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जीवन की सहजता


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जो सहज जीवन जीता है, उसका जीवन खूब सरल एवं आनन्द से परिपूर्ण होता है। मूर्ख एवं अहंकारी लोग जीवन को जटिल बना देते हैं। उनका जीवन अपने तथा औरों के लिए समस्या बन जाता है।

तीन प्रकार के लोग होते हैं- एक वे होते हैं जो ʹयह करूँ…. यह न करूँ…. यह छोड़ूँ…. यह पकड़ूँ…..ʹ ऐसी मान्यता रखते हैं। दूसरे प्रकार के वे लोग होते हैं जो कुछ भी करके अपने को बड़ा दिखाना चाहते हैं। ऐसे लोगों का जीवन उलझा हुआ होता है अथवा अधमतापूर्वक नष्ट होता है। तीसरे प्रकार के वे लोग होते हैं जो अपना व्यवहार इस ढंग से करते हैं कि जहाँ हैं, जैसे हैं, ठीक हैं। व्यवहार में अनाग्रहपूर्ण बुद्धि रखकर जीवन के रहस्य को, जीवन के छुपे खजाने को प्राप्त करने में अपना जीवन बिताते हैं, उनका जीवन सार्थक है।

जिसे कुछ बनने की, कुछ करने की इच्छा होती है वे तो किसी-न-किसी प्रकार के आग्रह से घिरे ही रहते हैं। कोई अपने को तपस्वी मानता हो। उसके पास यदि आप जाओ तो वह आपको कहेगा कि ʹबीड़ी सिगरेट छोड़ दो, मांस-मछली-अण्डे छोड़ दो…।ʹ आपने यह सब छोड़ा हा है तो कहेगा कि ʹलहसुन, प्याज छोड़ दो।ʹ आप ये छोड़कर आगे बढ़ना चाहोगे तो कहेगा कि ʹतीन बार भोजन करते हो तो दो बार ही करो।ʹ आप दो बार खाने लगोगे तो कहेगा कि ʹअब एक वक्त का भोजन बंद कर दो।ʹ एक बार खाते होगे तो कहेगा कि ʹनमक बंद कर दोʹ। आप वह भी बन्द कर दोगे तो कहेगा कि ʹअनाज छोड़ दो। अब फलाहार करने लगो।ʹ छोड़ो….. छोड़ो…. छोड़ते जाओ… छोड़ते जाओ…. फिर कहेगा कि ʹफल खाते हो, तपस्वी हो तो अब संसार में क्या रहना ? पत्नी और बच्चों को भी छोड़ दो।ʹ मान लो, वह भी छूट गया तो कहेगा कि ʹसब छूट गया, अब वस्त्रों को भी छोड़ दो। कौपीन पहनो।ʹ

जीवन जीने का यह एक मार्ग हैः त्याग….त्याग….त्याग…

जिन्होंने सब छोड़ दिया है, जो केवल कौपीन पहनते हैं, फलाहार अथवा भिक्षा पाते हैं एवं ईश्वर का चिंतन करते हैं उनके जीवन में यदि सत्संग नहीं है तो कोई दिव्य संगीत नहीं होता। जीवन में जो दबा हुआ होता है, वह कभी-कभार समय पाकर प्रगट हो जाता है कि ʹतू मुझे नहीं जानता, मैं कबसे घर-बार छोड़कर यहाँ बैठा हूँ ? संसारी लोग क्या जानें कि भजन क्या होता है ? तपस्या क्या होती है ? मैं लहसुन नहीं खाता, प्याज नहीं खाता…. मैंने बार-बच्चों को छोड़ दिया, पत्नी को छोड़ दिया…. मैं कोई जैसा-तैसा साधु थोड़े ही हूँ ? मेरे आगे तू क्या डींग मारता है?ʹ

अच्छा है, ठीक है कि छोड़ पाये हो, लेकिन छोड़कर आने की याद चित्त में अभी तक बनी हुई है। यह उचित नहीं है। अपने अहंकार को सजाने के लिए जो कुछ करते हो वह अनुचित है। आपके पास चीज-वस्तुएँ, रूपये पैसे होना कोई खराब बात नहीं है लेकिन दूसरों का शोषण करके, दूसरों को सताकर एकत्रित की गयी अथवा जिनका सदुपयोग न किया जा सका हो ऐसी चीजों, रुपयों पैसों का होना न होना बराबर ही है।

