संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
श्रीमद् आद्यशंकराचार्य ने कहा हैः
अंगं गलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्।।
ʹअंग गलित हो गये, सिर के बाल पक गये, मुँह में दाँत नहीं रहे, बूढ़ा हो गया, लाठी लेकर चलने लगा फिर भी आशा पिण्ड नहीं छोड़ती।ʹ
(चर्पटपंजरिका स्तोत्रः 6)
आशा ही जीव को जन्म-जन्मान्तर तक भटकाती रहती है। मरुभूमि में पानी के बिना मृग का छटपटाकर मर जाना भी इतना दुःखद नहीं है, जितना तृष्णावान का दुःखी होना है। शरीर की मौत की छटपटाहट पाँच-दस घंटे या पाँच-दस दिन रहती है, लेकिन जीव तृष्णा के पाश में युगों से छटपटाता आया है, गर्भ से शमशान तक ऐसी जन्म मृत्यु की यात्राएँ करता आया है। गंगाजी के बालू के कण तो शायद गिन सकते हैं लेकिन इस आशा-तृष्णा के कारण कितने जन्म हुए नहीं गिन सकते।
बुद्धिमान बुजुर्गों का कहना है कि यदि सिर के बाल सफेद होने लगें तो समझ लेना चाहिए कि शमशान में जाने की तैयारी हो रही है। यदि दाँत गिरने शुरु हो जायें तो समझ लें संसार के भोग अब आपके लिए नहीं हैं। अतः संसार के भोग भोगने की रुचि को मिटाते जाना चाहिए। बुढ़ापा आने पर लकड़ी का सहारा लेने की जरूरत पड़ने लगे तो समझ जाना चाहिए कि एक दिन ये ही लकड़ियाँ इस शरीर को जला देंगी।
अतः हे मानव ! अब तू सावधान हो जा। तुच्छ वासनाओं को छोड़, संसार की आसक्ति को छोड़, संसार से सुख लेने की इच्छा को छोड़ क्योंकि संसार से कोई भी व्यक्ति पूर्ण सुखी होकर नहीं गया है। जिनकी गोद में भगवान श्रीराम स्वयं खेले थे, उन राजा दशरथ को भी संसार ने रुलाया था। अतः संसार से सुख पाने की तृष्णा छोड़। अपने सुख स्वरूप परमात्मा की ओर कदम आगे बढ़ा, अपने मन को समझाः
ʹऐ मेरे मन ! आशा करनी ही है तो इस बात की आशा कर कि मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे, जब मैं अपने परम पद में विश्रान्ति पाऊँगा ? यह संसार मुझे स्वप्नवत् कब भासेगा ? कब मेरे चित्त की तृष्णाओं का नाश हो जायेगा ? कब मेरा चित्त निर्दोष नारायण के ध्यान में मग्न रहने लगेगा ? न जाने कितनी बार माताओं के गर्भों में लटकता आया हूँ। हे शिव ! हे कल्याणस्वरूप ! हे अन्तर्यामी प्रभु ! तू मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने निर्बन्ध, मुक्त स्वभाव में ले चल। हे ईश्वर ! ये बाल सफेद हो गये, लेकिन बुद्धि श्वेत नहीं हुई, शुद्ध नहीं हुई, उसका मायारूपी कालापन नहीं हटा। दाँत गिर गये, लेकिन अभी तक तुच्छ आशाएँ-तृष्णाएँ नहीं गिरीं। हाथ में डंडा आ गया लेकिन हृदय में आपका प्रेम नहीं आया। शरीर जीर्ण हो गया फिर भी मेरी तृष्णाएँ जीर्ण नहीं हुईं। हे मेरे प्रभु ! मुझमें मेरे स्वरूप को पाने की लालसा जगा दे….ʹ
इस प्रकार अपने मन को समझाते हुए प्रार्थना करते जाओ, अपने आपके मित्र बनते जाओ। जो आदमी संसार की तुच्छ वासनाओं को मिटाने का यत्न नहीं करता, वह अपने आपका शत्रु है। जो मनुष्य अपने शरीर की नश्वरता का ख्याल नहीं करता, उसकी बालबुद्धि है। वह अवश्य माया से ठगा जाता है। मृत्यु के समय पराये तो उसके पराये हैं ही, अपने भी पराये हो जाते हैं और शरीर भी अपना नहीं रहता।
जो मनुष्य ऐसे वर्त्तमान समय-परिस्थिति का दुरुपयोग करके, भविष्य की विषय-वासनाओं एवं ऐहिक सुखों की पूर्ति करने तथा इस नाशवान शरीर को सुखी करने में जीवन भर लगे रहते हैं, वे ʹपापी मनुष्यʹ के रूप में पहचाने जाते हैं। पापी मनुष्यों की यह पहचान है कि वे अपनी तृष्णा के मुताबिक जगत की परिस्थितियों को अपने अनुकूल करके सुख पाने की इच्छा में ही जुटे रहते हैं। वे क्षणभंगुर शरीर को ही सब कुछ मानने लगते हैं और आत्मा का अनादर करते हैं। वे अपनी आत्मिक शक्तियों का उपयोग भी शरीर के ऐश-आराम में करते हुए उसे बरबाद कर देते हैं।
