आसुरी, राक्षसी और मोहिनी भाव

आसुरी, राक्षसी और मोहिनी भाव


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा हैः

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।

‘वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं।’ गीताः 9.12

आसुरी भाव, दैत्य भाव और मोहिनी भाव – ऐसे तीन प्रकार के भाव वाले लोग भगवान से विमुख होकर सारे किये-कराये पर पानी फिरा देते हैं। उनकी जो कुछ भी अच्छी प्रवृत्ति होती है वह भी अंत में नष्ट हो जाती है क्योंकि अच्छी प्रवृत्ति का फल भी वे नश्वर प्रकृति की चीजें चाहते हैं।

मानों यज्ञ भी कर लेते हैं, दान भी कर लेते हैं, पुण्य कर्म भी कर लेते हैं लेकिन दान पुण्यादि सत्कर्म का फल वे स्वर्ग चाहते हैं और स्वर्ग का भोग भोगकर उनके पुण्य नष्ट हो जाते हैं। अच्छे कर्म करके वाहवाही चाहते हैं तो अच्छे कर्म हुए, वाहवाही मिली…. बस, वाहवाही । भोगकर समय खराब हो जाता है। हाथ में  मिला क्या ?

बुरे कर्म करने वाले तो अपना सत्यानाश करते ही हैं लेकिन अच्छे कर्म करने वाले ज्ञानविहीन लोग भी आसुरी प्रकृति का आश्रय लेते हैं। मोघाशा….. भगवान से विमुख होना यह ‘मोघ’ है। स्वर्ग को पाया, ऋद्धि-सिद्धि को पाया, प्रसिद्धि को पाया लेकिन आखिर क्या ?

मैं हनुमान जी से स्नेह करता हूँ, उनको प्रणाम करता हूँ। उनके पास इतनी योग्यताएँ होने के बावजूद वे उन योग्यताओं में रूके नहीं। आत्मा-परमात्मा को पाने के लिए श्रीराम जी की सेवा में लग गये। अर्जुन ने श्री कृष्ण की आज्ञा में रहकर परमात्मतत्व को पा लिया।

ईश्वर के सिवाये कहीं भी मन लगाया तो अंत में रोना ही पड़ेगा। मोघाशा मोघकर्माणो.… भगवान से विमुख आशा एवं भगवान से विमुख कर्म जो चाहते हैं ऐसे लोग अपना जीवन, समय और ज्ञान व्यर्थ कर देते हैं।

लोग दुनियाभर के ज्ञान से अपनी बुद्धि को सम्पन्न कर दें, धन के भण्डार कर लें, स्वदेश में धन्य हो लें, विदेश में सम्मानित हो लें लेकिन गुरुतत्व अर्थात् आत्मा-परमात्मा में प्रीति नहीं हुई तो आखिर क्या ? जो भगवान से विमुख हैं वे यज्ञ कर लें, दान कर लें, तप कर लें, लेकिन उसका फल यदि सत्यस्वरूप ईश्वर को नहीं चाहते तो असत् भोग चाहेंगे और असत् भोग समय लेकर नष्ट हो जाते हैं। तो आखिर मिला क्या ? मिली समय की बरबादी, वासनाओं की गुलामी, दीनता-हीनता। स्वार्थ से, कामना की पूर्ति से प्रेरित होकर जो कर्म करते हैं, ‘भले किसी की हानि हो तो हो लेकिन मेरा यह काम होना ही चाहिए….’ ऐसा सोचकर उस काम के पीछे अपना ज्ञान, अपनी क्रियाशक्ति और अपनी भावना लगा देते हैं, ऐसे स्वभाव वाले लोगों को ही आसुरी प्रकृति के लोग कहा गया है।

आसुरी प्रकृति के लोग अर्थात् ऐसे लोग नहीं जो अनपढ़ होते हैं, अश्रद्धालु होते हैं या मूर्ख होते हैं। नहीं….. उनमें योग्यताएँ तो बहुत सारी होती हैं लेकिन ईश्वर प्राप्ति के सिवाय की चीजों में ही उनकी योग्यताएँ लगती हैं। मिथ्या सुख की प्राप्ति में, मिथ्या देह के आराम में ही उनकी सारी योग्यताएँ लगी रहती हैं। आसुरी भाव का आश्रय लेने वाला व्यक्ति अपनी कामनापूर्ति के लिए सब कुछ करने को तैयार हो जायेगा लेकिन ईश्वर प्राप्ति की कामना नहीं करेगा।