कुछ वर्ष पहले किसी व्यक्ति ने मुझे बताया किः “चार गधे लेकर जो आदमी यहाँ रोड पर काम करता था, उसके पास अब 25-30 लाख रूपये हैं लेकिन उसकी पत्नी हमारी कॉलोनी में 10-10 पैसे में नींबू बेचती है।”

बाह्य पदार्थ पाकर तो हम खूब ऊँचे दिखते हैं लेकिन समझ नहीं होती तो भीतर से हम खूब नीचे रह जाते हैं। अंदर या बाहर से न ऊँचे दिखने की कोशिश करो, न अपने को नीचा मानने की भूल करो। दिखना-मानना, यह सब सापेक्ष है। अपने को ऊँचा तब मानोगे, जब दूसरे को नीचा मानोगे। अपने को नीचा तब मानोगे जब दूसरे को ऊँचा मानोगे। लव-कुश आपके आगे बहुत अच्छे लगेंगे, बड़े समर्थ लगेंगे लेकिन श्रीराम के आगे उतने बड़े व समर्थ नहीं लगेंगे। तहसीलदार किसी  क्लर्क के आगे बड़ा दिखेगा लेकिन कलेक्टर के पास जाये तो छोटा दिखेगा। कलेक्टर मंत्री के आगे छोटा लगेगा। वह मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री के आगे छोटा लगेगा।

बड़ों के आगे आप छोटे हो जाते हो और छोटों के आगे आप बड़े बन जाते हो। मूर्ख के आगे आप विद्वान लगते हो परन्तु अपने से अधिक विद्वान के आगे आप मूर्ख लगते हो। यह सापेक्ष दृष्टि है और सापेक्ष दृष्टि में हमेशा भय, घृणा, लज्जा आदि बने ही रहते हैं।

एक सुनी हुई घटना है, एक फौजी था। उसी पदोन्नति होते-होते वह कमाण्डर बन गया। जब वह परेड लेने जात अथवा कहीं घूमने जाता, तब दूसरे फौजी उसे सलाम करते। उनके सलाम करने पर कमाण्डर के मुख से स्वाभाविक ही निकल जाता किः “ऐसे ही तो करते हो !”

उसके निकट के दो अंगरक्षक बार-बार यह सुनते। वे आपस में कहते किः “जब भी कमाण्डर को कोई सलाम करता है तो उनके मुख से स्वाभाविक ही निकल जाता है कि ʹऐसे ही तो करते हो !ʹ इसका क्या कारण है ?” आखिर एक दिन उन्होंने अपने कमाण्डर से पूछ ही लियाः “साहब ! पिछले काफी समय से हम आपके साथ रह रहे हैं। जब कोई आपको सलाम करता है तब आप उसके ऊपर नाराज हो जाते हैं एवं कहते हैं किः ʹऐसे ही तो करते हो !ʹ इसका कारण क्या है ?”

कमाण्डर ने कहाः “इसका एक ही कारण है। मैं भी पहले सिपाही था। सलाम कर-करके बड़े पद पर पहुँचा हूँ। मैं जब सिपाही था, तब कोई साहब आता तो मुझे जबरदस्ती सलाम करनी पड़ती थी। ʹवे कब यहाँ से जायें ?ʹ इस भाव से, बिना प्रेम के उन्हें सलाम करता था। अब सभी मुझे सलाम करते हैं तो मुझे लगता है कि ये सब भी मुझे आदर नहीं देते, मुझे सलाम नहीं मारते, वरन् इस पद को सलाम करते हैं। वह भी करना पड़ता है, इसलिए करते हैं। इसीलिए मेरे मुँह से ʹऐसे ही तो करते होʹ – यह स्वाभाविक निकल जाता है।”

जीवन में जो भी प्रेम बिना का होगा, वह लेने वाला को भी बोझा लगेगा और देनेवाले को भी आनंद नहीं आयेगा। जो कुछ होगा, उसमें अहंकार की दुर्गंध आयेगी। लेकिन जिसके जीवन में हृदय की विशालता होगी, शुद्ध प्रेम होगा, उसका जीवन खिल उठेगा, सहज आनंदस्वभाव से परितृप्त हो उठेगा। फिर ʹयह करना है… यह छोड़ना है… यह पाना है….ʹ आदि नहीं बचेगा। जो भी करना होगा, वह सहज स्वाभाविक होता जायेगा। ऐसा जीवन जीने वाला ही अपने सहज स्वरूप को पा लेता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 83

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क्या गुरु बनाना आवश्यक है ?


