संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से
ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ में आया हैः
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।
ʹमुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।ʹ (गीताः12.2)
भगवान यहाँ जो ʹमुझमेंʹ शब्द बोलते हैं वह रथ पर विराजमान विग्रह के लिए नहीं बोलते, अपितु समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त एवं आकाश से भी सूक्ष्म जो चिदानन्द स्वरूप है, समस्त प्राणियों के अंतःकरण में जो आत्मरूप से स्थित है उसको लक्ष्य करके ʹमुझमेंʹ शब्द का प्रयोग करते हैं।
शिष्य जब गुरुदेव से कहता है किः ʹगुरुदेव ! आप कण-कण में विद्यमान हैं….ʹ तो इसका अर्थ यह नहीं है कि गुरुदेव का शरीर कण-कण में घुस गया है। नहीं, जो गुरुतत्त्व है वह कण-कण में, जर्रे-जर्रे में छुपा है। जो गुरुदेव को शरीर मानेगा, वह स्वयं शरीर से पार कैसे जायेगा ? जो भगवान को देहधारी मानेगा, वह देह के बंधन से कैसे मुक्त होगा ?
भगवान और सदगुरु देह में होते हुए भी देह से परे हैं। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने कहा हैः
अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
भगवान कहते हैं- ʹतू मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा।ʹ वास्तव में देखा जाये तो मन और बुद्धि भगवान के सिवाय कहीं लग भी नहीं सकते हैं क्योंकि भगवान के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं। सृष्टि के आदि में भगवान, अंत में भगवान… तो अभी जो है, वास्तव में भगवान ही है लेकिन माया के कारण हम जान नहीं पाते ।
भगवान की माया विवर्त दिखाती है। जो विवर्त है उसकी को संसार बोलते हैं और संसार सरकता जाता है अर्थात् बदलता जाता है। धातु वही की वही, लेकिन नाम और और रूप बदलते जाते हैं, इसी का नाम माया है। माया में स्थिरता नहीं है, शाश्वत सुख नहीं है, नित्य परिवर्तन है।
परिवर्तन जिसके आधार पर होता है वह आधार और जिसमें परिवर्तन होता है वह है आधेय। जैसे पानी में काई जम जाती है तो काई का आधार है पानी और आधेय है काई। आधेय काई अपने पानी को ढँक देती है। ऐसे ही माया आधेय है और परमात्मा आधार है। काई पानी से पैदा होती है, पानी को ही ढँकती है और पानी में ही रहती है तथा उसमें जन्तु भी होते हैं। जन्तुओं में भी पानी के अंश होते हैं, काई में भी पानी के अंश होते हैं और मूल में भी पानी होता है। ऐसे ही मूल में परमात्मा, माया में भी चेतना परमात्मा की और माया से उत्पन्न हुए जीव में भी चेतना परमात्मा की होती है।
कबीर जी ने कहा हैः
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलै समाना, यह अचरज है ज्ञानी।।
ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होने पर ज्ञानी का आचरण कैसा होता है ? घड़े में पानी और पानी में घड़ा… घड़े की आकृति को विचार से तोड़ दें तो बाहर भीतर केवल पानी ही होता है। ऐसे ही देह को ʹमैंʹ मानने की मन-बुद्धि की जो बेवकूफी है उसे हटाकर, देह के भीतर और बाहर व्यापक चिदाकाश जो चैतन्य है उसमें मन-बुद्धि लगा दें तो फिर आप भगवान से अलग नहीं रहते और भगवान आपसे अलग नहीं रहते।
भगवान कहते हैं-
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
अर्थात् ʹतू मेरे में मन और बुद्धि को लगा।ʹ
जब ʹमनʹ बोलते हैं तब मन के साथ चित्त को मान लेना चाहिए। ʹबुद्धिʹ बोलते हैं तब उसके साथ अहंकार को भी समाविष्ट कर लेना चाहिए। वैसे अंतःकरण चतुष्ट्य कहा जाता हैः मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन में चित्त का समावेश और बुद्धि में अहंकार का समावेश करना। जब मन बुद्धि को भगवान में लगा देंगे तब स्वयं भगवन्नमय हो जायेंगे।
यदि मन बुद्धि नश्वर देह और नश्वर संसार में लगे हैं तो फिर कितना भी तप करें, व्रत-उपवास करें, उसका फल नश्वर ही होगा। मन-बुद्धि जहाँ से उत्पन्न होते हैं उस चैतन्यस्वरूप परमात्मा को ʹमैंʹ मानकर उसमें लगे रहे तो फल शाश्वत होगा।
नानकजी ने ठीक ही कहा हैः
देखत नैन चल्यो जग जाई। का माँगूँ कछु थिर न रहाई।।
ʹसंसार में ऐसी कोई चीज नहीं है जो स्थिर रहे, तो भगवान से क्या माँगें ?ʹ
“भगवान ! जिसमें हमारा मंगल हो और जो आपको उचित लगे, वही दीजिये।”
भगवान कहेंगे- “तुम मुझमें मन-बुद्धि को लगा दो तो तुम और हम एक हो जायेंगे। अद्वैत ज्ञान हो जायेगा।”
यह है भी आसान और शाश्वत भी है। केवल काई जहाँ से पैदा हुई है और काई ने जिसको ढाँक दिया है उसको जानना है।
किन्हीं साधु बाबा के पास आकर एक व्यक्ति ने पूछाः “महाराज ” मैं बड़ा प्यासा हूँ। थक गया हूँ। आगे पानी है ?”
महाराजः “बेटा ! पानी है। बहुत शीतल और स्वच्छ है। प्यास बुझ जायेगी।”
“बेटा ! बायें हाथ की और सौ कदम की दूरी पर है। लेकिन हरा-हरा सा दिखेगा क्योंकि काई से ढँका है। पानी शुद्ध है।”
वह व्यक्ति गया, देखा तो कहीं पानी नहीं दिखा। फिर याद आया कि काई (शैवाल) से ढँका है। कुछ हरा-हरा सा दिखा। निकट गया, काई को हटाया और चुल्लु भर पिया तो शीतल, अमृत जैसा जल ! पेट भर पिया और अपनी प्यास बुझाई। थका तो था ही। तालाब के किनारे एक वृक्ष के नीचे थकान मिटाने के लिए थोड़ी देर बैठा। जल तो पुनः काई से ढँक गया लेकिन अब उस व्यक्ति को जल का अज्ञान नहीं है क्योंकि उसने काई को हटाकर जल का अनुभव कर लिया है। ऐसे ही केवल तीन मिनट के लिए अज्ञान की काई हट जाये एवं गुरुकृपा से साधक परमात्म-तत्त्व का अनुभव कर ले तो फिर भले बाहर से अज्ञानी की नाईं संसार का व्यवहार करता दिखेगा लेकिन भीतर से उस अनुभव से तृप्त रहेगा। बाहर से ब्रह्म भले ढँका सा दिखेगा लेकिन जैसे जब चाहे तब वह काई हटा हटाकर जल पी सकता है, वैसे ही वह ज्ञानी पुरुष जब चाहे तब अंतरात्मा में गोता मारकर आत्मानुभव कर लेगा। कितना आसान है !
