(कल-कल, छल-छल करती पतित पावन गंगा, यमुना एवं सरस्वती का त्रिवेणी संगम स्थल अर्थात् तीर्थराज प्रयाग में पूज्य श्री ने तीन महीने के मौन के बाद बहायी गीता-ज्ञान गंगा….)
क्यों सिद्ध बनना चाहता, तुझी से सब सिद्ध हैं।
हैं खेल सारी सिद्धियाँ, तू सिद्ध का भी सिद्ध है।।
अपनी आत्मा को देखो, अपने परमेश्वर से नाता जोड़कर चेष्टा करो। अपने दिलबर को पीठ देकर शरीर का अहं सजाओगे तो कहीं के नहीं रहोगे। रावण और कंस इसी में तबाह हो गये। हिटलर और सिकंदर में भी बहुत-सी योग्यताएँ थीं लेकिन… शरीर का नाम भी कब तक रहेगा
परमेश्वर के नाते आप सबसे मिलें… परमेश्वर के नाते पति की, पत्नी की, साधक की, संत की, सबकी सेवा करें, बस। तभी आपको विश्रांति मिलेगी और विश्रांति आपकी मांग है। परमात्मा में विश्रांति पाने से आपका जीवन स्वाभाविक ही स्वस्थ, सुखी और सन्मानित हो जायेगा, उसके लिए आपको कोई नाटक नहीं करना पड़ेगा, उसके लिए आपको कोई नाटक नहीं करना पड़ेगा उसके लिए आपको कोई षड्यंत्र नहीं करना पड़ेगा। मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप जो करें, ईश्वर के नाते करें।
‘मुझे यह सुख देगा… यह काम में आयेगा….’ ऐसा सोचकर परमेश्वर के साथ क्यों गद्दारी करता है ? जो मौत के बाद भई तेरा साथ नहीं छोड़ेगा, उसको छोड़कर तू मरने वाले का आश्रय लेता है ? मिटने वाले का आश्रय लेता है ? अमिट का आश्रय छोड़कर मिटने वाले का कब तक आश्रय लेगा ? शाश्वत को छोड़कर नश्वर की शरण कब तक जायेगा ?
‘यह मेरे काम आयेगा…. वह मेरे काम आयेगा….’ ना, ना ! ये शरीर के काम आयेंगे तो अहंकार बढ़ेगा और काम नहीं आयेंगे तो दुःख, विषाद व अशांति होगी। तेरे काम तो केवल तेरा पिया आयेगा। तू नींद में रोज उसी में जाता है, कभी ध्यान में बैठे-बैठे भी उसमें जा…. तेरा तो कल्याण होगा, तेरी मीठी निगाहें जिस पर पड़ेंगीं वह भी उन्नत होने लगेगा, महान आत्मा होने लगेगा।
‘श्रीमद् भगवदगीता’ में आता हैः
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद् भावमागताः।।
‘राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित, मेरे में ही तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए बहुत से भक्त मेरे भाव को, मेरे स्वरूप को, मेरे अनुभव को प्राप्त हो चुके हैं।’ (गीताः 4.10)
वीतराग…. राग को हटाता जा…. भयक्रोधा…. डर क्यों लगता है ? शरीर को ‘मैं’ मानता है, वस्तुओं को सच्चा मानता है इसलिए तू डरता है, विकारों को पोषता है इसलिए तू डरता है, कपट रखता है इसलिए तू डरता है। तू सच्चाई की शरण ले। भय हटा दे।
क्रोध क्यों होता है ? वासना की पूर्ति में कोई छोटा विघ्न डालता है तो उस पर क्रोध होता है, बड़े से भय लगता है, बराबरी वाले से द्वेष होता है। तू वासना को महत्व को न दे, तू परमात्मा की प्रीति को महत्व दे मेरे प्यारे ! तो तू सचमुच में प्रभु का प्यारा हो जायेगा।
तू परमात्मा की प्रीति को महत्व न दे, तू परमात्मा की प्रीति को महत्व दे मेरे प्यारे ! तो तू सचमुच में प्रभु का प्यारा हो जायेगा।
तू परमात्मा की प्रीति को महत्व देना भूल गया है इसलिए क्रोध में पचता है, भय से काँपता है, राग में फँसता है मेरे भैया ! तू फँसने के लिए, तपने के लिए नहीं आया। तू संसार के स्वामी का अनुभव करके मुक्त होने के लिए संसार में आया है।
जरा जरा बात में क्यों डरता है ? जरा-जरा बात में क्यों चिंतित होता है ? दो रोटी ही तो खानी हैं। किसी करोड़पति की स्त्री फुटपाथ पर दो रोटी माँगे तो इज्जत किसकी जायेगी ? करोड़पति की जायेगी। ऐसे ही करोड़पतियों के बाप के भी बाप परमेश्वर ने तुझे पैदा किया है, वह अगर तुझे भूखा और नंगा रखता है तो उसकी इज्जत का सवाल है, इसमें तेरा क्या बिगड़ता है ?
