महाराष्ट्र में तुकाराम जी महाराज बड़े उच्च कोटि के संत थे। उनका नौनिहाल लोहगाँव में था। इससे वहाँ उनका आना जाना लगा रहता था। लोहगाँव के लोग भी उन्हें बहुत चाहते थे। वहाँ उनके कीर्तन में आस-पास के गाँवों के लोग भी आते थे।
उनकी वाहवाही और यश देखकर शिवबा कासर उनसे जलता था। नेतागिरी का भी उसे घमंड था कि क्या रखा है बाबा के पास ?
किसी ने शिवबा से कहाः “तुम उनके लिए इतना-इतना बोलते हो किन्तु वे तो तुम्हारी कभी भी निन्दा नहीं करते। तुम एक बार तो उनके पास चलो।”
शिवबा ने कहाः “मैं क्यों जाऊँ उस ढोंगी के पास ? वह सारा दिन ‘विट्ठला-विट्ठला’ करता है। खुद का समय खराब करता है और दूसरों का समय भी खराब करता है।”
लोगों के बहुत कहने पर एक दिन शिवबा कासर कीर्तन-सत्संग में आ ही गया। दूसरे दिन भी गया। तीसरे दिन ले जाने वालों को मेहनत नहीं करनी पड़ी, वह अपने-आप बड़ी प्रसन्नता से आ गया।
लोगों ने शिवबा से कहाः “आज तक तो तुम विरोध करते थे। अब यहाँ खुद क्यों आये हो ?”
शिवबा कासर ने कहाः “यहाँ मुझे बहुत शांति मिलती है, बहुत अच्छा लगता है। यही तो जीवन का सार है। अभी तक केवल नेतागिरी करके तो मैंने अपने-आपको ही ठगा था।”
नेतागिरी से जो आनंद मिलता है उससे तो अनंतगुना आनंद भक्तों को मिलता है। छल-कपट, धोखाधड़ी से जो मिलता है उसकी अपेक्षा तो ईमानदारी से बहुत अधिक मिलता है।
कैसी है सत्संग की महिमा ! शिवबा कासर, जो अपराधी वृत्ति का व्यक्ति था, तुकाराम जी के सान्निध्य से भक्त बन गया।
शिवबा कासर की पत्नी अपने पति में आये इस परिवर्तन से बहुत घबरा गयी। वह सोचने लगी कि ‘जो पति पहले मुझ पर लट्टू होते थे, वे अब मेरे सामने देखते तक नहीं हैं। मुझे ही बोलते हैं कि संयम करो। अपनी आयु ऐसे ही नष्ट मत करो। वे तो अब विट्टल-विट्ठल भजते हुए आँखें मूँदकर बैठे रहते हैं। बड़े भगत बन गये हैं और मुझे भी भक्ति करने के लिए कहते हैं। यह सारा काम उसी बाबा का है।’ उसने मन ही मन तुकाराम जी से इस बात का बदला लेने का ठान लिया।
एक दिन शिवबा कासर ने तुकाराम जी से प्रार्थना कीः ‘आप मेरे घर पर कीर्तन सत्संग के लिए पधारें।’
तुकाराम जी ने प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे शिवबा कासर के घर पधारे। शिवबा कासर की पत्नी को तो मानों अवसर मिल गया।
सर्दी के दिन थे। प्रातःकाल जब तुकाराम जी महाराज स्नान के लिए बैठे तो उस महिला ने उबलता हुआ पानी तुकाराम जी की पीठ पर डाल दिया।
तुकाराम जी बोल पड़े- “अरे, यह क्या किया ?”
महिला- “महाराज ! सर्दी है इसलिए गर्म पानी डाला है।”
तुकाराम जी महाराज ने उस महिला से कुछ नहीं कहा किन्तु गर्म पानी से हुई व्यथा का वर्णन करते हुए तुकाराम जी ने भगवान से प्रार्थना की-
“सारा शरीर जलने लगा है, शरीर में जैसे दावानल धधक रहा है। हरे राम ! हरे नारायण ! शरीर कांति जल उठी, रोम-रोम जलने लगा, ऐसा होलिकादहन सहन नहीं होता, बुझाये नहीं बुझता। शरीर फटकर जैसे दो टुकड़े हो रहा है। मेरे माता-पिता केशव ! दौड़ आओ, मेरे हृदय को क्या देखते हो ? जल लेकर वेग से दौड़े आओ। यहाँ और किसी की कुछ नहीं चलेगी। तुका कहता है, तुम मेरी जननी हो, ऐसा संकट पड़ने पर तुम्हारे सिवाय और कौन बचा सकता है ?”
तुकाराम जी ने तो महिला से कुछ नहीं कहा किन्तु परमेश्वर से न रहा गया। उबलते पानी का तपेला उड़ेला तो तुकाराम जी की पीठ पर और फफोले पड़े उस कुलटा की पीठ पर।
संत शरण जो जन पड़े सो जन उबरनहार।
संत की निंदा नानका बहुरि-बहुरि अवतार।।
जो संत की शरण जाता है उसका उद्धार हो जाता है। जो संत के निंदकों की बातें सुनता है और संत की निंदा करने लग जाता है वह बार-बार जन्मता और मरता रहता है। उसके मन की शान्ति, बुद्धि की समता नष्ट हो जाती है।
कबीरा निंदक ना मिलो पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।
वो निंदक लाख पापियों के भार से भवसागर में डूब मरता है।
शिवबा कासर पत्नी को ठीक कराने के लिए सारे इलाज करते-कराते थक गया। आखिर किसी सज्जन ने सलाह दी कि ‘जिन महापुरुष को सताने के कारण भगवान का कोप हुआ है अब उन्हीं महापुरुष की शरण में जाओ। तभी काम बनेगा।’
आखिर मरता क्या न करता ? शिवबा कासर की पत्नी तैयार हुई। उस सज्जन ने बताया- “आप पुनः तुकाराम जी के चरणों में जाओ। उनको शीतल जल से स्नान कराओ और स्नान किये हुए पानी से जो मिट्टी गीली हो, उसे उठा लेना। वही मिट्टी अपनी पत्नी के शरीर पर लगाना तो भगवान की कृपा हो जायेगी।”
शिवबा कासर ने ऐसा ही किया। इससे उसकी पत्नी के फफोले ठीक हो गये।
शिवबा कासर की पत्नी का हृदय पश्चाताप से भर उठा। वह फूट-फूटकर खूब रोयी और तुकाराम जी के श्रीचरणों में गिरकर उनसे क्षमायाचना की। फिर उसका शेष जीवन विट्ठल के भजन में ही बीता।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 19,20 अंक 111
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