जब चाहें तब प्रधानमंत्री से मुलाकात नहीं हो सकती, जब चाहे सेठ को नौकर भी मिल सकता लेकिन वह परमात्मा सदा-सर्वत्र मिला हुआ ही है। मध्य रात्रि को शांत होकर बैठ गये तब भी उसका अनुभव, उसके रस में सराबोर…. सुबह, दोपहर, शाम को भी सराबोर… देश-परदेश में, बीमारी-तंदरुस्ती में, गृहस्थी-संन्यासी में….. जब चाहो तब उस परमात्मा के रस में सराबोर हो सकते हैं।
एक गृहस्थ संत थे। वे आस-पास के लोगों को बगीचे में बैठाकर सत्संग सुनाते थे किः ʹशरीर नश्वर है, पाँच भूतों का पुतला है। जो भी पैदा होता है वह अवश्य मरता है, किन्तु आत्मा अमर है। घड़े बनते हैं, फूटते हैं लेकिन आकाश ज्यों का त्यों रहता है। ऐसे ही शरीरर जन्मता-मरता है लेकिन आत्मा ज्यों-की-त्यों रहती है। अपने को आत्मा मानो। मन-बुद्धि को भगवान में लगाओ। संसार की मोह-माया में मत फँसो।ʹ
एक दिन उनका पोता मर गया। वे संत घर जाकर छाती कूटने लगे किः ʹबेटा ! तू क्यों चला गया ? तेरे बिना हम कैसे जियेंगे ?ʹ ऐसा कहकर वे इतना रोये, इतना रोये कि उनका बेटा एवं उनकी बहू जो पुत्र शोक से रो रहे थे, वे उन्हीं को चुप कराने लगे।
फिर बेटे की अंतिम क्रिया की, स्नानादि किया एवं पिता को खाना बनाकर खिलाया। पिता तो संत थे लेकिन वे लोग उनको नहीं जानते थे। पड़ोसी भी उन्हें अपना मित्र मानते थे। किसी ने पूछ लियाः
“भाई ! आप बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं कि ʹशरीर नाश्वान है, आत्मा अमर है।ʹ हमको तो उपदेश देते हैं और आपके पोते का देहांत हो गया तो आप इतना रोये कि आपके बहू-बेटे भी आपको चुप कराने लगे।”
संतः “अभी छोड़ो। बहू की सहेलियाँ और बेटे के मित्र सुन लेंगे। बाद में बतायेंगे।”
फिर समय पाकर सब बगीचे में मिले तब संत ने कहाः “मैं उस दिन समझकर रोया था। बेटे का इकलौता बेटा मर गया था। माँ-बाप दोनों रो रहे थे। यदि मैं उनको चुप कराने जाता तो वे और रोते कि ʹआपको क्या है ? हमारा इकलौता बेटा मर गया, हमारे तो मानों प्राण ही चले गये हैं….ʹ ऐसा करके वे ज्यादा रोते। मैंने सोचा, उनको चुप कराने के लिए रोने में अपने को घाटा भी क्या है ? मैं समझकर रो रहा था तो दुःख नहीं हो रहा था। वे मोह से रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लेते।”
रंगमंच पर कोई भिखाई की भूमिका अदा करता है किः ʹदे दो, कोई पाँच-दस पैसे दे दोઽઽઽ.. तुम्हारे बाल-बच्चे सुखी रहेंगे….ʹ वही व्यक्ति रंगमंच से उतरने के बाद आराम से चाय-नाश्ता करता है और 100 रूपयों की नोट जेब में डालकर मजे से रह लेता है। लेकिन उसका अभिनय ऐसा होता है कि दर्शक को लगता है कि ʹहम सब उसे 1-1 रूपया दे देवें।
जो समझकर रोता है उसे दुःख के समय भी कोई दुःख नहीं होता।
अष्टावक्र जी महाराज राजा जनक से कहते हैं-
संतुष्टोઽपि न सन्तुष्टः खिन्नोઽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते।।
ʹधीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता है और दुःखी होकर भी दुःखी नहीं होता है। उसकी इस आश्चर्यमय दशा को वैसे ज्ञानी ही जानते हैं।ʹ (अष्टावक्र गीताः 18.56)
ऐसे महापुरुष शरीर के जीवन को अपना जीवन नहीं मानते और शरीर की मौत को अपनी मौत नहीं मानते क्योंकि उन्होंने अपने मन-बुद्धि को चैतन्यस्वरूप परमात्मा में लगा दिया है। उन्होंने समझ लिया है किः ʹजिसकी मौत होती है वह मैं नहीं हूँ और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।ʹ