दूसरे होते हैं राक्षसी भाव वाले व्यक्ति। अपने स्वार्थ की पूर्ति में यदि कोई विघ्न डालेगा तो उस पर कोपायमान हो जायेंगे। ‘अपना स्वार्थ सिद्ध हो फिर दूसरे चाहे भूखे रहें चाहे मरें, चाहे कुछ भी हो लेकिन मेरी लौकिक कामना सफल हो…’ ऐसी वृत्तिवाले लोग राक्षसी भाव का आश्रय लेते हैं।

तीसरे होते हैं मोहिनी भाव का आश्रय लेने वाले। मोहिनी भाव उसे कहते हैं कि उड़ते हुए पक्षी को गोली मार दी, बैठे हुए किसी निर्दोष आदमी को ठोकर मार दी। कोई सोया है और उसके कान में सलाई भोंक दी। किसी से कोई लाभ की इच्छा नहीं, फिर भी ऐसे ही किसी को सताते रहना इसको बोलते हैं मोहिनी भाव।

आसुरी, राक्षसी और मोहिनी भाव का आश्रय लेने वाले लोग सम्मोह, लोभ और मूर्खता के कारण अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं। जैसे बन्दरको नारियल मिले तो व्यर्थ है, अंधे आदमी को हीरा मिले तो व्यर्थ है और अपवित्र,निंदक, क्रूर एवं धोखेबाज को गुरूदीक्षा मिले तो व्यर्थ है। जो सुधरना तो नहीं चाहता वरन् गुरु के नाम को भुनाना चाहता है उसकी गुरुदीक्षा व्यर्थ है।

आगे के श्लोक में भगवान कहते हैं-

महात्मनास्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।

‘परन्तु हे पृथानंदन ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्मा लोग मुझको सम्पूर्ण प्राणियों का सनातन कारण और अविनाशी अक्षरस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं। (गीता- 9.13)

आसुरी प्रकृति में तमस, राक्षसी प्रकृति में रजस उन्मुख तमस है और मोहिनी प्रकृति में घोर तमस है लेकिन महात्मा लोग इस रजस-तमस-घोर तमस आदि से ऊपर दैवी प्रकृति के होते हैं। देव कहा जाता है परमात्मा को। उस परमात्मदेव के स्वाभाविक सदगुण उनमें रहते हैं। जैसे पानी का स्वभाव तरल है, अग्नि का स्वभाव उष्ण है, बर्फ का स्वभाव शीतल है ऐसे ही भगवान के जो स्वाभावि गुण हैं – निर्भयता, सात्विकता, ज्ञान में स्थिति, आचार्य की उपासना, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि…. ये दैवी प्रकृति के गुण हैं। महात्मा इस दैवी प्रकृति का आश्रय लेते हैं।

26 गुण हैं दैवी प्रकृति के। इन 26 गुणों में जितनी-जितनी गहरी स्थिति होगी, उतना-उतना मनुष्य महात्मा के जैसे स्वभाव से सम्पन्न होता जायेगा। किंतु जितना-जितना वह इन तीन गुणों में…. आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति में होगा उतना-उतना वह क्रूर स्वभाव का होगा।

हालाँकि महात्मा की नजर तो क्रूर स्वभाव वाले की गहराई में जो चैतन्य है और शुभ स्वभाव वाले की गहराई में जो चैतन्य है, वहीं होती है। साधारण व्यक्ति तो किसी के गुण-दोष पर नजर रखता है लेकिन महापुरुष लोग गुणदोष को मिथ्या मानकर, गुण दोष जिससे प्रकाशित होते हैं, जहाँ से सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं उस निर्गुण नारायण को अपने अंतःकरण एवं औरों के अंतःकरण में देखते हैं। ऐसे महात्मा लोग सार बातें समझने में कुशल होते हैं।

जो दैवी प्रकृति का आश्रय नहीं लेते अर्थात् सात्विक आहार नहीं लेते, सात्विक व्यवहार नहीं करते, सात्विक स्थानों पर नहीं जाते, सात्विक वातावरण में जीना पसंद नहीं करते बल्कि जो आया सो खा लिया, जो आया सो पी लिया, वे अच्छे कर्म भी करेंगे लेकिन उनकी बुद्धि ईश्वर के अनुभव तक नहीं पहुँचेगी।

कोई यदि राजा को रिझाना चाहे लेकिन इसके लिए किसी छोटे अमलदार को रिझाने लगे तो जरूरी नहीं कि सभी अमलदार रीझ जायें और राजा भी रीझ जाये। लेकिन वह एक राजा को अगर राजी कर दे तो सभी अमलदार रीझ जायेंगे। यदि वह राजा से एक हो गया तो सारे अमलदार-अधिकारी-मंत्री उसकी प्रसन्नता चाहेंगे। इसी प्रकार दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले महात्मा लोग राजाओं के राजा उस परब्रह्म परमात्मा को आत्मसात् कर लेते हैं। फिर ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ, देवी देवता, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि एवं भूत-प्रेत, आसुरी प्रकृति वाले, तामसी प्रकृतिवाले, मोहिनी प्रकृतिवाले सभी के सभी लोग ऐसे महात्मा पुरुष को चाहते हैं एवं उनकी बात मानते हैं।

भगवान को तो कोई मानता है कोई नहीं मानता है लेकिन भगवान के दैवी स्वभाव को आत्मसात् किये हुए महात्मा को बहुत लोग मानते हैं। जैसे हिरण्यकशिपु भगवान का विरोधी था लेकिन नारद जी आये तो उसने उठकर नारदजी का सत्कार किया। कंस भगवान का विरोधी था लेकिन नारदजी की आज्ञा में चला। कुछ लोग भगवान को मानते हैं तो कुछ लोग अल्लाह को लेकिन जो दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर बह्मज्ञान को पा लेते है उनको अल्लाह को मानने वाले भी मानते हैं, भगवान को मानने वाले भी मानते हैं और नास्तिक लोग भी उन महात्मा के सम्पर्क में आकर उनके प्रति आदरभाव रखते हैं। ये दैवी गुण इतना महान बना देते हैं !

ईश्वर का आश्रय लेना हो तो ईश्वर के दैवी गुणों का आश्रय लो। दैवी गुणों का आश्रय लेने से चित्त के दुर्गुण क्षीण होते जाते हैं एवं भगवान के दिव्य गुण प्रगट होते जाते हैं जिससे दिव्य सुख उभरने लगता है। ज्यों-ज्यों दिव्य गुण एवं दिव्य सुख उभरेगा, त्यों-त्यों संसार की चोटें आपके चित्त पर कम असर करेंगी।

ऐसा नहीं कि परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया तो आपकी कोई निंदा नहीं करेगा, आपका कोई विरोध नहीं करेगा, आपके सब  दिन सुखद हो जायेंगे। नहीं….. परमात्म-साक्षात्कार हो जाय फिर भी दुःख तो आयेंगे ही। भगवान राम जैसे राम को चौदह वर्ष का बनवास मिला, युधिष्ठिर को बारह साल का वनवास एवं एक वर्ष का अज्ञातवास मिला। बुद्ध हों या महावीर,कबीर हों या नानकदेव, रमण महर्षि हों या रामकृष्ण, रामतीर्थ हों या पूज्य लीलाशाहजी बापू…. विघ्न बाधाएँ तो सभी देहधारियों के जीवन में आती ही हैं लेकिन विघ्न बाधाओं का प्रभाव जहाँ पहुँच नहीं सकता, उस आत्मसुख में वे महापुरुष इतने सराबोर होते हैं कि जीते जी इन विघ्न-बाधाओं में होते हुए भी वे मुक्तात्मा होते हैं।

जैसे जंगल में आग लग जाने पर सयाने पशु सरोवर में खड़े हो जाते हैं तो जंगल की आग उन्हें नहीं जला सकती। ऐसे ही जो महापुरुष आत्मसरोवर में आने की कला जान लेते हैं, वे संसार की तपन के समय अपने आत्मसुख के विचार कर तपन के प्रभाव से परे हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 109

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *