संत सान्निध्य की महिमा

संत सान्निध्य की महिमा


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

हे राम जी ! संत और भक्त में दोष देखना अपना विनाश करना है। साधु में एक भी गुण है तो उसको अंगीकार कीजिये। उनके अवगुण न सोचिये, न खोजिये।

अगर अवगुण देखना चाहोगे तो श्रीराम में भी दिख जायेंगे, श्री कृष्ण में भी दिख जायेंगे, बुद्ध, नानक और कबीर आदि में भी दिख जायेंगे। जैसे, बुद्ध एक नर्तकी के हाथ का बनाया हुआ भोजन करते थे… श्री कृष्ण गोपियों के साथ नाचते थे…. श्री रामजी ने सीता माता का त्याग कर दिया था…. लेकिन यह सब उनका बाह्य आचरण है। अगर इसे बाह्य दृष्टि से देखकर चलोगे तो आप गड्ढे में गिर जाओगे किन्तु यदि अन्तर्दृष्टि से उनके इन कार्यों को देखोगे तो आप तर जाओगे। बाह्य दृष्टि से ज्ञानी प्रारब्धवश व्यवहार में कुछ लेन-देन करते भले ही दिखें, परन्तु अन्तःकरण से वे कुछ नहीं करते वरन् सदा अपने-आप में तृप्त रहते हैं।

अगर ऐसे महापुरुषों को भी अवगुणी की नजर से देखोगे तो अवगुण खूब दिख जायेंगे और तुम्हारा चित्त भी अवगुणों का भण्डार हो जायेगा।

एक बार दुर्योधन के गुरुदेव द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहाः “जाओ, देखकर आओ कि नगर में कितने सज्जन लोग हैं ?”

दुर्योधन गया, दिन भर घूमा और शाम को लौटकर अपने गुरुदेव से उसने कहाः

“नगर में सारे लोग दुर्जन ही हैं।”

फिर गुरुदेव ने युधिष्ठिर को उसी नगर में भेजते हुए कहाः “जाओ, तुम देखकर आओ कि नगर में कितने दुर्जन लोग हैं ?”

युधिष्ठिर गये, दिन भर घूमकर शाम को आये एवं बोलेः

“नगर में कोई दुर्जन नहीं है। सब सज्जन ही सज्जन हैं।”

युधिष्ठिर तो दुर्योधन को भी दुर्योधन नहीं सुयोधन बोलते थे एवं दुःशासन को भी सुशासन कहकर बुलाते थे। उनके चित्त में शांति रहती थी, आनंद रहता था।

आप भी यदि एक दूसरे को दोषमय देखोगे तो आपकी शक्तियों का ह्रास होगा। उनके वे दोष आपमें भी उत्पन्न होने लगेंगे। इसके विपरीत यदि अपने बेटे-बेटी, पुत्र-परिवार, मित्र आदि में भी दोष देखने के बजाये गुण देखोगे तो उनके भी गुण बढ़ेंगे और आप में भी उन गुणों का विकास होने लगेगा।

अतः दुर्योधन की नाँईं किसी व्यक्ति में दुर्गुण मत देखो अपितु युधिष्ठिर की नाँईं सदगुण देखो। हम तो कहते हैं कि युधिष्ठिर से भी आगे श्रीकृष्ण की नाँईं सब में अपने को देखो और अपने में सबको देखो। भोले बाबा कहते हैं-

सब प्राणियों में आपको, सब प्राणियों को आप में।

जो प्राज्ञ मुनि हैं जानता, कैसे फँसे फिर पाप में ?

अक्षय सुधा के पान में, जिस संत का मन लीन हो।

क्यों कामवश सो हो विकल, कैसे भला फिर दीन हो ?

ऐसे महापुरुषों को ही ʹसाधुʹ कहा गया है। मनुष्य को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक साधु की संगत करे। साधु की संगत में अगर असाधु रहे तो वह भी साधु बन जाये लेकिन साधु अगर असाधु के प्रभाव में रहे तो वह भी असाधु हो जाये। ऐसे ही शिष्य अगर गुरु के कहने में चलता है तो एक दिन गुरु के अनुभव को वह अपना बना लेता है किन्तु गुरु यदि शिष्य के कहने में चलने लग जायें तो वे गुरु गुरु ही न रह जायें। इसीलिए असाधुओं को छोड़कर साधु का संग करना चाहिए। उनके साथ मिलकर सत्संग करना चाहिए। जो नित्य अपने-आप में तृप्त रहते हैं, मस्त रहते हैं तथा वही मस्ती सबको लुटाते रहते हैं ऐसे साधुपुरुषों का संग तो स्वयं संत भी चाहते हैं।

जो परम संत हों, साधु हों अगर उनमें एक भी गुण देखने को मिल जाये तो उसे स्वीकार कर लेना तथा अज्ञानी के, असाधु के हजार गुण भी दिखें, फिर भी उसकी धन-दौलत, मिथ्या पद-प्रतिष्ठा की वासना में नहीं पड़ना। साधु की सहजता एवं सरलता दिख जाये तो उसे यत्नपूर्वक अंगीकार करना चाहिए।

यदि आपने किसी को अमुक समय, अमुक स्थान पर मिलने का विचन दिया हो और पास में किसी ज्ञानी, संतपुरुष का सत्संग चल रहा हो तो आप उस व्यक्ति से मिलने मत जाना क्योंकि उस व्यक्ति से तो फिर कभी भी मिल सकते हो किन्तु संत पुरुष के दर्शन तथा सत्संग-सान्निध्य का लाभ बार-बार नहीं मिलता। ऐसे संत पुरुष कभी-कभी ही कहीं पर मिलते हैं अतः सब काम छोड़कर भी उनके श्रीचरणों में पहुँच जाना।

संसारी व्यक्ति दे-देकर भी क्या देगा ? संसारी तो आपको वासना पोसने की चीजें तथा वासना जगाने की बातें ही देगा, जिससे अभिमान, अहंकार पनपेगा जबकि ज्ञानवानों के संग से एवं उनके सत्संग में जाने से विवेक जगता है, वैराग्य उत्पन्न होता है, हृदय पवित्र एवं अहंकार गलित हो जाता है। उनके दर्शन मात्र से अमिट पुण्य की प्राप्ति होती है तथा मन को शांति मिलती है।

ऐसे ज्ञानवानों के लिए विरोधी, निंदक तथा कुप्रचारक कुछ का कुछ बोलते-लिखते रहते हैं किन्तु समझदार श्रद्धालु भक्त उनके इस जाल में नहीं फँसते, वरन् वे और भी अधिक दृढ़ता से अध्यात्म के मार्ग पर डट जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं-

संत न होते संसार में, तो जल मरता संसार….

….किन्तु अभागे कुप्रचारक संतों की निन्दा करके अपने कीमती मानव जीवन को नरकगामी तो बना ही लेते हैं, साथ ही साथ अपने 21 कुलों को भी ले डूबते हैं जबकि भक्त तो भक्ति के मार्ग पर दिनोंदिन उन्नति करते हुए अपना जीवन सफल कर लेते हैं।

एक तो आज कल की पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के युग में संत-भगवंत में श्रद्धा होना कठिन है और अगर थोड़ी बहुत श्रद्धा होती भी है तो कुप्रचारकों की बातें पढ़ सुनकर वह टूट जाती है। कुंठित मन-बुद्धिवाले लोग अनर्गल बातों के चलते ईश्वरतुल्य संत के दर्शन व सत्संग लाभ के लिए एक कदम भी नहीं चल पाते वरन् दूर ही भागते रहते हैं।

अगर भागना ही है तो जीवन को तबाह करने वाले जहरीले तथा जानलेवा व्यसनों से दूर भागो। विषय-विकारों में उलझाकर जीवन के ओज-तेज को नष्ट करने तथा शक्तिहीन-बुद्धिहीन बनाने वाली बुराइयों एवं चलचित्रों से दूर भागो। उन विषय विकारों का त्याग करो जो हमें अंधकार की खाई में ले जाते हैं। उस मोह माया को त्यागो जो हमें संत के द्वार तक पहुँचने से रोकती हैं। लेकिन आज के अच्छे-भले भारतवासी पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर अपनी सभ्यता व संस्कृति के आदर्शों एवं व्यवहारों को भूल गये हैं, संत-शरण थता उनके दर्शन व सत्संग के लाभ को भूल गये हैं और दुनिया के मिथ्या व्यवहार की ओर भागे जा रहे हैं।

श्रीकृष्ण जैसे श्रीकृष्ण और श्रीराम जैसे श्रीराम भी जब अवतार लेकर आये तो उन्होंने भी श्रद्धा व नम्रतापूर्वक सदगुरु एवं संत-महापुरुषों के श्रीचरणों में अपने मस्तक झुकाये, उनके आश्रम में रहकर सेवा-साधना की। परन्तु आज के मानव इन सब चीजों से दूर ही भागते फिर रहे हैं।

जो अति कामी हैं, विषयी-विलासी हैं, तुच्छ भोगों में आसक्त हैं वे दूसरे जन्म में को ई कीट-पतंग आदि नीची योनियों में, तो कोई शूकर – कूकर की योनि में पुण्य-पाप की तारतम्यता से कोई घोड़े-गधे आदि पशुओं की योनि में तो कोई वृक्ष आदि योनियों में जन्म लेकर बड़े कष्ट पाते हैं लेकिन जो संतों के श्रीचरणों में श्रद्धापूर्वक शीश झुकाते हैं, उनके बताये हुए मार्ग का अनुसरण कर सेवा-साधना करने लग जाते हैं, उनके वचनों को पचा लेते हैं वे देर-सबेर महान परमेश्वरीय भक्ति, महान् परमात्मज्ञान पाकर मुक्त हो जाते हैं एवं भक्त परमात्मधाम को पा लेते हैं।

कबीर जी ने कहा हैः

संत मिले यह सब मिटे, काल जाल जम चोट।

शीश नमावत ढही पड़े, सब पापन की पोट।।

अतः प्रयत्नपूर्वक संत महापुरुषों में एक भी दोष न देखते हुए, उनके गुणों को अंगीकार करते हुए मानव को अपने जीवन को सार्थक करने का यत्न अभी से शुरु कर देना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 9-11, अंक 98

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