तू सूर्य बन !

तू सूर्य बन !


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

उत्तरायण अर्थात् सूर्य का उत्तर दिशा की और प्रयाण। जैसे मकर-सक्रान्ति से सूर्य उत्तर दिशा की तरफ प्रयाण करता है वैसे ही आपका जीवन भी उन्नति की ओर अग्रसर होता जाय….. ऋषि कहते हैं- ‘तुम सूर्य की नाईं बनो।’

कोई प्रश्न करता है कि ‘महाराज ! सूर्य तो दो सौ करोड़ वर्ष पुराना है और नौ करोड़, तीस लाख मील दूर रहता है। हम उसके समान कैसे बन सकते हैं ? अगर बनें तो सूर्य कैसा है ? हाईड्रोजन और हीलीयम गैस का गोला, उसके आगे बड़े-बड़े भयानक बम भी कुछ नहीं हैं इतना वह गर्म है और ऋषि कहते हैं- ‘सूर्य की नाईं बनो।’ लेकिन ऋषि के इस वचन के पीछे बड़ा गहरा आशय छिपा हुआ है।

ऋषि के कहने का भावार्थ यह है कि जैसे सूर्य अपने व्रत पर अडिग रहता है वैसे ही मनुष्य ! तू अपने व्रत पर अडिग रह। तू अपनी मनुष्यता बनाये रख। तू अपनी मान्यता से गिर मत। अगर तू मनुष्यता से ऊपर उठ जाय, योगसिद्ध हो जाय, समता के सिंहासन पर बैठ जाय तो और ऊँची बात है। लेकिन कम-से-कम मनुष्यता से कभी गिरना मत।

सूर्य की दूसरी विशेषता है कि वह नदियों, तालाबों आदि से पानी उठा लेता है, लेकिन पानी का अपने पास संग्रह नहीं करता वरन् उस पानी को पुनः लौटा देता है। खारे सागर में से भी अपनी किरणों द्वारा जल ले लेता है और मीठा जल बरसाता है। उसी पानी से खेत हरे-भरे लहलहाने लगते हैं, फूल खिलने लगते हैं, धरती माता शीतल हो जाती है।

अतः हे मनुष्य ! तू सूर्य से त्याग सीख। तू भी धन बढ़ा, योग्यता बढ़ा, अक्ल बढ़ा किन्तु उस धन, योग्यता एवं विद्या को केवल अपने अहंकार के पोषण के लिए उपयोग न कर परन्तु उनका उपयोग बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय हो, ऐसा प्रयत्न कर। सूर्य सब जगह से पानी ले लेता है और देने में राग-द्वेष नहीं करता, ऐसे ही तू भी प्राप्त योग्यता को बिना राग-द्वेष के मानवता की सेवा में लगाने की प्रेरणा सूर्य से ले।

सूर्य की तीसरी विशेषता है कि वह गंदी नालियों, कीचड़ आदि से भी पानी उठा लेता है लेकिन गंदी जगहों से स्वयं प्रभावित नहीं होता। सूर्य गंदी जगहों से भी अपनी किरणों द्वारा पानी ले लेता है, वैसे तू भी हर जगह से गुण लेना सीख ले लेकिन स्वयं किसी के भी दुर्गुणों से प्रभावित न हो। सूर्य यह सिखाता है कि वमन जैसी गंदी चीज से भी जैसे वह वाष्प बनाकर पानी ले लेता है, ऐसे ही किसी के रोकने-टोकने में अथवा फटकारने में से भी अपने हित की बात लेकर तू अपनी समता, नम्रता आत्मसुख की वृत्ति बनाकर तू निरंतर आगे बढ़ता जा।

सूर्य की चौथी विशेषता है कि वह कभी निराश नहीं होता है। कभी पलायनवादी विचार नहीं करता है। घनघोर घटायें छा जाती हैं और सूर्य को ढँक लेती हैं फिर भी सूर्य कभी यह नहीं सोचता है कि ‘हाय रे ! इन घनघोर घटाओं ने मुझे घेर लिया…. कभी-कभी 8-8 दिन तक तो कहीं 4 से 6 महीने तक इन घटाओं से घिरा रहता हूँ…. मैं इतना देता हूँ फिर भी मेरे साथ अन्याय हो रहा है।’ नहीं, सूर्य कभी निराश नहीं होता है। सूर्य कभी अपने को लघुता ग्रंथी में नहीं बाँधता है।

सूर्य देखता है कि घनघोर घटायें आती-जाती रहती हैं। कई बार आयीं और गयीं। ऐसे ही तुम्हें भी कभी कोई विफलता मिल जाय, परेशानी आ जाय, कोई रोग घेर ले, अथवा कभी निंदा हो जाय…. इस प्रकार की कोई भी घटा तुम्हारे जीवन में आने पर तो, निराश मत होना और न ही पलायनवादी बनना वरन् तुम तो अपनी महिमा में वैसे ही चमकते रहना जैसे सूर्य चम-चम चमकता रहता है।

जो मंजिल चलते हैं वे शिकवा नहीं किया करते हैं।

जो शिकवा किया करते हैं वे मंजिल पहुँचा नहीं करते हैं।।

तू फरियाद मत कर, पुरुषार्थ कर। निराश मत हो, आशावादी बन, उत्साही बन तो दुःख के बादल बिखर जायेंगे। तू विघ्न-बाधाओं के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ता चला जा तो सफलता तेरी दासी हो जायेगी। विघ्न-बाधाएँ पैरों तले कुचलने की चीज है तथा सुख, प्रेम और आनंद बाँटने की चीज है।

सूर्य कितना पुरुषार्थी है, निरन्तर पुरुषार्थ करता रहता है। सूर्य कभी हड़ताल नहीं करता वरन् सदैव अपने कर्तव्य का पालन करता है। नित्य अपना कर्तव्य पालते हुए भी उसको कर्तव्य करने का बोझा नहीं लगता और न ही वह किसी पर एहसान करने की डीँग हाँकता है, ऐसे ही तू भी अपना कर्तव्यपालन कर और काम करने की डीँग मत हाँक।

इसीलिए ऋषि कहते हैं कि तू सूर्य बन। हो सके तो सूर्य से ऊपर उठ जाना। सूर्य जिससे चमकता है उस चैतन्य को ‘मैं’ मानकर मुक्त होह जाना, लेकिन अगर तुम उतने उन्नत नहीं हो सकते तो कम से कम मानवता से नीचे तो मत गिरना। तुम भी सूर्य की भाँति अपना आत्मतेज विकसित करना।

सूर्य तुम्हें पौरूष और प्रकाश की प्रेरणा देता है। ऐसा सूर्य जिस तेज से चमकता है वह आत्मतेज तुम्हारे पास, तुम्हारे साथ है। तुम उसका आदर करते रहो, उससे लाभ लेते रहो और जानकर मुक्त हो जाओ। ॐॐ पुरुषार्थ…. ॐॐ सतर्कता…. ॐॐसाहस…. ॐॐ सहजता…. ॐॐ सरलता…. ॐॐ शातिं ॐ शांति….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 109

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