति ने श्रद्धा-विश्वास से जहाँ आत्मसिद्धि पायी, वह स्थान आज गुजरात राज्य में सिद्धपुर के नाम से विख्यात है। कार्तिक क्षेत्र का बिन्दु सरोवर अभी भी माता देवहूति की श्रद्धा-विश्वास की सुवास फैला रहा है। माता देवहूति ने अपने अपने आत्मसाक्षात्कारी, आत्मारामी पुत्र कपिलदेव में श्रद्धा विश्वास करे ऊँची स्थिति पायी, आत्मसिद्धि पायी।

जैसे, जब शल्यक्रिया की जाती है तब ʹक्लोरोफॉर्मʹ आदि सूँघाकर मरीज को बेहोश कर दिया जाता है और उसकी किडनी आदि बदल दी जाती है। ऐसे ही प्रकृति बड़ी-से-बड़ी शल्यक्रिया करती है और पूरा शरीर ही बदल देती है। मनुष्य के कर्मानुसार उसे घोड़ा, गधा या चूहा आदि किसी भी शरीर में बदल देती है। इसीलिए आदमी एक मुहूर्त के लिए बेहोश हो जाता है, उसे मूर्च्छा आ जाती है लेकिन उसकी मृत्यु नहीं होती।

जो लोग मूर्च्छा में मरते हैं उऩका मरना जारी रहता है और वे अपने को मरणधर्मा मानते हैं लेकिन जिन्होंने फकीरों की कृपा प्राप्त कर ली है, जो फकीरों के श्रीचरणों तक पहुँच चुके हैं वे सजाग हो जाते हैं। वे मृत्यु को भी उसी तरह देख लेते हैं जैसे मनुष्य अपने शरीर या शरीर के दर्दकारक अंग को देख पाता है। उसी प्रकार वे मृत्यु को भी शरीर पर घटते हुए देख लेते हैं। जो मृत्यु को भी होश के साथ देख लेते हैं वे अमर हो जाते हैं और जो बेहोश हो जाते हैं वे मरते ही रहते हैं।

आत्मसाक्षात्कार का अर्थ है कि होश से जियें, सजग होकर जियें। जो होश से जी सकता है वह होश से मर भी सकता है। उसका मरना भी मरना नहीं होता वरन् वह अमर हो जाता है, लेकिन जो बेहोशी में जीता है, वह मरता रहता है।

बेहोशी क्या है ? जैसा अहं का वेग आये, वैसा ही करने लगे। मन में जैसी धारणा बनी या बुद्धि ने जैसा निर्णय दिया वैसा ही काम करने लगे, यह बेहोशी है। होश क्या है ? धारणा, ध्यान, समाधि, प्राणायाम, आत्मविचार आदि करते हुए अपनी असलियत को जान लेना, अपने अहं का विसर्जन कर देना, यह होश है। शाह लतीफ कहते हैं किः

जे भाई जोगी थियां, तमा छद् तमाम।

सबूर जे शमशेर सां कर कीन्हे खे कतलाम।।

अगर आपको होश से मरना है तो योगी बनो और योगी होना है तो जो तमन्नाएँ स्फुरती हैं उन्हें हटाते जाओ। जो-जो इच्छाएँ उठती हैं उऩ्हें हटाते जाओ। तमन्नाएँ छोड़कर सब्र करो तो यह संभव है कि आप विराट से मिल सकते हो, आप विराट में विसर्जित हो सकते हो।

गोला जे गोलन्ह जा, तिनजो थिऊ गुलाम।

नागा तुहिंजो नाव, लिख जे लाहू तिन में।।

अर्थात् ʹसच्चे संतों के दासों के दास बन जाओ।ʹ

यदि आप सब दुःखों से छूटना चाहते हो, यदि आप परम ओज को प्राप्त करना चाहते हो तो इच्छाओं के गुलाम मत बनो, इच्छाओं के पीछे मत भागो, वरन् इच्छाओं के भी द्रष्टा हो जाओ।

अनेक इच्छाएँ उठती रहती हैं। उनमें पचासों इच्छाएँ तो व्यर्थ की होती हैं, थोड़ी ही धर्म के अनुकूल होती हैं। जो इच्छाएँ धर्म के अनुकूल हों एवं आपकी उन्नति में सहायक हों उन्हें सहयोग दो, उन्हें पूरी करने में शक्ति और समय लगाओ लेकिन जो इच्छाएँ आपकी उन्नति एवं धर्म के खिलाफ हों उन इच्छाओं को उठते ही हटा दो।

जो इच्छाओं-वासनाओं के पीछे नहीं भागता, वरन् उनका द्रष्टा हो जाता है वह असंगता का शस्त्र लेकर दृढ़ता से इच्छाओं का छेदन कर डालता है और ऐसी जगह पर पहुँच जाता है, जहाँ से फिर उसे जन्म-मरण के चक्र में नहीं आना पड़ता। उसकी मृत्यु भी अमरता में परिणत हो जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 2-6, अंक 84

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *