विवेक जागृत रखो

विवेक जागृत रखो


(गीतामर्मज्ञ पूज्य श्री गीताज्ञान की पावन गंगा बहाते हुए अपने प्यारे श्रोताओं को कितना सहज में ज्ञानामृत देते हैं उसका एक साक्ष्य आपके समक्ष प्रस्तुत है।)
श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोsनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
‘हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर।’ (गीताः 2.14)
तू भूख-प्यास, मान-अपमान, सुख-दुःख को सहन कर, नहीं सहेगा तो देह में मन लगा रहेगा और सह लेगा तो मन की देह से कुछ पृथकता हो सकेगी। मन परमात्मा में लगाना है तो देह की सुविधा-असुविधा की चिंता छोड़। जन्म-मरण के दुःखों से दूर होना है तो देह में से ममता हटा।
वे लोग सचमुच अभागे हैं जो सारा दिन शरीर को सजाते रहते हैं, आईने में देखते रहते हैं सुन्दरता विकसित करने के लिए सैलूनों में, ब्यूटी पार्लरों में जाया करते हैं। ऐसे देहाध्यासी लोगों को एक क्षण में हँसना, दूसरे क्षण में दुःख हो जाता है। एक क्षण में हँसना, दूसरे क्षण में रोना पड़ता है। ऐसा करते-करते वे पूरा समय गँवा देते हैं। बाद में तिर्यक-पशु-पक्षियों की योनि पाते हैं और भटकते रहते हैं, वे सुख-दुःख सहते हैं फिर भी उनके दुःखों का अंत नहीं आता है।
हे राम जी ! इस जीव ने कौन से दुःख नहीं सहे हैं। संसार में जो भी दुःख हैं वे सब मनुष्य ने सहन किये हैं। कभी तो वह बैल होकर बोझा उठाता है, कभी हाथी होकर जंगलों में भटकता है, कभी हिरण बनाता है तो किसी का शिकार हो जाता है, कभी शिकारी होकर भागता है तो कभी शिकार होकर भागता है।
यह जीव जन्म-से-जन्मांतर तक भागता आया है। चौरासी लाख योनियों से भागता-भागता इस मनुष्य देह में आया है। अब यदि मनुष्य देह में नहीं चेतेगा तो फिर न जाने कितने-कितने जन्मों में भागना पड़ेगा। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘हे अर्जुन ! तू तितिक्षा सह। सत्पुरुषों का संग कर।’
सत्पुरुषों के पास जाने में कोई कष्ट आता है तो तू सहन कर ले, तपस्या हो जायेगी। परमात्मा का ध्यान करने में संसार का कोई पदार्थ, कोई चीज चली जाय तो चिंता मत कर। एक दिन शरीर भी मिट्टी में मिल जायेगा। सच पूछो तो जो परमात्मा का ध्यान करते हैं, संसार की चीजें तो उनके पीछे-पीछे घूमती रहती हैं और जो परमात्मा को छोड़कर संसार के पीछे घूमते हैं उऩके पास संसार का सुख टिकता ही नहीं। मान लो, संसार की कोई चीज छूट जाय, संसार का कोई मित्र नाराज भी हो जाय, संसार का कोई पदार्थ चला भी जाय तो भगवदभक्ति के रास्ते में उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए।
शीत उष्ण, सुख-दुःख आते हैं और जाते हैं। ये आगमापायी और अनित्य हैं। जिस देह को शीत-उष्ण लगता है, जिस देह को भूख-प्यास लगती है, वह देह भी शाश्वत नहीं है तो उस देह पर आने वाले सुख-दुःख सदा कैसे रहेंगे ? इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि अपना अधिक-से-अधिक समय मौन, एकांत, ध्यान में, संतों के सान्निध्य में अथवा निःस्वार्थ होकर समाज व संतों के बीच सेतु बनने के दैवीकार्य में गुजारें। लोगों से कम-से-कम परिचय करें, कम-से-कम बोलें ,कम-से-कम सोयें, शरीर को टिकाने के लिए ही खायें और बार-बार विचार करें किः “मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया हूँ ? आखिर मैं कहाँ जाऊँगा ? संसार की सब सुविधाएँ मिल जायें, आखिर क्या ?”
एक बात यदि आप याद रखोगे तो कल्याण हो जायेगा। प्रतिदिन अपने से पूछो…. कुछ भी काम करो, काम करने के पहले और काम करने के बाद अपने-आपसे पूछो किः आखिर यह सब कब तक ? बस, इतना ही याद रखोगे तो बहुत बढ़िया होगा। दिन में बार-बार पूछो किः ‘आखिर क्या ?’ आखिर यह सब कब तक ? आखिर इन सबका क्या ?’ बार-बार ऐसा सोचोगे तो विवेक जगेगा। विवेक जगने से वैराग्य आता है। जिसकी बुद्धि में वैराग्यरूपी फूल खिला है, उसके जीवन में षट्सम्पत्तिरूपी भँवरे आने लगते हैं।
जब तक विवेक नहीं है तब तक मन चंचल है। जरा-सा विवेक जागृत रखो तो मन शांत जायेगा। विवेक प्रगाढ़ होगा तो वैराग्य टिकेगा तो यश भी टिकेगा, वैराग्य टिकेगा तो मान भी टिकेगा, वैराग्य टिकेगा तो अर्थ भी टिकेगा और वैराग्य गया तो सब गया ! वैराग्य का बाप है विवेक। जगत की नश्वरता का विवेक करो।
क्या करिये क्या जोड़िये, थोड़े जीवन काज।
छोड़ी-छोड़ी सब जात हैं देह, गेह, धन, राज।।
कोई रोता बिलखता मरता है तो कोई एकाएक मरता है, कोई बीमार होकर मरता है तो कोई तंदुरुस्त ही मर जाता है, लेकिन सच्चा मरना तो उसी का है जो परमात्मा के ध्यान में मर जाय। धन्य तो उसी का जीना है जो परमात्मा में डूबकर परमात्ममय हो जाता। जिसका मन परमात्मा के ध्यान में डूबा है, जिसका मन परमात्मा की मस्ती में मरा है उसको काल का क्या मारेगा ? जो परमात्मा में मर रहा है उसको दुनिया क्या मारेगी ? वह तो परमात्मा में मरकर परमात्ममय हो गया है।
मूर्ख आदमी संसार में खपकर संसारी हो जाते हैं, जड़वादी जड़ चीजों के पीछे जड़ बन जाते हैं, भोगवादी भोगों में खपकर भोगी बन जाते हैं, लेकिन कोई-कोई गुरुमुख, कोई-कोई हरि का प्यारा है जो विवेक को सजाग रखकर अपने मन को परमात्मा में लगाता है, सत्पुरुषों की संगति में लगाता है, प्रणव के जाप में लगाता है।
बहिरंग जप करते-करते फिर मानसिक जप होता है तो मन के कल्मष दूर होते हैं, तन के पाप नाश होते हैं। शरीर के दोष और मन की चंचलता कम होती है। जप से तन और मन के दोष दूर हो जाते हैं तो फिर ध्यान लगना स्वाभाविक शुरु हो जाता है और आदमी अपने मूलस्वरूप में प्रगट होने लगता है।
आपका मूलस्वरूप है आत्मा। आपका मूलस्वरूप है चैतन्य सच्चिदानंद परमात्मा। आपका मूलस्वरूप है अजन्मा, आपका मूलस्वरूप है अविनाशी, आपका मूलस्वरूप है त्रिकालाबाधित। आप धीरे-धीरे अपने मूलस्वरूप की एक बार थोड़ी-सी भी झाँकी आ जाय फिर नागकन्याओं का सुख भी तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकेगा, अप्सराओं का सुख भी तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकेगा, देवों, यक्षों और किन्नरों का सुख भी तुम्हें आकर्षित नहीं कर सकेगा तो संसार के तुच्छ सुख तुम्हें क्या बाँध सकेंगे ?