कुछ लोग मानते हैं किः ʹइतने व्रत-उपवास करेंगे, इतने जप-तप करेंगे तब भगवान मिलेंगे…. इतने होम-हवन करेंगे तब भगवान मिलेंगे… हम मर जायेंगे तब भगवान के धाम में जायेंगे….ʹ उनकी यह धारणा ही उन्हें भगवान से दूर कर देती है।
वास्तव में भगवान मिला-मिलाया ही है किन्तु मन-बुद्धि परिवर्तनशील माया में लगे हैं इसलिए मिला-मिलाया भगवान भी पराया लगता है और पराई नश्वर चीजें अपनी लगती हैं। जिसे आप ʹमैंʹ बोलते हैं वह नश्वर शरीर भी आपका नहीं है, माया का विलासमात्र है। जिसकी सत्ता से आप ʹमैं-मैंʹ बोलते हैं उसकी गहराई में जाओ तो अपने स्वरूप का निश्चय हो जायेगा। वास्तव में निश्चय ʹस्वʹ में होता है और ʹस्वʹ शाश्वत में रहता है। दर्शनशास्त्र की यह सूक्ष्म बात है। इसको सुनने मात्र से हजारों कपिला गौदान करने का फल मिलता है।
मन ! तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान।
यदि मन अपने मूल को पहचान ले तो अपने-आप भगवान में लग जायेगा। बुद्धि अपने मूल को पहचानने लगे तो अपने-आप भगवान में लग जायेगी। यह ʹमैं-मैंʹ जिस चैतन्य से उत्पन्न होता है उसका ज्ञान हो जाये तो सभी दुःखों का सदा के लिए अंत हो जाये। लेकिन होता क्या है कि, यह ʹमैंʹ मन-इन्द्रियों से जुड़कर नश्वर चीजों को ʹमेराʹ मानने लगता है। ऐसे ʹमेरा-मेराʹ करते-करते कई बदल जाते हैं लेकिन ʹमैंʹ वही का वही रहता है। जिस ʹमैंʹ से मन बुद्धि उत्पन्न होते हैं, उसी ʹमैंʹ में मन बुद्धि को लगा दें तो शाश्वत के द्वार खुल जायें…..
उस वास्तविक ʹमैंʹ में मन बुद्धि को लगाने का अभ्यास करना चाहिए, लेकिन यह अभ्यास से नहीं होता।
“बापू ! अभ्यास करना चाहिए ऐसा आप कहते हैं और फिर ऐसा भी कहते हैं कि अभ्यास से नहीं होता है ?”
शरीर को ʹमैंʹ मानने का जो उल्टा अभ्यास पड़ गया है उस उल्टे को सुलटा करने के लिए अभ्यास करना चाहिए। जैसे रास्ता भूल कर आगे निकल जाते हैं तो वापस आना पड़ता है, ऐसे ही मन-बुद्धि जो नश्वर शरीर और संसार में लग गये हैं उन्हें ईश्वर में लगाना है। वैसे तो मन बुद्धि ईश्वर में ही लगे हुए हैं।
ईश्वर से ही मन बुद्धि स्फुरित होते हैं। जैसे तरंगें पानी से ही उठती हैं, ऐसे ही मन बुद्धि चैतन्यस्वरूप परमात्मा से ही उठते हैं। ये जहाँ से उठते हैं उसी को सत्य मानकर उसमें लग जायें तो काम बन जाये… लेकिन उठकर बाहर भागते हैं।
जैसे, इकलौता लड़का अपने करोड़पति पिता से अलग होकर एक दो कमरे को अपना माने, 100-200 रूपये छुपाकर रखे और कहे किः ʹये 200 रूपये मेरे हैं…ʹ तो उसे क्या कहा जाये ? अरे ! अपने को पिता माने तो उनकी करोड़ों की मिल्कियत उसी की है। ऐसे ही मन-बुद्धि को ईश्वर में लगाया तो सारा ब्रह्माण्ड आपका है, परमात्मा भी आपका है, ब्रह्माजी की ब्राह्मी स्थिति भी आपकी है….. आप ऐसे व्यापक ब्रह्म हो जाते हैं ! फिर सारी सृष्टियाँ आपके ही अंदर हैं, आप इतने महान हो जाते हैं ! सारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उद्योगपति जिस परमात्मा से हैं उस परमात्मा के साथ आपका ऐक्य हो जाता है।
फिर धनाढ्य और सुखी होने की इच्छा नहीं रहती, कुछ बनने की इच्छा और बिगड़ने की चिन्ता नहीं रहती, मौत का भय और जीने की इच्छा नहीं रहती, ऐसे निर्वासनिक पद में आपकी स्थिति हो जाती है।
