चार प्रकार की मुक्तियाँ होती हैं-
सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य। जिस देवता का भजन-पूजन किया, उसी देवता के लोक में निवास, इसे सालोक्य मुक्ति कहा जाता है।
देवता के समीप रहना – यह सामीप्य मुक्ति है। प्रिय देवता के समान रूप प्राप्त होना – यह सारूप्य मुक्ति है।
स्वर्गलोक में पुण्यों के समाप्त होने पर प्राणी को पुनः मृत्युलोक में धकेल दिया जाता है, अतः ये तीनों मुक्तियाँ विनाशी हैं। केवल सायुज्य मुक्ति अविनाशी और शाश्वत है। महाप्रलय में ब्रह्माण्ड डूब जायेगा, तब पृथ्वी, सुमेरू पर्वत, देवता और उनके लोक आदि सब नष्ट हो जायेंगे। ये सब चंचल हैं। निश्चय ही परब्रह्म मात्र शाश्वत है। उनके साथ तन्मयता अर्थात् सायुज्यता ही शाश्वत है।
सायुज्य मुक्ति का कल्पांत में भी नाश नहीं होता। अन्य तीन मुक्तियाँ सालोक्य, सामीप्य और सारूप्य नाशवान हैं, पर तीनों लोकों का नाश होने पर भी सायुज्य मुक्ति का नाश नहीं हो सकता।
सदगुरु और उनके वचनों पर पूर्ण विश्वास होने पर ही शिष्य सायुज्य मुक्ति अर्थात् मोक्ष का अधिकारी होकर सांसारिक दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पा सकता है और शाश्वत सुख को पा लेता है।
जो जीव और शिव, भक्त और ईश्वर का भेद दूर कर भक्त का भगवान से संयोग करा दें, वे ही सदगुरु है।
मायाजाल में फँसकर संसार के दुःखों से पीड़ित हुए जीवों को शांति प्रदान कराने वाले सदगुरु ही हैं।
वासनारूपी महानदी की बाढ़ में डूबते हुए दीनजनों को सदगुरु ही बचाते हैं।
गर्भवास के कारण दुःख से तथा नाना प्रकार की विषय-वासनाओं के शिकार हुए भयभीत जीवों को ज्ञान देकर सदगुरु ही सन्मार्ग पर लगाते हैं।
शब्दार्थों का अचूक विश्लेषण कर उनके सारभूत परमात्म-वस्तु का दर्शन कराने वाले अनाथों के नाथ सदगुरु ही है।
जो एकदेशीय कल्पना से दीन बने हुए जीव को तत्काल ‘तत्त्वमसि’ इस महावाक्य का रहस्य समझाकर ब्रह्मरूपता (देशातीत सत्ता) प्रदान करते हैं, वे ही सदगुरु हैं।
वेदों के अंतरंग में जो गूढ़ परमामृत ज्ञान है उसका वचनमात्र से शिष्य को पान कराने वाले सदगुरु के सिवाय और कौन हो सकते हैं ? वेदशास्त्र और संत दोनों के अनुभव समान हैं और उन अनुभवों की एकरूपता प्राप्त करना यही सदगुरु का स्वरूप है।
जिनमें सद्विद्या के अनंत गुण हैं और जो शिष्य के प्रति अत्यंत आत्मीयता रखते हैं, ऐसे सदगुरु का लाभ जिस शिष्य को मिल जाय, उसका ही जीवन सार्थक है और वही इस संसार में धन्य है। प्रत्येक मुमुक्षु और भक्त को ऐसे ही सदाचारी, पूर्णज्ञानी और लोकमंगल के लिए सेवारत सदगुरु का आश्रय लेना चाहिए। लोगों के दिल में दिलबर का आनंद उभारने वाले मरने के बाद नहीं जीते-जी आत्मसुख में सराबोर करने वाले सदगुरु का आश्रय अहंकार, आसक्ति और ईर्ष्या छोड़कर लेना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 115
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