इसीलिए विवेक को सदैव जागृत रखें। मन को समझायें- ‘आखिर कब तक ? पुत्र की चिंता भी क्यों और कब तक करेगा ? अगले जन्म में तेरे कितने पुत्र-पुत्री परिवार हो गये, कितनी पत्नियाँ हो गयीं, तू किस-किसकी चिंता करेगा ?’
जिसने अनुराग का दान दिया उससे कण माँग लजाता नहीं….
जिसने तेरी आँखों के देखने की सत्ता दी, जिसने तेरे पैरों को पसारने का सामर्थ्य दिया, जिसने तेरे होठों को हिलने की सत्ता दी, जिसने तेरे मन के संकल्पों को स्फुरने की सत्ता दी, जिसने तेरी बुद्धि को निर्णय करने की सत्ता दी, जिसने तुझे इतना-इतना दान दिया उसको भूलकर तू कहाँ भटकता है ?
इन्द्रियों के सुख क्षणिक हैं। कोई आँख के सुख में फँसा है ,कोई जीभ के सुख में फँसा है, कोई नाक के सुख में फँसा है, कोई कान के सुख में फँसा है और कोई त्वचा के सुख में फँसा है। जिस सुखस्वरूप परमात्मा की सत्ता से ये इन्द्रियसुख भासते हैं, उस सुखस्वरूप परमात्म-चेतना का अनुभव करो। तुम तुच्छ इन्द्रिय सुख के पीछे अपना जीवन बरबाद न करो।
जिसने अनुराग का दान दिया उससे कण माँग लजाता नहीं।
अपना भूल समाधि लगा, यह पिउ का वियोग सुहाता नहीं।
नभ देख पयोधर शाम ढले, क्यों मिट उसमें मिल जाता नहीं।
अब सीख ले मौन का मंत्र नया, ये पीउ का वियोग सुहाता नहीं।
चुगता है चकोर अंगार, फरियाद किसी को सुनाता नहीं।
अरे ! चकोर पक्षी उस पिया के प्रेम में अंगार चुग जाता है फिर भी किसी से शिकायत नहीं करता और ‘हे मन ! तू सुख-दुःख की शिकायत करता है ? प्रतिकूलता में कायरों जैसा भागता है ? जरा-सा अपमान हो जाता है तो तू कमजोर हो जाता है ? प्रभु को छोड़ देता है ? जरा सा मान मिलता है तो प्रभु को छोड़ देता है ?
आदमी की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है, आदमी का आखिरी-में-आखिरी दुर्भाग्य यह है कि वह पहला ही कुठाराघात अपने साधन-भजन और विवेक पर करता है। संसार का कोई काम आ गया तो भजन छोड़ दिया, संध्या वंदन छोड़ दिया। आदमी पहली कैंची चलाता है – सत्संग पर, ध्यान भजन पर।
शास्त्र कहते हैं- शतंविहाय भोक्तव्यम्…. सौ काम छोड़कर भोजन कर लेना चाहिए।
……..सहस्त्रम् स्नानम् आचरेत्।
हजार काम छोड़कर स्नान कर लें। स्नान से सत्त्वगुण बढ़ता है। सत्त्वगुण से विवेक पुष्ट होता है। सत्त्वगुण बढ़ने से मनोबल बढ़ता है, संकल्प सत्य होने लगता है, सत्त्वगुण अत्यधिक होने से ऋद्धि-सिद्धि हाजिर हो जाती है।
सूर्योदय के पहले स्नान करने से बुद्धि पवित्र होती है, ध्यान-भजन में भी बरकत आती है और संसार के व्यवहार में, कमायी में भी बरकत आती है। पहले के जमाने में लोग चार बजे उठकर स्नानादि करके संध्या-वंदन करते थे। तब परिवार में एक व्यक्ति कमाता था फिर भी सुखी जीवन गुजारते थे और अभी पति और पत्नी दोनों कमाते हैं फिर भी बरकत नहीं होती और जरा-जरा बात में खिन्न हो जाते हैं।
लक्ष्यम् विहाय दातव्यम्…..
