Yearly Archives: 1999

चार प्रकार के बल


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जीवन में सर्वांगीण उन्नति के लिए चार प्रकार के बल जरूरी हैं- शारीरिक बल, मानसिक बल, बौद्धिक बल, संगठन बल।

पहला बल है शारीरिक बल। शरीर तंदरुस्त होना चाहिए। मोटा होना शारीरिक बल नहीं है, वरन् शरीर स्वस्थ होना शारीरिक बल है।

दूसरा बल है मानसिक बल। जरा-जरा बात में गुस्सा हो जाना, जरा-जरा बात में डर जाना, चिढ़ जाना-यह कमजोर मन की निशानी है। जरा-जरा बात में घबराना नहीं चाहिए, चिंतित-परेशान नहीं होना चाहिए, वरन् अपने मन को मजबूत बनाना चाहिए।

तीसरा बल है बुद्धिबल। शास्त्र का ज्ञान पाकर अपना, कुल का समाज का, अपने राष्ट्र का एवं पूरी मानव जाति का कल्याण करने की जो बुद्धि है, वही बुद्धिबल है।

शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक बल तो हो किन्तु संगठनबल न हो तो व्यक्ति व्यापक कार्य नहीं कर सकता। अतः जीवन में संगठन बल का होना भी आवश्यक है।

ये चारों प्रकार के बल कहाँ से आते हैं ? इन सब बलों का मूल केन्द्र है आत्मा। अपना आत्मा-परमात्मा विश्व के सारे बलों का महाखजाना है। बलवानों का बल, बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वियों का तेज, योगियों का योग-सामर्थ्य सब वहीं से आते हैं।

ये चारों बल जिस परमात्मा से प्राप्त होते हैं उस परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना करनी चाहिए।

ʹहे भगवान ! तुझमें सब शक्तियाँ हैं। हम तेरे हैं, तू हमारा है। तू पाँच साल के ध्रुव के दिल में प्रगट हो सकता है, तू प्रह्लाद के आगे प्रगट हो सकता है….. हे परमेश्वर ! हे पाण्डुरंग ! तू हमारे दिल में प्रगट होना….ʹ

इस प्रकार हृदयपूर्वक, प्रीतिपूर्वक व शांत भाव से प्रार्थना करते-करते प्रेम और शांति में सराबोर होते जाओ। प्रभुप्रीति और प्रभुशांति सामर्थ्य की जननी है। संयम और धर्मपूर्वक इन्द्रियों को नियंत्रित रखकर परमात्मशांति में अपनी स्थिति बढ़ाने वाले को इस आत्म-ईश्वर की संपदा मिलती जाती है। इस प्रकार प्रार्थना करने से तुम्हारे भीतर परमात्मशांति प्रगट होती जायेगी और परमात्मशांति से आत्मिक शक्तियाँ प्रगट होती है जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं संगठन बल को बड़ी आसानी से विकसित कर सकती हैं।

हे विद्यार्थियों ! तुम भी आसन-प्राणायाम आदि के द्वारा अपने तन को तंदरुस्त रखने की कला सीख लो। जप-ध्यान आदि के द्वारा मन को मजबूत बनाने की युक्ति जान लो। संत महापुरुषों के श्रीचरणों में आदरसहित बैठकर उनकी अमृतवाणी का पान करके एवं शास्त्रों का अध्ययन कर अपने बौद्धिक बल को बढ़ाने की कुंजी जान लो एवं आपस में संगठित होकर रहो। यदि तुम्हारे जीवन में ये चारों बल आ जायें तो तुम्हारे लिए फिर कुछ भी असंभव न होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 26, अंक 82

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कर्म ही पूजा है


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्यं सिद्धिं विन्दति मानवः।।

ʹजिस परमात्मा से सर्वभूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है।ʹ (श्रीमद् भगवद् गीताः 18.46)

अपने स्वाभाविक कर्मरूपी पुष्पों द्वारा सर्वव्यापक परमात्मा की पूजा करके कोई भी मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो सकता है, फिर भले ही कोई बड़ा सेठ हो या छोटा-सा कोई गरीब व्यक्ति।

बिहार में मुंगेर और भागलपुर रोड के बीच एक  पक्का कुआँ मौजूद है जिसे ʹपिसजहारी कुआँʹ भी कहते हैं।

श्यामो नामक एक 13 वर्षीय लड़की की शादी हो गयी। सालभर बाद उसके पति की मृत्यु हो गयी और वह लड़की 14 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही विधवा हो गयी। श्यामो ने देखा कि अपने जीवन को आलसी, प्रमादी या विलासी बनाना-यह समझदारी नहीं है। उसने माता-पिता को राजी कर लिया अपना पवित्र जीवन जीने के लिए। उसके माता-पिता भी महागरीब थे।

श्यामो सुबह उठकर पाँच सेर आटा पीसती और उसमें से कुछ कमाई कर लेती। फिर नहा धोकर थोड़ा पूजा पाठ आदि करके पुनः सूत कातने बैठ जाती। किसी के घर रसोई बनानी होती तो वह रसोई बनाने चली जाती। इस प्रकार उसने अपने को कर्म में पिरोये रखा और जो काम करती उसे बड़ी सावधानी और तत्परता से करती। ऐसा करने से उसे नींद भी बढ़िया आती और थोड़ी देर पूजा पाठ करती तो उसमें भी मन बड़े मजे से लग जाता। ऐसा करते-करते श्यामो ने देखा कि यहाँ से जो यात्री आते-जाते हैं उन्हें बड़ी प्यास लगती है। श्यामो ने आटा पीसकर, सूत कातकर, किसी के घऱ की रसोई करके अपना तो पेट पाला ही, बाकी कोरकसर करके जो धन एकत्रित किया था, अपने पूरे जीवन की उस संपत्ति को लगा दिया पथिकों के लिए कुआँ बनवाने में।