ब्रह्मलीन ब्रह्मनिष्ठ स्वामी श्री अखण्डानंद सरस्वतीजी महाराज से किसी ने पूछाः “क्या मनुष्य को आत्मिक सुख व शांति के लिए गुरु बनाना आवश्यक है ?”

उन्होंने उत्तर देते हुए कहाः “भाई साहब ! जब आपको कोई जरूरत मालूम नहीं पड़ती है, तब  आप क्यों इस चक्कर में पड़ते हैं ? हाँ, जब आपके भीतर से आवाज आये कि ʹगुरु बनाने की जरूरत है…ʹ तब बना लेना। देखो कि आपको संतोष कहाँ है। यदि गुरु न बनाने का संतोष आपके मन में होता, तो यह प्रश्न ही नहीं उठता कि गुरु बनाना आवश्यक है कि नहीं।

गुरु बनाना कोई बहुत आसान बात नहीं है कि जिस किसी ने कोई मंत्र बता दिया, जप बता दिया और आप उस रास्ते पर चल पड़े। जब सत्संग करेंगे तब समझेंगे कि गुरु क्या होता है, शिष्य क्या होता है और दोनों का सम्बन्ध क्या होता है। यह बात समझनी पड़ेगी।

आखिर पति-पत्नी का ब्याह ही तो होता है ना ? कहाँ वे एक साथ पैदा होते हैं, कहाँ-कहाँ से आते हैं, मिलते हैं, साथ रहते हैं फिर भी पति-पत्नी का इतना गम्भीर सम्बन्ध हो जाता है कि एक-दूसरे के लिए मरते हैं। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी इससे कुछ हल्का नहीं है। यह तो उससे भी गम्भीर है, बहुत गम्भीर है। जैसे पति-पत्नी के सम्बन्ध का निर्वाह करना कठिन होता है, वैसे ही गुरु शिष्य के सम्बन्ध का निर्वाह करना भी कठिन होता है।

….तो, जब तक गुरु की  आवश्यकता स्वयं को नहीं मालूम पड़ती, तब तक दूसरे के बताने से क्या होगा ? …..और वैसे देखो तो आवश्यता का प्रमाण यही है कि आप पूछ रहे हैं- “गुरु बनाने की आवश्यकता है क्या ?ʹ कहीं-न-कहीं चित्त में खटका होगा, कहीं-न-कहीं संस्कार भी होगा ही। …तो, जब तक आपको कुछ पूछने की, कुछ जानने की जरूरत है, कुछ होने की, कुछ बनने की जरूरत है, जब तक आपके मन में किसी वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रश्न है तब तक आपको किसी जानकार से से उसके बारे में सच्चा ज्ञान और सच्चा अनुभव प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।”

प्रश्नः “संत भगवदस्वरूप हैं और संत में ही गुरु भगवान निवास करते हैं, यह बात कृप्या समझाएँ।”

उत्तरः “देखो भाई ! संत तो बहुत से होते हैं – हजार, दो हजार, दस हजार, लाख। सन्मात्र भगवान किसमें प्रकट नहीं हैं ? अर्थात् सबमें हैं। परंतु संत और गुरु में फर्क यह होता है कि जैसे गण्डकी नदी में, उसके उदगम के पास बहुत से गोल-गोल पत्थर  मिलते हैं, वे सब शालिग्राम हैं। जब हम अपने लिए शालिग्राम ढूँढने के लिए जाते हैं, तब कई शालिग्राम हमारे पाँव के नीचे आते हैं और कइयों को उठाकर हम हाथ में लेकर फिर छोड़ भी देते हैं। …तो जैसे, गण्डकी की शिलाएँ सब शालिग्राम होने पर भी हम अपनी पूजा  के लिए एक शालिग्राम चुनकर लाते हैं। इसी प्रकार हजारों लाखों, अनगिनत संतों के होने पर भी उनमें से हम अपनी पूजा के लिए, अपनी उपासना के लिए, अपने ज्ञान-ध्यान के लिए किसी एक संत की चुन लें तो इन्हीं संत का नाम ʹगुरुʹ होता है।

