संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
अभ्यासयोगेनयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।
‘हे पार्थ ! परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।’ (गीताः 8.8)
अभ्यास तो सब करते हैं लेकिन भगवान कहते हैं कि आप अपने अभ्यास को योग बना लो। ऐसा अभ्यास करो कि निरन्तर उस परमेश्वर का ही चिन्तन हो।
जो जिसका चिन्तन करता है उसके गुण सहज ही उसमें आने लगते हैं। ईश्वर के गुण जीव में छुपे हुए ही हैं लेकिन फालतू चिन्तन से जो परतें चढ़ गयी हैं उन परतों को हटाने के लिए ईश्वर के चिन्तन की जरूरत पड़ती है। व्यर्थ का चिन्तन हटाने के लिए सार्थक चिन्तन करना पड़ता है। व्यर्थ का चिन्तन हट जाये तो सार्थक चिन्तन करने की जरूरत नहीं पड़ती, स्वतः होने लगता है। व्यर्थ का अभ्यास मिट जाये तो सार्थक अभ्यास करना नहीं पड़ता, सार्थक स्वभाव प्रगट हो जाता है।
जैसे, पार्वती जी जाना चाहती थीं अपने पिता के यज्ञ में और शिवजी ने कहा कि यह उचित नहीं है। लेकिन पार्वती जी को ऐसा था किः ‘माँ एवं बहनों से जरा मिल लूँगी।’ वे चली गयीं तो शिवजी ने क्या किया ? व्यर्थ का चिन्तन नहीं किया वरन् ….
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।
शिवजी ने ऐसा नहीं कहा किः ‘मैं तलाक दे दूँगा… दूसरी ले आऊँगा….’ नहीं। शिवजी अपने स्वरूप में स्थित हो गये, उनकी अखंड समाधि लग गयी।
ऐसे ही आपका भी वही सहज स्वरूप है जो शिवजी का है लेकिन अभ्यासयोगे न होने के कारण मन इधर-उधर की फालतू बातों में जाता है और दुःख बनाता है। इसीलिए भगवान कहते हैं-
अभ्यासयोगेनयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
अभ्यास तो सब करते हैं। जैसे, रोटी बनाने, पढ़ाई करने, ड्राइविंग करने, मिट्टी का काम करने का अभ्यास… लेकिन ये अभ्यास प्रकृतिजन्य चीजों में उलझाने वाले होते हैं। अभ्यास तो ऐसा करो कि उस परमात्मा से, प्रकृति के स्वामी से आपका योग हो जाये। वास्तव में तो उसके साथ स्वतः योग सदा ही है। गलत अभ्यास के कारण उससे वियोग हो रहा है। उस वियोग के संस्कार हट जायें तो ईश्वर के साथ आपका नित्य संयोग हो जाये। फिर आपका चित्त कहीं और जायेगा ही नहीं।
फिर दिखेगी तो गाय लेकिन गहराई में चिन्तन होगा कि ‘गाय के अन्दर देखने एवं दूध बनाने की सत्ता भी परमात्मा की है….’ दिखेगा कोई व्यक्ति लेकिन उस व्यक्ति की गहराई में वही परमात्मा है…. दिखेगी तो रोटी और मक्खन लेकिन वह भी तो तू ही है… कैसे ? रोटी और मक्खन इसी धरती से उत्पन्न हुए। रोटी गेहुँ से बनी और गेहूँ धरती से उत्पन्न हुए। धरती का अधिष्ठान जल, जल का तेज, तेज का वायु, वायु का आकाश और आकाश का अधिष्ठान प्रकृति है। प्रकृति का भी अधिष्ठान है परमात्मा अर्थात् सर्वाधार परमात्मा से ही सब उत्पन्न हुआ है।
नहीं तो यूँ कह दो कि धरती, जल, हवा, प्रकाश और किसान की काम करने की चेतना यह सब भगवान का है। इससे गेहूँ उत्पन्न हुए एवं गेहूँ से रोटी बनी तो वह भी तो भगवन्मय है। ‘तेरी सत्ता से ही सब दिखता है…तेरी सत्ता से ही खाया-पिया जाता है… तू ही तू है। प्रभु ! तेरी जय हो….’
