संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
संसारियों को कई गुत्थियों का हल नहीं मिल पाता। यदि मिल भी जाता है तो एक को राजी करने में दूसरे को नाराज करना पड़ता है एवं नाराज हुए व्यक्ति के कोप का भाजन बनना पड़ता है। जबकि ज्ञानियों के लिए उन गुत्थियों को हल करना आसान होता है। ज्ञानी महापुरुष ऐसी दक्षता से गुत्थी सुलझा देते हैं कि किसी भी पक्ष को खराब न लगे। इसीलिए देवर्षि नारद की बातें देव-दानव दोनों मानते थे।
ऐसी ही एक घटना मेरे गुरुदेव के साथ परदेश में घटी थीः एयरपोर्ट पर गुरुदेव को लेने के लिए बड़ी-बड़ी हस्तियाँ आयी थीं। कई लोग अपनी बड़ी लग्जरी गाड़ी में गुरुदेव को बैठाने के लिए उत्सुक थे। एक-दो आगेवानों के कहने से और सब तो मान गये लेकिन दो भक्त हठ पर उतर गये – “गुरुदेव बैठेंगे तो मेरी ही गाड़ी में।” मामला जटिल हो गया। दोनों में से एक भी टस से मस होने को तैयार न था। इन दोनों भक्तों की जिद्द अऩ्य भक्तों के लिए सिरदर्द का कारण बन गयी।
एक ने कहाः “यदि पूज्य गुरुदेव मेरी गाड़ी में नहीं बैठेंगे तो मैं गाड़ी के नीचे सो जाऊँगा।”
दूसरे ने कहाः “पूज्य गुरुदेव मेरी गाड़ी में नहीं बैठेंगे तो मैं जीवित नहीं रहूँगा।”
ऐसी परिस्थिति में ‘क्या करें, क्या न करें ?’ यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था। दोनों बड़ी हस्तियाँ थी, अहं की साइज भी बड़ी थी। दोनों में से किसी को भी बुरा न लगे – ऐसा सभी भक्त चाहते थे। इस बहाने भी ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का सान्निध्य मिले तो अच्छा है – ऐसी उदात्त भावना से उऩ्होंने हल ढूँढने का प्रयास किया किन्तु असफलता मिली।
इतने में तो मेरे गुरुदेव का प्लेन एयरपोर्ट पर आ गया। पूज्य गुरुदेव बाहर आये, तब समिति वालों ने पूज्य गुरुदेव का भव्य स्वागत करके खूब नम्रता से परिस्थिति से अवगत कराया एवं पूछाः “बापू जी ! अब क्या करें।”
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कभी-कभी ही परदेश पधारते हैं। अतः स्वाभाविक है कि प्रत्येक व्यक्ति निकट का सान्निध्य प्राप्त करने का प्रयत्न करे। प्रेम से प्रयत्न करना अलग बात है एवं नासमझ की तरह जिद्द करना अलग बात है। संत तो प्रेम से वश हो जाते हैं जबकि जिद्द के साथ नासमझी उपरामता ले आती है। लोगों ने कहाः
“दोनों के पास एक-दूसरे से टक्कर ले – ऐसी गाड़ियाँ हैं एवं निवास हैं। बहुत समझाया पर मानते नहीं हैं। हमारी गाड़ी में बैठकर हमारे घर आयें – ऐसी जिद्द लेकर बैठे हैं। अब आप ही इसका हल बताने की कृपा करें। हम तो परेशान हो गये हैं।”
पूज्य गुरुदेव बड़ी सरलता एवं सहजता से बोलेः “भाई ! इसमें परेशान होने जैसी बात ही कहाँ है ? सीधी बात है और सरल हल है। जिसकी गाड़ी में बैठूँगा उसके घर नहीं जाऊँगा और जिसके घर जाऊँगा उसकी गाड़ी में नहीं बैठूँगा। अब निश्चय कर लो।”
इस जटिल गुत्थी का हल गुरुदेव ने चुटकी बजाते ही कर दिया कि ‘एक की गाड़ी दूसरे का घर।’
दोनों पूज्य गुरुदेव के आगे हाथ जोड़कर खड़े रह गयेः “गुरुदेव ! आप जिस गाड़ी में बैठना चाहते हैं उसी में बैठें। आपकी मर्जी के अनुसार ही होने दें।”
थोड़ी देर पहले को हठ पर उतरे थे परन्तु संत के व्यवहार कुशलतापूर्ण हल से दोनों ने जिद्द छोड़कर निर्णय भी संत की मर्जी पर ही छोड़ दिया !
प्राणीमात्र के परम हितैषी संतजनों द्वारा सदैव सर्व का हित ही होता है। ब्रह्मज्ञानी ते कछु बुरा न भया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 19, 20 अंक 105
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