पुरुष सब हैं, पर कन्या का ब्याह एक से ही होता है न ? अब जो यह एक गुरु के साथ सम्बन्ध की बात है, वहाँ भगवान गुरु के द्वारा मिलते हैं।

एक सज्जन थे। वे एक पण्डित जी के पास जाकर उनको बहुत परेशान करते थे किः ʹहमको दीक्षा दे दो…. हमको भगवान का दर्शन करा दो….ʹ पण्डितजी रोज-रोज सुनते-सुनते थक गये और चिढ़कर उन्होंने भगवान का एक नाम बता दिया और कहा कि यह नाम लिया करो। अब वे सज्जन रोज आकर पूछने लगे कि “हम ध्यान कैसे करें ? भगवान कैसे होते हैं ?”

अब पण्डितजी और चिढ़ गये एवं बोलेः “भगवान बकरे जैसे होते हैं।” अब वे सज्जन जाकर बकरे भगवान का ध्यान करने लगे। उनके ध्यान से, उनकी निष्ठा से और गुरुआज्ञा-पालन से भगवान उनके पास आये और बोलेः “लो भाई, जिसका तुम ध्यान करते हो, वह मैं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी-पीताम्बरधारी तुम्हारे सामने खड़ा हूँ।”

इस पर वे सज्जन बोलेः “हमारे गुरुजी ने तो बताया था कि भगवान बकरे की शक्ल के होते हैं और तुम तो वैसे हो नहीं। हम तुमको भगवान कैसे मानें ?”

अब तो भगवान भी दुविधा में पड़ गये। फिर बोलेः “अच्छी बात है… लो, हम बकरा बन जाते हैं। तुम उसी को देखो और उसी का ध्यान करो।”

अब भगवान उसके सामने ही बकरा बन गये और उससे बात करने लगे। फिर वे सज्जन बोलेः “देखो, मुझे तुम बहुरूपिया मालूम पड़ते हो। कभी आदमी की तरह तो कभी बकरे की तरह। हम कैसे पहचानें कि तुम भगवान हो कि नहीं ? इसलिए हमारे गुरुजी के पास चलो। जब वे पास कर देंगे कि तुम ही भगवान हो तब हम मानेंगे कि हाँ, तुम भगवान हो।”

भगवान बोलेः “ठीक है….. चलो।”

फिर वे सज्जन बोलेः “ऐसे नहीं…. ऐसे चलोगे और रास्ते में कहीं धोखा देकर भाग गये तो ? मैं गुरु जी के सामने झूठा पडूँगा। इसलिए ऐसे नहीं….. मैं तुम्हें कान पकड़कर ले चलूँगा।”

भगवान बोलेः “ठीक है।” अब वे सज्जन गुरु जी के पास बकरा भगवान को उनका कान पकड़कर ले गये और बोलेः “गुरु जी ! देखिये, यह भगवान है कि नहीं ?” गुरु जी तो हक्के बक्के हो गये कि हमने तो चिढ़कर बताया था और ये सच मान बैठे !

अब वे सज्जन बकरे भगवान से बोलेः “अब बोलो, चुप क्यों हो ? वहाँ तो बड़ा सुन्दर रूप दिखाया था, बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे और अब यहाँ चुप हो ? अब बोलो कि भगवान मैं भगवान हूँ और दिखाओ भगवान बनकर।”

फिर भगवान ने उनको भगवान बनकर दर्शन दिया।

….तो ये गुरु लोग जो होते हैं, वे किसी को शिव के रूप में भगवान देते हैं, किसी को नारायण के रूप में भगवान देते हैं। सिर्फ उपदेश करने वाले का नाम ʹगुरुʹ नहीं होता है। गुरु तो वे हैं, जो तुमको गुरु बना दें और तुम लोगों को भगवान का दर्शन करा सकें। गुरु की महिमा अदभुत है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 24,25,26 अंक 83

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आज का युग जेट युग है


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

आज के युग को जेट युग कहते हैं। आज कल जो कुछ होता है सब ʹफास्टʹ (तीव्र गति से) होता है। पहले के जमाने में माताओं-बहनों को रोटी बनानी होती थी तो चूल्हें में गोबर के कण्डे डालतीं, लकड़ियाँ रखतीं, फिर फूँक-फूँककर चूल्हे जलातीं। फूँक-फूँककर थक जातीं, धुएँ के कारण आँखों में आँसू आ जाते, तब कहीं चूल्हा जलता फिर रोटी पकातीं। बड़ी मुश्किल से वे रसोईघर का काम निपटा पाती थीं और आज… उठाया लाइटर, गैस का बटन घुमाया और गैस चालू… 15-20 मिनट में भोजन तैयार।

