लाल किलाः समृद्धशाली हिन्दू समाज का प्रतीक…..

लाल किलाः समृद्धशाली हिन्दू समाज का प्रतीक…..


भारत के प्राचीन समृद्धशाली समाज का ऐसा जीवंत उदाहरण जिसे देखने के लिए प्रतिदिन लोगों की भीड़ लगी रहती है, जहाँ से स्वतंत्रता एवं गणतंत्र दिवस जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्वों पर भारत के प्रधानमंत्री देश की जनता को संबोधित करते हैं, भारत की राजधानी में जिसने आज भी अपनी विशेष पहचान बना रखी है, वह ऐतिहासिक स्थल है ‘लाल-किला।’

लोग झुलसाती गर्मियों में भी अपने सूखों कंठों की चिन्ता किये बिना, अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर इस भव्य किले को देखने के लिए आते हैं परन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बेवकूफ ही बनाया जाता है। भारत की आजादी के 45 वर्ष बाद भी अंग्रेजों के भारत विरोधी सिद्धान्त एवं तथ्यविहीन व्यक्तिगत मान्यताओं को भारतीय इतिहास के नाम पर पढ़ाया जाता है।

‘लाल-किला’ के बारे में जानने की उत्सुकता रखने  वालों को यह झूठा किस्सा सुना दिया जाता है कि भव्य किले का निर्माण भारत के पाँचवें मुगल शासक शाहजहाँ ने करवाया।

सरकारी इतिहास के अनुसार शाहजहाँ सन् 1628 में राजगद्दी पर बैठा। उस समय तक मुगलों ने आगरा को अपनी राजधानी बना रखा था, परन्तु शाहजहाँ ने एक नया शहर ‘शाहजहाँबाद’ (पुरानी दिल्ली) बसाया तथा वहाँ अपनी राजधानी स्थानान्तरित कर दी। उस भव्य शहर के किले (लाल-किला) में उसने 1648 में यमुना नदी की ओर स्थित द्वार से प्रवेश किया और उसने दिल्ली में अपना पहला दरबार लालकिले के दीवाने आम में लगाया।

सर्वप्रथम तो हम शाहजहाँ-प्रेमियों से यह पूछना चाहते हैं कि जब ‘ताजमहल’ को हथियाने की बात चलती है तब आप शाहजहाँ-मुमताज की थोथी प्रेमकथा गढ़ देते हो। वहाँ आप कहते हो कि मुमताज के मरने के बाद शाहजहाँ उसकी कब्र के पास बैठकर आँसू बहाया करता था। कभी वह ताजमहल को आइने में देखते-देखते रोता रहता था।

इतिहासकारों के अनुसार मुमताज की मृत्यु लगभग सन् 1629 (संदेहास्पद) में हुई तथा ताजमहल उसके 19 साल बाद बनकर तैयार हुआ। अर्थात् सन 1648 में तो शाहजहाँ पागलों की तरह कभी मुमताज की कब्र पर तो कभी ताजमहल को आइने में देखकर रोता रहता था, उसने इतने बड़े नगर को बसाने की योजना कब और कैसे बना ली ?

आगरा जैसी प्राचीन नगरी, जहाँ उसने अपनी जान से भी प्यारी बेगम के लिए ‘ताजमहल’ जैसा भव्य मकबरा बनाया ही, ऐसे स्थान में अपनी प्रियतमा की कब्र को हमेशा के लिए सूनी छोड़कर वह दिल्ली क्यों आ धमका ?

सबसे बड़ी बात यह है कि शाहजहाँ ने न तो ‘शाहजहाँबाद’ नामक कोई नगर बसाया था और न ‘ताजमहल’ एवं ‘लाल-किला’ बनवाया। फिर भी बिना किसी खोजबीन एवं पुरातत्वीय जाँचपड़ताल के सिरफिरे अंग्रेजों के झूठे पुलिंदों को ‘पत्थर पर लकीर’ मानकर उस पर सरकारी मुहर लग जाती है, यह कितनी शर्मनाक बात है।

‘लाल-किला’ की पुरातत्वीय जाँच में अभी तक इस बात का एक भी ऐसा ठोस प्रमाण नहीं है जो यह सिद्ध कर दे कि इसे शाहजहाँ ने बनवाया था। हाँ, इस बात के ढेरों प्रमाण मिलते हैं कि यह किसी समृद्धशाली हिन्दू सम्राट द्वारा निर्मित ऐसा भव्य किला है जिस पर जबरन शाहजहाँ जैसे दुष्ट एवं गँवार शासक का नाम थोप दिया गया है।

