संत श्री आशाराम जी के सत्संग प्रवचन से
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।
‘मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरन्तर परमात्मा में लगावे।’ (गीताः 6.10)
जिसको परमसत्य का अनुभव करना हो, वह भोगबुद्धि से संग्रह न करे। हाँ, औरों के उपयोग में आ जाय, सत्कर्म में लग जाय, इस भावना से आता है और जाता है तो ठीक है। लेकिन ‘मैं इन चीजों से मजा लूँगा, बुढ़ापे में मेरे काम आयेंगी’ ऐसी भोगबुद्धि से संग्रह न करे। संसार की भोगवासनाओं से अपने ओर ऊपर उठाता जाय। भोगबुद्धि से संग्रह न करने वाला, आशारहित तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला अकेला एकान्त में स्थित होकर मन को निरन्तर परमात्मा में लगाये तो वह परमात्मा को पा लेगा।
हम मन को परमात्मा में निरन्तर नहीं लगाते थोड़ी देर के लिए लगाते हैं इसीलिए मार्ग बहुत लम्बा लगता है।
कोई कहता है किः ‘मैं 19 साल से साधना करता हूँ।’ लेकिन तुम 19 साल से ईर्ष्या कितनी कर रहे हो ? द्वेष कितना कर रहे हो ? कपट कितना कर रहे हो ? धोखा धड़ी कितनी कर रहे हो ? उसको एक पलड़े में रखो और ईमानदारी से भक्ति कितनी कर रहे हो उसको दूसरे पलड़े में रखो। फिर भी अभी तुम्हारी जो ऊँची स्थिति है, वह तुम्हारे अहंकार के कारण नहीं है, देने वाले दाता की रहमत के कारण है।
जब अध्यात्म-प्रसाद अधिकारी को मिलता है तो बड़ी शोभा पाता है। अनाधिकारी को मिलता है तो बिखर जाता है फिर भी मिटता नहीं है। जैसे तुम तपेली में देशी घी लेने जाओ और तपेली में घी लेकर फिर दुकानदार को बोलो किः
‘नहीं चाहिए और दुकानदार तपेली में से घी खाली कर ले फिर भी तपेली में चिकनाहट तो रह ही जाती है। ऐसे ही गुरु ने कृपा कर दी और मूर्ख शिष्य ने जहाँ-तहाँ अहंकार करके, इधर-उधर भटककर फेंक दी। फिर भी जो थोड़ी-बहुत योग्यता है वह उस तपेली की चिकनाहट की नाईं ब्रह्मवेत्ता का ही प्रसाद है।
ब्रह्मवेत्ता के प्रसाद को पूर्ण रूप से पचाने के लिए, परमात्म-ज्ञान को पाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। थोड़ा-थोड़ा यत्न नहीं, निरन्तर यत्न हो, निरन्तर प्रयास हो। उस परमात्मा को पाने के लिए एकांत में रहिये, परमात्मा का ध्यान धरिये, सत्संग करिये, मन एवं इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखिये, आशारहित होइये एवं भोगबुद्धि से संग्रह न करिये तो परमात्म-प्राप्ति सहज जाती है। आत्मसुख सहज हो जाता है।
आत्मिक सुख के बिना, उस परमेश्वरीय प्रसाद के बिना कोई कितना भी खड़ेश्वरी, तपेश्वरी बन जाये, कितना भी फलाहारी, व्रतधारी हो जाये, लेकिन सच्ची साधना के बिना सच्चा सुख, सच्ची शांति, सच्चा माधुर्य और सच्चा ज्ञान प्रगट नहीं होता है। सच्ची साधना क्या है ? वही, जो श्री कृष्ण बतला रहे हैं-
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।
सच्ची साधना के स्वरूप का ज्ञान होता है। ‘ईश्वर था, ईश्वर है, ईश्वर रहेगा’ यहाँ तक तो बहुत लोग जा सकते हैं। ‘ईश्वर मुझसे अलग नहीं है और मैं ईश्वर से अलग नहीं हूँ’ ऐसा सुनकर भी कोई कह सकता है। किन्तु जिसने सच्ची साधना की है उसको अनुभव होता है किः ‘परमात्मा और मैं दो नहीं है। जहाँ से ”मैं’ उठता है, वही आत्मा परमात्मा है।
दिव्यता की कमी के कारण ईश्वर दूर दिखता है, पराया दिखता है, परलोक में दिखता है। दिव्य साधना करने से दिव्य ज्ञान होता है और वह ईश्वर अपना-आपा, अपना आत्मा, अपना सोsहंस्वरूप दिखता है, अनुभव होता है। इसी अनुभव को पाने का यत्न निरन्तर करना चाहिए-
योगी युञ्जीत सततम्………
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 105
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