मुंगेर-भागलपुर रोड पर वही ʹʹपक्का कुआँʹʹ आज भी श्यामो की कर्मठता, त्याग, तपस्या और परोपकारिता की खबर दे रहा है।

परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी आयें किन्तु यदि इन्सान हताश-निराश न हो एवं तत्परतापूर्वक शुभ कर्म करता रहे तो फिर उसके सेवाकार्य भी पूजा-पाठ हो जाते हैं और उसके हृदय में भगवदीय सुख, भगवद-संतोष जो भक्तिभाव व योग से आते हैं वे ही सुख-शांति भगवद्-प्रीत्यर्थ सेवा करने वाले के हृदय में प्रकट होते हैं।

14 वर्ष की उम्र में ही विधवा हुई श्यामो ने अपने जीवन को पुनः विलासी विकारी जीवन में गरकाव नहीं किया वरन् पवित्रता, संयम एवं सदाचार का पालन करती हुई तत्परता से कर्म करती रही तो आज उसका पाँचभौतिक शरीर भले ही धरती पर नहीं है, पर उसकी कर्मठता, परोपकारिता एवं त्याग की यशोगाथा तो आज भी गायी जा रही है।

काश ! लड़ने झगड़ने और कलह करने वाले लोग उससे प्रेरणा पायें ! घर में, कुटुम्ब में, समाज में सेवा और स्नेह की सरिता बहायें तो हमारा भारत कितना अच्छा हो ! गाँव-गाँव को गुरुकुल बनायें…. घर-घर को गुरुकुल बनायें….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 82

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सूखा नारियल


फरीद बड़े फक्कड़ संत थे। एक बार एक व्यक्ति ने उनके पास जाकर कहाः “महाराज ! ईसा मसीह को क्रॉस पर चढ़ना पड़ा और उनके हाथ पैरों में खीलें ठोक दी गयीं… मंसूर को भी शूली पर चढ़ना पड़ा… सुकरात को जहर दे दिया गया लेकिन ʹहम मर रहे हैंʹ ऐसा महसूस उनको क्यों नहीं हुआ ? ʹहम मौत को देख रहे हैं… हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता….ʹ ऐसा  वो क्यों बोलते थे ? हमें तो एक छोटी सी सुई चुभती है तब भी पीड़ा होती है किन्तु उन्हें शूली पर चढ़ने पर भई दुःख क्यों नहीं हुआ ?”

फरीद ने अपने सामने पड़े हुए नारियल के ढेर में से एक नारियल उसे देते हुए कहाः “जा इसको तोड़कर आ, लेकिन ध्यान रखना कि गिरी साबूत रहे।”

वह व्यक्ति गया और नारियल तोड़ने की युक्ति का विचार करने लगा। नारियल हरा था अतः बिना गिरी टूटे नारियल कैसे टूट सकता था ? काफी देर सोच-विचार कर वह पुनः बाबा फरीद के पास आया और बोलाः “महाराज ! यह काम मुझसे नहीं हो पायेगा। जैसे नारियल का टूटना होगा, वैसे ही भीतर की गिरी भी टूट जायेगी।”

फरीद ने सूखा नारियल देते हुए कहाः “इसको तोड़कर आ लेकिन इसकी भी गिरी साबूत ही रहे।”

उस व्यक्ति ने नारियल हिलाकर देखा। नारियल सूखा था। अंदर की गिरी के हिलने की आवाज आ रही थी। वह बोलाः “महाराज ! इसकी गिरी तो बिना तोड़े भी साबूत ही है। हिलने मात्र से ही पता चल जाता है।”

फरीदः “उस हरे नारियल को तोड़ने से उसकी गिरी भी टूट जाती क्योंकि वह गिरी अपने बाह्य स्थूल भाग से चिपकी थी। यह सूखा हुआ नारियल है। धीरे-धीरे अपने बाह्य भाग से, छिलके से, गिरी की पकड़ हट गयी है। इसी प्रकार मंसूर, सुकरात आदि सूखे नारियल थे और तुम हरे नारियल हो। वे लोग केवल गिरी ही बचे थे, केवल ब्रह्मानंदस्वरूप ही बचे थे। उनका स्थूल और सूक्ष्म शरीर देखने मात्र का था जबकि तुम्हारी गिरी अभी चिपकी  हुई है।

जप, ध्यान, प्राणायाम आदि का फल यही है कि गिरी अलग हो जाये। कीमत तो गिरी की ही  होती है, बाकी तो बाहर का आवरण दिखावा मात्र होता है। कीमत तुम्हारे बाह्य सौन्दर्य की नहीं, वरन् भीतर स्थित अंतर्यामी परमात्मा की ही है।

ऐसे सूखे नारियल की तरह ब्रह्म में प्रतिष्ठित फकीर यदि तुम्हारी ओर केवल निहार भी लें और तुम उऩ्हें झेल पाओ तो उसके आगे करोड़ों की संपत्ति का मूल्य भी कौड़ी के समान है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 81

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