परमात्मप्रेम में सहायक पाँच बातें

परमात्मप्रेम में सहायक पाँच बातें


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मप्रेम बढ़ाने के लिए जीवन में निम्नलिखित पाँच बातें आ जायें ऐसा यत्न करना चाहिएः

भगवच्चरित्र का श्रवण करो। महापुरुषों के जीवन की गाथाएँ सुनो या पढ़ो। इससे भक्ति बढ़ेगी एवं ज्ञान-वैराग्य में मदद मिलेगी।

भगवान की स्तुति-भजन गाओ या सुनो।

अकेले बैठो तब भजन गुनगुनाओ। अन्यथा, मन खाली रहेगा तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आयेंगे। कहा भी गया है किः ʹखाली दिमाग शैतान का घर।ʹ

जब परस्पर मिलो तब परमेश्वर की, परमेश्वर-प्राप्त महापुरुषों की चर्चा करो। दिया तले अँधेरा होता है लेकिन दो दियों को आमने सामने रख दो तो अँधेरा भाग जाता है। फिर प्रकाश ही प्रकाश रहता है। अकेले में भले कुछ अच्छे विचार आयें किन्तु वे ज्यादा अभिव्यक्त नहीं होते हैं। जब ईश्वर की चर्चा होती है तब नये-नये विचार आते हैं। एक दूसरे का अज्ञान हटता है, एक दूसरे का प्रमाद हटता है, एक दूसरे की अश्रद्धा मिटती है।

भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुषों में हमारी श्रद्धा बढ़े ऐसी ही चर्चा करनी सुननी चाहिए। सारा दिन ध्यान नहीं लगेगा, सारा दिन समाधि नहीं होगी। अतः ईश्वर की चर्चा करो, ईश्वर संबंधी बातों का श्रवण करो। इससे समझ बढ़ती जायेगी, प्रकाश बढ़ता जायेगा, शांति बढ़ती जायेगी।

सदैव प्रभु की स्मृति करते करते चित्त में आनंदित होने की आदत डाल दो।

ये पाँच बातें परमात्मप्रेम बढ़ाने में अत्यंत सहायक हैं।

परमात्मप्रेम में बाधक पाँच बातें

निम्नलिखित पाँच कारणों से परमात्मप्रेम में कमी आती हैः

अधिक ग्रंथ पढ़ने से परमात्मप्रेम बिखर जाता है।

बहिर्मुख लोगों की बातों में आऩे से और उऩकी लिखी हुई पुस्तकें पढ़ने से परमात्मप्रेम बिखर जाता है।

बहिर्मुख लोगों के संग से, उनके साथ खाने-पीने अथवा हाथ मिलाने से हल्के स्पंदन (ʹवायब्रेशनʹ) आते हैं और उनके श्वासोछ्वास में आने से भी परमात्मप्रेम में कमी आती है।

किसी भी व्यक्ति में आसक्ति करोगे तो आपका परमात्मप्रेम खड्डे में फँस जायेगा, गिर जायेगा। जिसने परमात्मा को को नहीं पाया है उससे अधिक प्रेम करोगे तो वह आपको अपने स्वभाव में गिरायेगा। परमात्मप्राप्त महापुरुषों का ही संग करना चाहिए।

ʹश्रीमद् भागवतʹ में देवहूति को भगवान कपिल कहते हैं- “आसक्ति बड़ी दुर्जय है। वह जल्दी नहीं मिटती। वही आसक्ति जब सत्पुरुषों में होती है तब वह संसारसागर से पार लगाने वाली हो जाती है।”

प्रेम करो तो ब्रह्मवेत्ताओं से, उनकी वाणी से, उनके ग्रंथों से। संग करो तो ब्रह्मवेत्ताओं का ही। इससे प्रेमरस बढ़ता है, भक्ति का माधुर्य निखरता है, ज्ञान का प्रकाश होने लगता है।

उपदेशक या वक्ता बनने से भी प्रेमरस सूख जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 18, अंक 91

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