शंकराचार्य हमें सचेत करते हुए कहते हैं- “तू तुच्छ तृष्णा को, देहाध्यास को, वासनाओं को पोस मत। विषयो के संग से अपना सत्यानाश मत कर। तू तो निर्विषयी, निर्लोभी, निरहंकारी एवं निर्द्वन्द्व पद में स्थित महापुरुषों के वचनों को विचार।”
हे मानव ! कभी-कभी शमशान में जा और अपने मन को दिखा किः ʹदेख ! आखिर तेरा भी यही हाल होने वाला है। हे मेरे मन ! तेरा यह हाल हो जाये, उसके पहले तू विषय वासना के पाश को विवेक-बुद्धि से काट दे। संसार के विषयों से वैराग्य कर और परमात्मरस पाने का अभ्यास कर।ʹ
बुद्ध अपने प्रिय शिष्यों से कहते थेः “यदि मेरा शिष्य बनना चाहते हो, भिक्षु बनना चाहते हो, तो पहले छः महीने तक शमशान में निवास करो। वहाँ जितने मुर्दे जलाये जाते हों, उनके साथ अपना सादृश्य स्थापित करो कि ʹमैं ही जल रहा हूँ। ये सब भी पंचभूतों के बने हैं और मेरा शरीर भी पंचभूतों का ही बना है।ʹ इससे विवेक-वैराग्य जागृत होगा।”
विवेकवान विरक्त मनुष्य को यदि कोई कहे किः ʹतुम बड़े ही सुन्दर दिख रहे हो….ʹ तो यह सुनकर उसे सुन्दरता का अभिमान नहीं होता क्योंकि सुन्दरता का परिणाम क्या है, यह उसे पता होता है। उसे सदा ऐसा स्मरण रहता है कि यह सुन्दर चेहरा भी एक मुट्ठी राख बनने की ओर ही जा रहा है। अतः सुन्दरता का गर्व करने से क्या लाभ ?
मानव कितना महान है ! …लेकिन इस अभागी तृष्णा ने ही उसे भटका दिया है। अभागी आशा-तृष्णा ही उसे जन्म-मरण के चक्र में फँसाती है।
आज की इच्छा कल का प्रारब्ध बन जाती है इसलिए भोगने की, खाने की, देखने की आशा करके अपने भविष्य को नहीं बिगाड़ना चाहिए। हे मानव ! जीते-जी आशा-तृष्णारहित होकर परमात्म-साक्षात्कार करने का प्रयत्न करना चाहिए।
संसार की वस्तुओं को पाने की तृष्णा में हम दुःखद परिस्थितियों को मिटाने की मेहनत और सुखद परिस्थितियों को थामने का व्यर्थ यत्न करने में ही उलझ गये हैं। अज्ञान से यह भ्रांति मन में घुस गई है किः ʹकुछ पाकर, कुछ छोड़कर, कुछ थामकर सुखी होंगे।ʹ हालांकि सुख के संबंध क्षणिक हैं, फिर भी उसी को पाने में अपना पूरा जीवन लगा देते हैं और जो शाश्वत संबंध है आत्मा-परमात्मा का, उसको जानने का समय ही नहीं है। कैसा दुर्भाग्य है ! ऐसी उलटी धारणा हो गई है, उलटी बुद्धि हो गयी है।
ईश्वर हमसे तसू भर भी दूर नहीं है। जरूरत है तो केवल उसे प्रगट करने की। जैसे लकड़ी में अग्नि छुपी है, किन्तु उस छुपी हुई अग्नि से भोजन तब तक नहीं पकता, जब तक दियासिलाई से अग्नि को प्रकट नहीं करते। जैसे विद्युत्तार में विद्युत्शक्ति छुपी है, किन्तु उस छुपी हुई शक्ति से विद्युत्तार संचारित होकर बल्ब से तब तक प्रकाश नहीं फैलाता जब तक स्विच चालू नहीं करते। ऐसे ही परमात्मा अव्यक्त स्वरूप में सबमें छुपा हुआ है किन्तु जब तक जीव की सारी तुच्छ वासनाएँ ज्ञानरूपी दियासिलाई से जल नहीं जातीं, चित्त वासनारहित नहीं हो जाता तब तक अन्तःकरण में ईश्वरत्व का प्रागट्य नहीं होता।
अतः देर न करो। उठो… अपने-आप में जागे हुए निर्वासनिक महापुरुषों के, सदगुरुओं के चरणों में पहुँच जाओ…. अपनी तुच्छ इच्छाओं को जला डालो…. अपने ज्ञानस्वरूप में जाग जाओ…. ऐसे अजर-अमर पद को पा लो कि फिर तुम्हें दुबारा गर्भवास का दुःख न सहना पड़े।
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स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 89
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