लाख काम छोड़कर भी दान करने का मौका आ जाय तो दान कर दें। धन का दान करें, धन न हो तो किसी को आश्वासन दें, प्यासे को पानी का प्याला ही दान करें लेकिन कुछ-न-कुछ दान करें क्योंकि शरीर नाशवान है। मौत कब आ जाय निश्चित नहीं है। इसलिए शरीर से कुछ देना सीखें, ताकि एक बार प्रभु के लिए शरीर भी देना पड़े तो दे सकें। शरीर देकर भी यदि परमात्मा मिलता है तो सौदा सस्ता है। नहीं तो शरीर को तो श्मशान में लकड़ियाँ जला देंगी। दान भी प्रभु को पाने की प्रक्रिया का एक अंग है।
…….कोटि त्यक्त्वा हरिभजेत्। करोड़ काम छोड़कर हरि का स्मरण करो, हरि का ध्यान करो।
आज आदमी का सोचने का तरीका इतना गलत हो गया है कि घर में कोई मेहमान आ जाय, संसार में कुछ काम आ जाय या ऑफिस के साहब को रिझाना पड़े तो ध्यान-भजन को छोड़ देता है। अरे ! आत्म-साहब को छोड़कर बाहर के साहबों को रिझाने जायेगा तो साहब राजी नहीं होंगे, तेरा शोषण होगा और तू आत्म-साहब के रास्ते चलेगा तो साहबों के भी साहब (आत्म-साहब) उस साहब का चित्त बदल देंगे। जो काम हजारों-लाखों खर्च करके नहीं होता वह तेरे ध्यान-भजन के प्रभाव से अपने-आप भी हो सकता है।
कबीरा यह जग आयके, बहुत से कीने मीत।
जिन दिल बाँधा एक से, वे सोये निश्चिंत।।
कोई मित्र से मिलने के लिए सत्संग छोड़ देते हैं, कोई धन कमाने के लिए सत्संग छोड़ देते हैं, कोई नोटिस को ठीक करने के लिए सत्संग छोड़ देते हैं। जब संसार में प्रतिकूलता आ जाती है या अधिक अऩुकूलता आ जाती है तो व्यक्ति पहला खून करता है, साधन-भजन का। पहली गोली मारता है ध्यान-भजन के समय को। जो ध्यान-भजन का समय काट देता है उसको काल भी उठा लेता है।
जो ध्यान भजन नहीं करता उसको भीतर का रस नहीं आता। जिसको भीतर का रस नहीं आता, वह बाहर के रसों में अपना कीमती समय गँवा देता है और बाहर से सजा-धजा तो दिखता है लेकिन भीतर से खोखला हो जाता है। आखिर भगवान की कृपा, संतों की कृपा से कुछ काम तो होता है लेकिन अपने कर्म इतने तीव्र होते हैं कि कुछ तो भोगना ही पड़ता है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं-
शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्त्रं स्नानं आचरेत्।
लक्ष्यं विहाय दातव्यं कोटि त्यक्त्वा हरिभजेत्।।
‘सौ काम छोड़कर भोजन करो। हजार काम छोड़कर स्नान करो। लाख काम छोड़कर दान करो और करोड़ काम छोड़कर हरि का स्मरण करो, हरि का स्मरण करो, हरि का ध्यान करो।’ हरि के ध्यान से तुम स्वयं हरिमय हा जाओगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्टूबर 2001, पृष्ठ संख्या 7-9, अंक 106
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *