संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
किसी का भगवान सातवें अर्श पर रहता है तो किसी का भगवान कहीं और बसता है, लेकिन गीता का भगवान तो जीव को रथ पर बैठाता है और खुद सारथी होकर रथ चलाता है। वह खुद छोटा होकर, सारथी होकर भी जीव को शिव का साक्षात्कार कराने में संकोच नहीं करता है। कैसा अनूठा है गीता का भगवान !
उस गीताकार श्रीकृष्ण का जन्म भी कैसी विषम परिस्थितियों में हुआ है ! माता-पिता कारागार में बंद हैं… जन्मते ही मथुरा से गोकुल ले जाये गये…. छठे दिन ही पूतना विषपान कराने आ गयी…. फिर कभी अघासुर तो कभी बकासुर… कभी धेनुकासुर तो कभी कोई और…. यहाँ तक कि किशोरावस्था में ही मामा कंस को स्वधाम पहुँचाना पड़ा ! फिर भी जब देखो, गीता का भगवान सदा मुस्कराता ही मिला….. युद्ध के मैदान में भी हँसते-हँसते अर्जुन को गीता का ज्ञान दे दिया !
गीताकार श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं कहा क ‘इतने व्रत करो, इतने तप करो, इतने नियम करो फिर मैं मिलूँगा।’ उन्होंने तो कहा हैः
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।
‘यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसंदेह संपूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा।’ (गीताः 4.36)
ऐसा दिव्य ज्ञान देने वाली श्रीमद्भगवद्गीता का प्राकट्य जहाँ हुआ है, उसी देश के लोग अगर आलसी-प्रमादी, निस्तेज और भयभीत हो जायें तो उसके लिए जिम्मेदार है – लोगों की गीता के ज्ञान से विमुखता।
गीता का ज्ञान इतना अदभुत है कि उसमें जीवन की हर समस्या का समाधान मिल सकता है। फिर भी आज के मनुष्य के जीवन में देखो तो उसका जरा-जरा-सी बात में चिढ़ जाना, दुःखी-भयभीत हो जाना, ईर्ष्या-द्वेष और अशांति की अग्नि में जलना ही नज़र आता है।
उसे कोई अपमान के दो वचन सुना देता है तो वह आगबबूला हो जाता है और कोई प्रशंसा के दो शब्द सुना देता है तो वह प्रशंसक का पिट्ठू बन जाता है। अब इतना तो लालिया और कालिया (कुत्ते) भी जानते हैं। कुत्ते भी जलेबी देखकर पूँछ हिलाने लग जाते हैं और डंडा देखकर पूँछ दबाकर भाग जाते हैं। अगर हममें भी केवल इतनी ही अक्ल है तो मनुष्य-जन्म पाने से क्या लाभ ? पढ़ाई-लिखाई करने से हमें क्या लाभ ? हम भी द्विपाद पशु ही हो गये…
यह सब गीता के ज्ञान से विमुखता का ही परिणाम है। अगर हम गीता के ज्ञान के सम्मुख हो जायें, गीता के ज्ञान को समझकर आचरण में लायें तो फिर हमारा द्विपाद पशु कहलाने का दुर्भाग्य न रहेगा।
भगवान कहते हैं चाहे तुमने कैसी भी कर्म किये हों या तुम किसी से ठगे गये हो अथवा तुम चिंतित और परेशान हो किंतु यदि तुम गीता की शरण में आ जाओ तो गीता का ज्ञान तुम्हें परम सुख का राजमार्ग दिखा देगा।
जैसे, तुम भारत से अमेरिका जाना चाहो, लेकिन जाओ बैलगाड़ी से तो कब पहुँचोगे ? इसी प्रकार तुम पाना तो चाहते हो परम सुख और पकड़ते हो नश्वर संसार के बैलगाड़ी रूपी साधन, तो कब पहुँचोगे ? किंतु एक बार ब्रह्मज्ञानरूपी हवाई जहाज में बैठ जाओ तो वह तुम्हें परम सुख के द्वार तक अवश्य पहुँचा देगा।
गीता का ज्ञान ऐसा ही हवाई जहाज है और भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के द्वारा उस ब्रह्मज्ञान को अत्यंत सहज-सरल रूप से समझा भी दिया है। फिर भी उसे पाने में कोई विघ्न आये तो उसके निवारण का तरीका भी भगवान बताते हैं। भगवान कहते हैं।
“केवल तुम्हें गाँठ बाँधनी है कि अब हमें संसार में पच-पचकर मरना नहीं है। हमें ईश्वर के मार्ग पर ही चलना है और आत्मज्ञान पाकर ही रहना है। अब हमें शहंशाह होकर जीना है। शहंशाह होकर परम शहंशाह से मिलना है।”
कोई राजा से मिलने जाता है तो भिखमंगे के कपड़े पहन कर नहीं जाता, अच्छे कपड़े पहन कर ही जाता है। तुम भी किसी विशेष व्यक्ति से मिलने जाते हो तो कपड़े ठीक-ठाक करके ही जाते हो, मूँछों पर ताव देते हो और जाते-जाते भी दर्पण में मुख देख लेते हो।
जब किसी विशेष व्यक्ति से मिलने जाते हो तब भी सज-धजकर जाते हो तो उन शहंशाहों-के-शहंशाह, अखिल ब्रह्मांडनायक के पास वासना से दीन-हीन होकर, चिंता मुसीबतों से लाचार और भयभीत होकर क्या जाना ? शहंशाह होकर जाओ, भैया ! और शहंशाह होकर जाने का उपाय मिलता है – गीता के ज्ञान से।
जब तक गीता के ज्ञान से विमुखता है, तब तक तुम संसार के कामों में उलझते रहते हो, भटकते रहते हो। किंतु जब गीता का अमृतमय ज्ञान मिल जाता है, तब सारी भटकान मिटाने की दिशा मिल जाती है, ब्रह्मज्ञान को पाने की युक्ति मिल जाती है और वह युक्ति मुक्ति के मंगलमय द्वारा खोल देती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 115
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