उसकी शान वह सँभलता है। फिर क्यों कपट करें ? क्यों चिंता करें ? क्यों डरें ? क्यों रोयें ? राग, भय और क्रोध को आज से ही अलविदा कर दे। जैसे त्रिवेणी में बालू और तिनके बह जाते हैं ऐसे ही सत्संग की त्रिवेणी में आज वे तीनों चीजें बहा दें, बस ! ‘भय, क्रोध और राग तू जा…. प्रीति, नम्रता और प्रभु-आस्था तू मेरे दिल में आ…’
‘मुझे बड़ी चिंता है, मैं क्या करूँ….?’ अरे ! जन्म लेना तेरे हाथ में नहीं है। बालों को सफेद होने से रोकना तेरे हाथ में नहीं है। मौत को थाम लेना तेरे हाथ में नहीं है। अन्न पचाना तेरे हाथ में नहीं है। भूख लगाना तेरे हाथ में नहीं है। रक्त का संचार करना तेरे हाथ में नहीं है। वह परमात्मा ये सब कर रहा है तो बाकी का भी उसके चरणों में सौंपकर तू विश्रांति पा। फिर देख, हँसने का भी मजा…. खाने का भी मज़ा… पीने का भी मज़ा…. जीने का भी मज़ा… मरने का भी मज़ा… तू चिंता मत कर, चिंतन कर, भैया !
मन्मया….. अर्थात् उसी ब्रह्म परमात्मा के चिंतन के एकाकार होना। मामुपाश्रिताः…. मेरे आश्रित हो जा ! जैसे, बच्चा माँ-बाप, दादा-दादी के आश्रित होता है तो मध्यरात्रि में भी उन्हें दोड़-धूप करा देता है क्योंकि बच्चा उनके आश्रित है। ऐसे ही तुम भी परमात्मा के आश्रित हो जाओ। फिर देखो, वह कितना सँभालता है….
‘मुझे तो बहुत मिला है। मैं आपको क्या बताऊँ ? मैं एक आसाराम नहीं, हजार आसाराम हों और एक-एक आसाराम की हजार-हजार जिह्वाएँ हो फिर भी उसने जो दिया है, उसका बयान नहीं कर सकता हूँ ! आपको सच बोलता हूँ। आप उसका आश्रय लें, आपसे मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ।
जो सभी का आश्रय है, आपका भी सचमुच में वही आश्रय है लेकिन आप कपट का आश्रय लेकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं…. आप काम का आश्रय लेकर अपने को नोचते हैं… आप द्वेष का आश्रय लेकर अपने को सताते हैं… आप लोभ का आश्रय लेकर अपने को डुबोते हैं। आप उसी का आश्रय लीजिये, जो ब्रह्माण्डों का आश्रयदाता है, आपका भी वही आश्रयदाता है। जो मेरी जीभ का आश्रयदाता है, आपके कानों का भी वही आश्रयदाता है। इतने निकट के आश्रयदाता को छोड़कर कब तक भटकते रहोगे ? कब तक गिड़गिड़ाते रहोगे ? कब तक पचते रहोगे ?… क्या आपकी बुद्धि निर्णय कर सकती है उसके आश्रय के बिना ? क्या आपका मन सोच सकता है उसके आश्रय के बिना ? क्या आपका शरीर चल सकता है उसके आश्रय के बिना ? क्या धरती टिक सकती है उसके आश्रय के बिना ?
इतने समर्थ प्रभु का आश्रय छोड़कर कहाँ तक भटकोगे ? कब तक भटकोगे ? भैया !
कबीरा माँगे माँगणा प्रभु दीजे मोहे दोय।
संत समागम हरि कथा मो उर निशदिन होय।।
संत समागम, हरि-कथा हरि स्वरूप के आश्रय में स्थित करते हैं। उस आश्रय में गोता मारना ही सत्संग का उद्देश्य है।
हम आश्रय तो भगवान का लेते हैं और प्रीति संसार से करते हैं। नहीं, आश्रय भी भगवान का और प्रीति भी भगवान की। आपका तो काम बने जायेगा, आपकी मीठी निगाहें जिस पर पड़ेंगी उसका भी मंगल होने लगेगा। यह बिल्कुल सच्ची बात है। उसका आश्रय लेकर तो देखो ! हम परमात्मा का थोड़ा बहुत आश्रय लेते भी हैं लेकिन प्रीति संसार की होने से उस आश्रय का पूरा लाभ, पूरा सुख नहीं ले पाते। उसका पूरा लाभ व पूरा सुख पाने के लिए आश्रय भी उसी का और प्रीति भी उसी की हो।
आश्रय तो श्रद्धालु भी लेते हैं लेकिन उसको बाहर खोजते हैं, दूर खोजते हैं। कहते तो हैं- ‘हम भगवान की शरण में हैं।’ लेकिन आप अपने को तो जानो कि शरण में जाने वाला कौन है ? और जिस भगवान की शरण में जाते हो उसकी शरण को भी जान लो। कैसे जानें ? ज्ञानरूपी तप से।
भगवान कहते हैं-
…..बहवो ज्ञानतपसा पूता मद् भावमागताः।।
……. बहुत से भक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं।’ अर्थात् जैसे भगवान मुक्तात्मा, ब्रह्म परमात्मा हैं ऐसे ही अपने को मुक्तात्मा, ब्रह्म परमात्मा समझकर कई भक्त भगवान को प्राप्त हो चुके हैं। आप भी भगवान को जानकर मुक्तात्मा हो जाओ। अपना लक्ष्य ऊँचा बना लो और उसका बार-बार सुमिरन करो। दोहराओः
लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल।
सफलता तेरे चरण चूमेगी, आज नहीं तो कल।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 107
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