संदेश भेजने के लिए भी पहले कबूतरों से काम लिया जाता था। कबूतर पालो, उसे काम सिखाओ, फिर जब कभी जरूरत पड़े तो उसके गले में चिट्ठी डालो। वह उड़ता-उड़ता जाये, कब पहुँचे, कब संदेश वापस लाये… कोई पता नहीं। इस प्रकार कई दिन लग जाते थे। या तो कोई विश्वासपात्र व्यक्ति चिट्ठी लेकर घोड़े से जाता और जवाब लेकर वापस आता। उसमें से भी कई दिन निकल जाते थे। अब तो उठाओ फोन, दबाओ बटनः ʹहेलो ! मैं अमुक जगह से बोल रहा हूँ। मुझे अमुक बात करनी है… इतना काम हुआ है, इतना करना है….।ʹ बस, हो गयी बात। संदेश भी पहुँचा, उत्तर भी मिला और योजना भी बन गई।

इसी प्रकार पहले के जमाने में लोगों को कहीं जाना होता था तो ज्यादातर लोग पैदल चलकर जाते थे। कुछ लोग बैलगाड़ी या घोड़े का उपयोग करते थे, फिर भी उसमें आने जाने में काफी समय लगता था। आज कल स्कूटर, टैक्सी, बस, रेल की सुविधा तो है ही, परन्तु जो और जल्दी से कहीं पहुँचना चाहता है वह हवाई जहाज का उपयोग भी कर लेता है। उनमें भी जेट विमान की यात्रा ज्यादा ʹफास्टʹ होती है। इसलिए आज के युग को ʹजेट युगʹ कहते हैं।

आज के इस फास्ट युग में जैसे हम भोजन पकाने, कपड़े धोने, यात्रा करने, संदेश भेजने आदि व्यावहारिक कार्यों में फास्ट हो गये हैं, वैसे ही क्यों न हम प्रभु का आनंद, प्रभु का ज्ञान पाने में भी फास्ट हो जायें ?

पहले का जीवन शांतिप्रद जीवन था, इसलिए सब काम शांति से, आराम से होते थे एवं उनमें समय भी बहुत लगता था। लोग भी दीर्घायु होते थे। लेकिन आज हमारी जिंदगी इतनी लंबी नहीं है कि सब काम शांति और आराम से करते रहें। सतयुग, त्रेता, द्वापर में लोग हजारों वर्षों तक जप-तप-ध्यान आदि करते थे, तब प्रभु को पाते थे। किन्तु आज के मनुष्य की न ही उतनी आयु है, न ही उतनी सात्त्विकता, पवित्रता और क्षमता है कि वर्षों तक माला घुमाता रहे और तप करता रहे। अतः आज की इस ʹफास्ट लाइफʹ में प्रभु की मुलाकात करने में भी फास्ट साधनों की आदत डाल देनी चाहिए। उस प्यारे  प्रभु से हमारा तादात्म्य भी ऐसा फास्ट हो कि,

दिले तस्वीरे है यार ! जबकि गर्दन झुका ली और मुलाकात कर ली….

बस, आप यह कला सीख लो। आप पूजा कक्ष में बैठें, तभी आपको भक्ति, ज्ञान या प्रेम का रस आये ऐसी बात नहीं है। वरन् आप घर में हों या दुकान में, नौकरी कर रहे हों या फुर्सत में, यात्रा में हो या घर के किसी काम में….. हर समय आपका ज्ञान, आनंद एवं माधुर्य बरकरार रह सकता है। युद्ध के मैदान में अर्जुन निर्लेप नारायण तत्त्व का अनुभव कर सकता है तो आप भी चालू व्यवहार में उस परमात्मा का आनंद-माधुर्य क्यों नहीं पा सकते ? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-

तन सुकाय पिंजर कियो, धरे रैन दिन ध्यान।

तुलसी मिटे न वासना, बिना विचारे ज्ञान।।

शरीर को सुखाकर पिंजर कर देने की भी आवश्यकता नहीं है। व्यवहार काल में जरा-सी सावधानी बरतो और कल्याण की कुछ बातें आत्मसात् करते जाओ तो प्रभु का आनंद पाने में कोई देर नहीं लगेगी।