सब कुछ तू ही है लेकिन बीच में उल्टा अभ्यास हो गया ‘मैं’ का। देखती हैं आँखें लेकिन अहं बोलता है कि ‘मैं देखता हूँ…’ सोचता है मन किन्तु अहं बोलता है कि ‘मैं सोचता हूँ….’ निर्णय करती है बुद्धि लेकिन अहं बोलता है कि ‘मेरा निर्णय है….’ इस उल्टे अभ्यास को निकालने के लिए सुलटा अभ्यास करना पड़ता है।
जैसे केले के वृक्ष का तना बड़ा ठोस दिखता है लेकिन पत्तियाँ हटाओ तो कुछ भी नहीं… केवल परतें इकट्ठी हो गयी हैं तो ठोस लगता है। प्याज देखने में बड़ा ठोस लगता है, छिलके हटाओ तो कुछ नहीं। ऐसे ही इस अहं की परतें हटाते जाओ तो ‘अहं’ जैसी कोई चीज नहीं है। केवल वही परमात्मा है लेकिन बेवकूफी से अहं ने परेशान कर रखा है।
नुक्ते की हेरफेर से खुदा से जुदा हुआ।
नुक्ता अगर ऊपर रखो तो जुदा से खुदा हुआ।।
जहाँ सचमुच में ‘मैं’ है वहाँ मन जाता नहीं और जो ‘यह’ है उसे ‘मैं’ मान बैठे हैं… यही उल्टा अभ्यास पड़ गया है। ‘यह सिर… यह मुँह…. यह हाथ…. यह पैर…. यह पेट…’ कहते तो हैं लेकिन किडनी खराब हुई तो कहेंगेः ‘मैं बीमार हूँ….’ फिर आयुर्वेदिक रीति से ठीक हुई और कोई पूछे किः ‘कैसे हो ?’ ….तो जवाब मिलेगाः ‘मैं ठीक हूँ।’
वास्तव में आप बीमार भी नहीं होते और ठीक भी नहीं होते। बीमार होता है शरीर… ठीक होता है शरीर… मरता है शरीर…. आप तो ज्यो-के-त्यों हैं। लेकिन आप अपने असली ‘मैं’ को नहीं जानते बल्कि इस शरीर को ‘मैं’ मानते हैं इसीलिए दुःखी, चिंतित और परेशान होते रहते हैं। अगर शरीर को ‘मैं’ न मानें एवं वास्तविक ‘मैं’ का ज्ञान हो जाय तो सारी खटपटें सदा के लिए दूर हो जायें।
शास्त्र में दो प्रकार की युक्तियाँ आती हैं- विधेयात्मक एवं निषेधात्मक। संतों-महापुरुषों का यह अनुभव है कि विधेयात्मक की अपेक्षा निषेधात्मक युक्ति ज्यादा कारगर सिद्ध होती है। विधेयात्मक युक्ति से इतना शीघ्र तत्त्वज्ञान नहीं होता, जितना निषेधात्मक युक्ति से होता है।
जैसे, ‘अहं ब्रह्माsमि। ‘मैं ब्रह्म हूँ… मैं चैतन्य हूँ… मैं शुद्ध-बुद्ध सच्चिदानन्द हूँ…. मैं अमर हूँ… मैं मुक्त हूँ….’ बात तो बिल्कुल सत्य है लेकिन साधारण आदमी ऐसा सोचे एवं सावधान न रहे, संयमी न रहे तो उसके लिए खतरा पैदा हो सकता है। ‘मैं ब्रह्म हूँ…’ इसमें ‘मैं’ पर जोर है कि ‘ब्रह्म’ पर जोर है यह देखना पड़ता है। आदमी सावधान न रहे तो ‘अहं ब्रह्माsस्मि’ करके उसमें अहंकार भी आ जाता है अथवा वासनाओं की पूर्ति के लिए खुलेआम रास्ता भी बना लेता है।
इसकी अपेक्षा तो निषेधात्मक विधि सरल है किः ‘यह शरीर मैं नहीं हूँ… मन मैं नहीं हूँ… बुद्धि मैं नहीं हूँ….’ आदि आदि।
‘यह हाथ है।’ ….तो जो ‘यह’ है वह ‘मैं’ नहीं हूँ। जो ‘इदं’ है वह ‘अहं’ नहीं हो सकता और जो वास्तव में ‘अहं’ है वह कभी मिट नहीं सकता। ‘यह’ तो बदलता रहता है लेकिन ‘मैं’ वही-का-वही रहता है। ‘यह’ मर जाता है लेकिन ‘मैं’ नहीं मरता। वास्तविक अहं अमर आत्मा है…. आत्मा-परमात्मा का सनातन संबंध है। ॐ आनंद….ॐ माधुर्य… ॐ शांति…
स्वामी रामतीर्थ अमेरिका में किसी बगीचे में बैठे हुए थे। संन्यासी वेश था उनका…. नंगे पैर, मुंडन किया हुआ सिर और काषाय वस्त्र। उन लोगों ने पहले कभी किसी भारतीय संन्यासी को इस प्रकार देखा नहीं होगा। कुछ लोग यह कहकर उनकी मखौल उड़ाने लगेः “होयsss…. होयsss …. रेड मंकी….”
स्वामी रामतीर्थ यह सुन नाचने लगे और वे भी कहने लगेः होयsss…. होयsss… रेड मंकी…..”