फिर तो आपके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही परमात्मा में लगे रहेंगे। आपके द्वारा स्वाभाविक ही परमात्मा में लगे रहेंगे। आपके द्वारा स्वाभाविक ही लोगों का हित होने लगेगा लेकिन आपको करने का बोझ नहीं लगेगा। समाज की सच्ची सेवा या सच्ची उन्नति तो ज्ञानियों के द्वारा ही होती है। जिसे ज्ञान नहीं हुआ, आत्मतृप्ति नहीं मिली, स्वयं को जिसने ठीक से नहीं देखा वह औरों को क्या ठीक दिखायेगा ? सच्ची सेवा तो ज्ञानवान महापुरुष ही करते हैं, बाकी की सब कल्पित सेवाएँ हैं।
लोगों को नश्वर चीजें दिला दीं, अपने नश्वर अहं को पोष दिया तो क्या हो गया ? क्या सब लोग दुःख से मुक्त हो गये ? हजारों लोग सेवा करते हैं, हजारों लोग सेवा लेते हैं लेकिन सेवा करने वालों को कोई-न-कोई दुःख लगा रहता है और सेवा लेने वाले भी दुःखी रहते हैं। सुखी तो केवल वे ही हैं जिन्होंने ज्ञानी महापुरुष की शरण ली है, जिन पर ज्ञानी महापुरुष की करूणा कृपा है और जिन्होंने ज्ञानी महापुरुष की सेवा की है। ऐसे साधक फिर स्वयं दुःखभंजन हो जाते हैं।
अतः भगवान के वचनों को समझकर मन-बुद्धि को भगवान में लगाने का अभ्यास करना चाहिए। भगवद् प्राप्त महापुरुषों के सत्संग का श्रवण करें अथवा तो भगवान की चर्चा करें, इससे मन बुद्धि भगवान में लगेंगे।
ʹमैं-मेराʹ ʹतू-तेराʹ देखते हैं तो मन बुद्धि परेशानी में लगते हैं। ʹमैं-मेराʹ ʹतू-तेराʹ दिखेगा तो सही, लेकिन जिस परमात्मा की सत्ता से दिखता है उस पर नजर डालें तो मन-बुद्धि परमात्मा में लगने लगेंगे। फिर तो…
हरदम खुशी… हर हाल खुशी…
जब आशिक मस्त फकीर हुआ,
तो क्या दिलगीरी ? बाबा !
गुरुकृपा पचाने की कला आ जाये तो मुक्त होना बड़ा आसान है। जो पूर्ण परमात्मा है उसमें अपने मन बुद्धि को लगा दें एवं बाकी के कार्यों को यत्न करके पूरा करें। जो भी कार्य हो, सेवा हो, उसे तत्परता से करें। सेवाकार्य तत्परता से करेंगे तो मन-बुद्धि उसी में स्थिर होंगे।
श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थेः ʹʹजो अपने सेवाकार्य में तत्पर नहीं है, वह अपनी आत्मा की उन्नति कैसे कर सकता है ?”
पलायनवादिता नहीं तत्परता चाहिए। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ न बढ़ायें, व्यक्तिगत आदतें पूरी करने के पीछे न लगें। जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आये तो ʹयह भी गुजर जायेगा…ʹ ऐसा करके मन बुद्धि को ईश्वर में लगायें। अन्यथा मन-बुद्धि अनुकूलता में लग जायेंगे तो थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी मुसीबत पैदा कर देगी। मन-बुद्धि वाहवाही और यश-मान में लग जायेंगे तो मान थोड़ा कम मिलने पर या अपमान होने पर परेशानी हो जायेगी। मन-बुद्धि शरीर में लगेंगे तो मरते समय शरीर में आसक्ति रह जायेगी और यह आसक्ति प्रेतयोनि में भटकायेगी। मन-बुद्धि को पुण्य-कार्य में, देवी-देवता के भजन में लगायेंगे तो पुण्य बढ़ने पर मनुष्य लोक में आयेंगे। धर्मविरुद्ध आचरण करने पर पाप बढ़ेंगे तो हल्की योनियों में जायेंगे। मन-बुद्धि ईश्वर मे लगायेंगे तो ईश्वर से मिलकर ईश्वरमय, ब्रह्ममय हो जायेंगे… मर्जी आपकी है।
इसीलिए भगवान कहते हैं-
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।
ʹमुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।ʹ
देर-सवेर मन-बुद्धि को परमात्मा में लगाना ही पड़ेगा तो फिर अभी से क्यों नहीं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 3-7, अंक 98
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