इस विषय में हम किले के रंग को ही पहला प्रमाण मानते हैं। किले का भगवा रंग हिन्दुओं के लिए आदरणीय है। भगवा हिन्दू धर्म की पवित्र पहचान है। मुस्लिम धर्म में हरे रंग का महत्व है। एक पुरानी कहावत भी है कि जब मुगल भारत पर अधिपत्य जमा रहे थे, तब वे भगवा रंग को देखते ही हरे (जहरीले) हो जाया करते थे। (शाहजहाँ स्वयं भी एक धर्मान्ध व्यक्ति था।) उसके जीवन में धार्मिक सहिष्णुता जैसी कोई चीज नहीं थी। ऐसा धर्मान्ध व्यक्ति अपने किले पर अपने शत्रुओं  या शाहजहाँ की भाषा में कहें तो काफिरों का धार्मिक रंग क्यों लगवाता ? वह तो उसे हरा रखना ही बेहतर समझता।

किले के लगभग 80 बुर्ज अष्टकोणात्मक रचनाएँ हैं। हिन्दू धर्म में अष्टकोणों का विशेष महत्व है जबकि मुगलों का इससे कोई लेना-देना नहीं। इन बुर्जों पर बने छत्र भी अष्टकोणिय हैं तथा उनके गुम्बदीय शीर्षों पर शिखरों के नीचे पुष्प बने हुए हैं। इस प्रकार के पुष्पाच्छादित गुम्बद मुस्लिम निर्माण में नहीं होते (चाणक्यपुरी, दिल्ली स्थित पाकिस्तानी दूतावास का गुम्बद इस बात का जीवंत उदाहरण हैं।)

लालकिले की निर्माण शैली पर यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाये तो पता चलता है कि इसका निर्माण हिन्दू वास्तुकला के सिद्धान्तों पर किया गया है। किले की पूर्व दिशा में बह रही यमुना नदी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। हिन्दू घुटनों तक के जल में खड़े होकर प्रातःकाल के उदयीमान सूर्यनारायण को जल (अर्घ्य) चढ़ाकर उनकी अर्चना करते हैं। यमुना नदी का यह भाग इसीलिए ‘राजघाट’ कहलाता है क्योंकि यह राजाओं तथा राज परिवारों के लिए विशेष रूप से बनाया गया था। यदि शाहजहाँ ने लाल किला बनवाया होता तो शायद यह घाट होता ही नहीं और यदि होता भी तो ‘बादशाह घाट’ या ‘बेगम घाट’ ही कहलाता ‘राजघाट’ नहीं।

लालकिले की प्रत्येक मेहराब के दाएँ-बाएँ स्कन्धों पर सूर्यमुखी पुष्प बने हुए हैं। ये सूर्यमुखी पुष्प इस किले का सूर्यवन्शी हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित होने का प्रमाण देते हैं।

लालकिले के ‘खासमहल’ के भीतर बना हुआ प्राचीन हिन्दू राजवंशी राजचिन्ह आज भी लाल किला की सत्यता प्रकट कर रहा है। इस राजचिन्ह में एक कलश में कमलदण्डी खड़ी है। इस कमलदण्डी के ऊपरी छोर पर न्यायतुला झूल रही है। न्यायतुला के ऊपर जाज्वल्यमान सूर्यनारायण एवं दोनों ओर भगवान श्रीविष्णु के हाथ में शोभायमान होने वाला शंख है।

उपरोक्त चिन्ह की प्रत्येक वस्तु हिन्दू धर्म में अत्यन्त पवित्र मानी जाती है जबकि इस्लाम से इनका कोई संबंध नहीं है। ‘ताजमहल’, ‘पुरानी दिल्ली’, ‘लालकिला’ एवं जामा मस्जिद जैसी आश्चर्यजनक कृतियों को बनाने वाला शाहजहाँ क्या इतना बड़ा मूर्ख रहा होगा कि वह अपने निवास के एक महत्वपूर्ण स्थान पर जिसे खासमहल कहा जाता है वह उन काफिरों के धार्मिक चिन्ह बनवाये जिन्हें कुचलने के लिए वह सदा तत्पर रहता था ?

तथाकथित दीवाने-आम के चारों ओर का क्षेत्र आज भी गुलाल-बाड़ी के नाम से जाना जाता है। गुलाल या कुमकुम का लाल रंग हिन्दुओं के ललाटों पर तिलक के रूप में शोभायमान होता है। हिन्दुओं की सुहागिन नारियाँ अपने पति की दीर्घायु की कामना हेतु इससे अपनी माँग सजाती है। उनके लिए यह सबसे बड़ा सौभाग्यसूचक चिन्ह है, जबकि मुसलमानों में गुलाल का कोई विशेष महत्व नहीं है।

अतः शाहजहाँ द्वारा निर्मित लालकिले के उस क्षेत्र को घेरने वाला स्थान जहाँ उसने अपना पहला दरबार लगाया था, गुलालबाड़ी नहीं हो सकता। दीवाने आम की तरह उसका भी कोई अरबी नाम होना चाहिए था।

संदर्भ ग्रंथः ‘दिल्ली का लाल किला लाल कोट है’, ‘भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें एवं विश्व इतिहास के विलुप्त अध्याय।’ (लेखक पी.एन.ओक.)

संकलनकर्ताः मदन लखेड़ा, साहित्य विभाग, संत श्री आसारामजी आश्रम

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 25-27 अंक 108

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