स्वामी रामतीर्थ को भी ऐसा कहते देख उन लोगों ने कहाः “हम तुम्हीं को बोल रहे हैं।”
स्वामी रामतीर्थः “हाँ हाँ…….. मैं भी इसी को बोल रहा हूँ।”
उनको तो यह और पागलपन लगा। बोलेः
“अरे ! इसको बोल रहा हूँ’ का क्या मतलब ? यही तो तुम हो।”
स्वामी रामतीर्थः “नहीं, मैं यह नहीं हूँ। यह तो ‘रेड मंकी’ है। मैं तो ब्रह्म हूँ। ॐ…..ॐ….ॐ….”
लोगों को आश्चर्य हुआ कि कैसा विचित्र व्यक्ति है ! उन्होंने और चिढ़ाया लेकिन स्वामी रामतीर्थ बड़े प्रसन्न… इतने में कोई सज्जन वहाँ पहुँचे। उन्होंने देखा किः ‘ये तो भारत के कोई पहुँचे हुए महापुरुष लगते हैं। जीसस के लिए तो केवल सुना हैः ‘King of God…. King of Kings….’ लेकिन ये महापुरुष तो सचमुच में राजाओं के राजा लगते हैं। शरीर में होते हुए भी अपने को शरीर से परे मानते हैं इसलिए इन पर अपमान का कोई असर नहीं हो रहा है।’
उन्होंने स्वामी रामतीर्थ को प्रणाम किया और जहाँ उन्हें जाना था वहाँ पहुँचा दिया।
जिस घर में स्वामी रामतीर्थ ठहरे हुए थे उस घर के लोगों ने आज स्वामी जी को ज्यादा प्रसन्न देखकर पूछाः
“स्वामी जी ! आज आप ज्यादा प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं… क्या बात है ?”
स्वामी रामतीर्थः “आज हमने ‘इसका’ मजा लिया। इस ‘रेड मंकी’ को देखकर लोग भी खुश हो रहे थे और मैं भी खुश हो रहा था।”
“कहाँ है रेड मंकी ?”
“यह है रेड मंकी….” अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा।
“नहीं नहीं। यह तो शरीर है और हर सात साल में इसकी हड्डियों तक के सब कण बदल जाते हैं। लोग इसका मजाक उड़ा रहे थे तो हम भी मजा ले रहे थे।”
तब उनको महसूस हुआ कि अपने को शरीर से पृथक मानकर ही स्वामी जी ऐसा कह रहे हैं।
‘यह’ को ‘मैं-मेरा’ मानना – यही सारे दुःखों, पापों, अपराधों एवं राग-द्वेष की जड़ है। ‘यह’ शरीर है, मन है, बुद्धि है। ‘शरीर बदलता है और उसे देखने वाला मैं हूँ… मन बदलता है और उसे देखने वाला मैं हूँ… बुद्धि बदलती है और उसे देखने वाला मैं हूँ…..’
नानकजी ने ठीक ही कहा हैः
मन तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान।
मनुष्य ‘यह’ को ‘मैं-मेरा’ मानकर अपने में योग्यताएँ देखता है तो अहंकार आता है और दुर्गुण देखता है तो विषाद होता है। ‘कुछ करके, कुछ छोड़कर या कुछ पाकर बढ़िया बनूँ….’ यह सब फुरने ‘यह’ को ‘मैं’ मानने से ही उपजते हैं। ‘यह’ को ‘मैं-मेरा’ मानने से गलतियाँ भी ज्यादा होती हैं और दुःख भी बढ़ता है।
‘यह’ को ‘यह’ मानें और ‘मैं’ को ‘मैं’ मानें तो कोई दुःख नहीं होता। इस अभ्यास से सारे दुर्गुण निकलने लगते हैं, सदगुण आने लगते हैं और आध्यात्मिक बल बढ़ने लगता है।
जैसे, सूरज के उदय होते ही वातावरण में जो होना चाहिए वह होने लगता है। पृथ्वी से अंधकार विदा हो जाता है, हानिकारक जीवाणु नष्ट होने लगते हैं, पेड़ पौधों का पोषण होने लगता है, ऑक्सीजन बढ़ने लगता है आदि-आदि। इसके लिए सूरज को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। ऐसे ही आप ‘यह’ को ‘यह’ और ‘मैं’ को ‘मैं’ जान लेंगे तो आपसे जो होना चाहिए वह होने लगेगा और जो नहीं होना चाहिए वह मिटने लगेगा। इसके लिए आपको कोई मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। सब स्वाभाविक ही होने लगेगा।
अतः हिम्मत करके अपने सत्य स्वरूप को पाने में लग जायें। मन-बुद्धि व व्यवहार में जितनी सच्चाई होगी उतना ही सत्यस्वरूप परमात्मा अपने आत्मबल में प्रगट होने लगेगा। परमात्म-आनंद व नित्य नवीन रस अपने सहज स्वरूप को संभालते ही प्राप्त होने लगेगा। यह बहुत ऊँची स्थिति है। इसके लिए सच्चाई से अवश्य लगना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2001, पृष्ठ संख्या 6-8, अंक 100
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