तीन बातों से जल्दी कल्याण होता हैः

पहली बातः सच्चे हृदय से हरि का स्मरण।

तुलसीदास जी ने कहा हैः

भाँय कुभाँय अनख आलसहूँ।

नाम लेत मंगल दिसि दसहूँ।।

भाव से, कुभाव, क्रोध से, आलस्य से भी यदि हरि का नाम लिया जाता है तो दसों दिशाओं में मंगल होता है। अतः सच्चे हृदय से हरि का स्मरण करने से कितना कल्याण होगा।

जपात सिद्धिः जपात सिद्धिः जपात सिद्धिर्न संशयः।

जब करते रहो…. हरि का स्मरण करते रहो…. इससे आपको सिद्धि मिलेगी। आपका मन सात्त्विक होगा, पवित्र होगा और भगवदरस प्रगट होने लगेगा।

दूसरी बातः प्राणीमात्र का मंगल चाहो। यहाँ हम जो देते हैं, वहीं हमें पाताल मिलता है और कई गुना होकर मिलता है। यदि आप दूसरों को सुख पहुँचाने का भाव रखेंगे तो आपको भी अऩायास ही सुख मिलेगा। अतः प्राणीमात्र को सुख पहुँचाने का भाव रखो।

तीसरी बातः अपने दोष निकालने के लिए तत्पर रहो। जो अपने दोष देख सकता है, वह कभी-न-कभी दोषों को दूर करने के लिए भी प्रयत्नशील होगा ही। ऐसे मनुष्य की उन्नति निश्चित है। जो अपने दोष नहीं देख सकता वह तो मूर्ख है लेकिन जो दूसरों के द्वारा सिखाने पर भी अपने दोषों को कबूल नहीं करता है वह महामूर्ख है और जो परम हितैषी सदगुरु के कहने पर भी अपने में दोष नहीं मानता है वह तो मूर्खों का शिरोमणि है। जो अपने दोष निकालने के लिए तत्पर रहता है वह इसी जन्म में निर्दोष नारायण का प्रसाद पाने में सक्षम हो जाता है।

जो इऩ तीन बातों का आदर करेगा और सत्संग एवं स्वाध्याय में रुचि रखेगा, वह कल्याण के मार्ग पर शीघ्रता से बढ़ेगा।

भगवान श्रीराम भी विद्यार्थी काल में जब धनुर्विद्या आदि सीखते थे तब विद्याध्ययन से समय निकालकर वशिष्ठजी महाराज के चरणों में ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुनते थे और चौदह वर्ष का वनवास मिला, तब भी भरद्वाज आदि संत-महात्माओं के सत्संग में बैठकर ब्रह्मविद्या का पान करते थे। भगवान श्रीकृष्ण भी सांदीपनि ऋषि के चरणों में बैठकर सत्संगामृत का पान करते थे। कबीरजी ने भी उस ब्रह्म-परमात्मा के रस का आस्वादन किया और उऩके चरणों में काशीनरेश कृतार्थ हुआ। नानकजी ने भी जीवन भर ब्रह्मविद्या का पान किया और अपने प्यारों को कराया। अब आप भी इस कलियुग में ब्रह्मरस का पान करके पावन होते जाओ।

जानिऊ तबहिं जीव जग जागा।

जब सम बिषय बिलास विरागा।।

ʹजगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए जब संपूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाये। जैसे, शरीर रोज गंदा हो जाता है तो पानी से स्नान करके उसे स्वच्छ कर लेते हैं, वैसे ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार आदि से मन मैला हो जाता है तो उसे सत्संग की वर्षा में स्नान कराके पवित्र कर लो। ज्यो-ज्यों पवित्रता बढ़ती जायेगी, त्यों-त्यों भीतर का आत्म-परमात्मरस छलकता जायेगा। जीवन हलका फूल जैसा हो जायेगा। चिंतारहित, अहंकाररहित, तनावरहित जीवन हो जायेगा। जिस वक्त जो काम करना हो, कर लिया आनंद से, उत्साह से। नींद आई तो सो गये और जाग गये तब भी वाह वाह…..। गोता मारकर अमृत पी लिया… देर किस बात की भैया ! यह ʹजेट युगʹ है। प्रभु का आनंद पाने का यह ʹजल्द युगʹ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 83

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