शास्त्र-अमृत

शास्त्र-अमृत


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

पौरूष दो प्रकार का होता है – एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्र विरूद्ध। जो शास्त्र को त्याग करके अपनी इच्छा के अनुसार विचरता है वह सिद्धता नहीं पायेगा। जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ करता है वह सिद्धता को प्राप्त होगा।

जो पुरुष व्यवहार तथा परमार्थ में आलसी होकर और परमार्थ को त्यागकर मूढ़ हो रहे हैं, वे दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त हो रहे हैं, वे दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त हुए हैं। तुम पुरुषार्थ का आश्रय लो। सत्संग और सत्शास्त्ररूपी आदर्श के द्वारा अपने गुण-दोष को देखकर दोष का त्याग करो और शास्त्रों के सिद्धान्तों पर अभ्यास करो। जब दृढ़ अभ्यास करोगे तब शीघ्र ही आनंदवान होगे।

श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करके संसार-समुद्र से तरने का पुरुषार्थ किया है। जिसने सत्संग व सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि तीक्ष्ण नहीं की और पुरुषार्थ को त्याग बैठा है, वह पुरुष नीच-से-नीच गति को पायेगा। जो श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे अपने पुरुषार्थ से परमानंद पद को पायेंगे और फिर दुःखी न होंगे।

मनुष्यों को सत्शास्त्रों और सत्संग से शुभ गुणों को पुष्ट करके दया, धैर्य, संतोष और वैराग्य का अभ्यास करना चाहिए। शुभ गुणों से बुद्धि पुष्ट होती है और शुद्ध बुद्धि से शुभ गुण पुष्ट होते हैं। जब शुभ गुण होते हैं तब आत्मज्ञान आकर विराजता है। शुभ गुणों में आत्मज्ञान रहता है।

संतों और सत्शास्त्रों के अनुसार संवेदन, मन और इन्द्रियों का विचार रखना। जो इनसे विरुद्ध हों उनको न करना। इससे  तुमको संसार का राग-द्वेष स्पर्श न करेगा। संतजन और सत्शास्त्र वही हैं जिनके विचार व संगति से चित्त संसार की ओर से हटकर उनकी ओर हो।

जो कुछ पूर्व की वासना दृढ़ हो रही है उसके अनुसार जीव विचरता है पर श्रेष्ठ पुरुष अपने पुरुषार्थ से पूर्व के मलिन संस्कारों को शुद्ध करता है। जब तुम सत्शास्त्रों और ज्ञानवानों के वचनों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करोगे तब मलिन वासना दूर हो जायेगी।

यदि चित्त विषय और शास्त्र विरुद्ध मार्ग की ओर जाय, शुभ की ओर न जाय तो जानो कि कोई पूर्व का मलिन कर्म है। जो संतजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार चेष्टा करे और संसार मार्ग से विरक्त हो तो जानों कि पूर्व का शुभ कर्म है। यदि तुम्हारा चित्त शुभमार्ग में स्थिर नहीं होता है तो भी दृढ़ पुरुषार्थ करके संसार-समुद्र से पार हो। श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसका पूर्व का संस्कार यद्यपि मलिन था, परन्तु संतों और सत्शास्त्रों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करके सिद्धता को प्राप्त हुआ है।

यह चित्त जो संसार के भोग की ओर जाता है उस भोगरूपी खाई में चित्त को गिरने मत दो।

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भगवान श्री रामचन्द्र जी ने अपने सदगुरुदेव वशिष्ठ जी महाराज से  पूछाः “हे भगवन् ! आप कहते हैं कि ‘भावना के वश से असत् भी सत् हो जाता है।’ इसका क्या आशय है ?” वशिष्ठ जी ने कहाः ” हे रामचन्द्रजी ! देश, काल, क्रिया, द्रव्य और संपदा इन पाँचों से भावना होती है। जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। पुत्र, दारादिक बांधव सब वासना रूप हैं। धर्म की वासना होती है तो बुद्धि में प्रसन्नता उपज आती है और पुण्य कर्मों से पूर्व भावना नष्ट हो शुभगति प्राप्त होती है। इससे अपने कल्याण के निमित्त शुभ का अभ्यास करना चाहिए।”

वशिष्ठ महाराज के अमृतवर्षी उपदेश सुनकर आत्मस्वरूपस्थ रामचन्द्रजी कह उठेः “हे मुनीश्वर ! आपका उपदेश दृश्यरूपी तृणों का नाशकर्त्ता दावाग्नि है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तापों का शांतकर्त्ता चन्द्रमा है। आपके उपदेश से मैं ज्ञातज्ञेय (जानने योग्य जान लिया) हुआ हूँ और पाँच  विकल्प मैंने विचारे हैं। प्रथम यह है कि यह जगत मिथ्या है और इसका स्वरूप अनिर्वचनीय है, दूसरा यह कि आत्मा में आभास है, तीसरा यह है कि इसका स्वभाव परिणामी है, चौथा यह कि अज्ञान से उपजा है और पाँचवाँ यह कि अनादि अज्ञान पर्यन्त है।”

भगवान श्री रामजी  द्वारा विचारे इन पाँच विकल्पों को हम अपना बना लें तो कितना अच्छा हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 5, अंक 112

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