पीपक मुनि और ब्रह्मा जी

पीपक मुनि और ब्रह्मा जी


कश्यप कुल में एक कुमार था, जिसका नाम था पीपक। वह तपस्या का बड़ा धनी। मात्र 15 वर्ष की अवस्था में ही वह ‘पीपक मुनि’ होकर पूजा जा रहा था।

दूर-दूर से बड़े-बड़े सेठ-साहूकार उसके दर्शनों के लिए आते थे। यहाँ तक कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी पीपक मुनि के दर्शन करके अपने को भाग्यशाली मानते थे।

कुमार पीपक मुनि ने ध्यान के द्वारा एकाग्रता पा ली थी। वह एकाग्रता के द्वारा अपने मन का अनुसंधान करके दूसरे के मन के विचारों को जान लेता था। दूसरों के दुःख-दर्द मिटाने का सामर्थ्य भी उसमें आ गया था। इसीलिए लोग उसका बड़ा आदर करते थे।

लेकिन पीपक को पता नहीं था कि अभी तो आगे की बहुत सी यात्रा बाकी है। उसे अभिमान आ गया कि ‘मैं बहुत बड़ा तपस्वी हूँ। किसी को कुछ छूकर प्रसाद के रूप में दे देता हूँ तो उसका काम बन जाता है। किसी के सिर पर हाथ रख देता हूँ तो उसका भला हो जाता है।

पीपक की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ब्रह्मा जी उसे वरदान देने वाले थे, लेकिन उसमें अभिमान आता देखकर ब्रह्मा जी ने सोचा कि ‘इसे सही राह पर लाना पड़ेगा। तपस्या करके परमेश्वर को पाने की जगह यह वाहवाही में रुक गया है।’ अतः करुणा करके ब्रह्मा जी ने सारस पक्षी का रूप लिया और जहाँ पीपक रहता था, वहाँ गये।

ब्रह्मा जी ने सारस के रूप में जाकर मानवीय भाषा में पीपक से कहाः

“कश्यप कुल में उत्पन्न पीपक !”

पीपक ने देखा कि सारस के मुँह से मनुष्य की भाषा ! वह ध्यान से सुनने लगा। ब्रह्मा जी ने कहाः

“पीपक ! वाहवाही के लोभ में प्रभुमार्ग त्यागा ? मुनि कहलाया पर मनन न किया ? मुझ प्रभु को न पाया ?”

पीपक ने सोचा कि ‘जरूर सारस के रूप में कोई दिव्यात्मा है, जो मुझे सचेत करने के लिए आयी है।’ उसने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहाः “हे सारस पक्षी का रूप धारण करने वाले आप जो भी हों, मुझे सत्य का उपदेश देने की कृपा करें कि अब मैं क्या करूँ ?”

तब सारस रूप धारी ब्रह्मा जी ने कहाः “तेरा कुल महान है, तूने तप भी किया है लेकिन वाहवाही की लालच में तू अपने माता-पिता का आदर करना भूल गया। पीपक ! जिस माँ ने तुझे जन्म दिया, जिस पिता ने तेरा लालन-पालन किया उनकी करुणा-कृपा को भूलकर तू अपने को बड़ा मानता है ? अभी तेरा बड़प्पन बहुत दूर है।”

पीपकः “अब आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ ?”

ब्रह्मा जीः “कुंडलपुत्र सुकर्मा महान ज्ञानी है और उनका आश्रम कुरुक्षेत्र  है। यदि तुम अपना उद्धार करना चाहते हो तो उनकी सेवा में पहुँच जाओ।”

सारस पक्षीरूपी ब्रह्मा जी का उपदेश पाकर पीपक कुरुक्षेत्र में स्थित महाज्ञानी कुंडलपुत्र सुकर्मा के आश्रम में गये और अपने कल्याण का उपाय पूछा।

सुकर्मा ने कहाः “जो बालक प्रतिदिन अपनी माता को प्रणाम करता है, उसे सब तीर्थों का फल प्राप्त होता है और जो प्रतिदिन अपने पिता को प्रणाम करता है, उसे देवलोक की यात्रा करने का फल मिलता है। माता-पिता तो बच्चे पर वैसे ही प्रसन्न होते हैं, लेकिन बच्चा जब प्रणाम करता है, तब माता-पिता के अंदर छुपा हुआ परमात्मदेव प्रसन्न होकर आशीर्वाद बरसाता है।

मुझे मेरे सदगुरुदेव ने बताया था कि तप से जो ऋद्धि-सिद्धि और शक्तियाँ आती हैं, वे अंतःकरण में रहती हैं। वाहवाही शरीर की होती है और शरीर तो नश्वर है। इसलिए शरीर में छिपे परमात्मदेव का ज्ञान पाकर मुक्त हो जाना चाहिए।

उसी परमात्मदेव के लिए जप, ध्यान आदि करना चाहिए। उसी परमात्मदेव का ज्ञान पाने के लिए माता-पिता की सेवा करना चाहिए। उसी आत्मज्ञान के लिए गुरुद्वार पर रहकर सेवा करनी चाहिए।

हे कश्यपकुल के पीपक मुनि ! आपको तपस्या से प्राप्त शक्तियों पर बहुत अभिमान आ गया था, तब सारस के रूप में आकर दयालु भगवान ब्रह्मा जी ने आपको मेरे पास भेजने की कृपा की-यह भी मैं आपको देखकर जान गया।”

पीपक तो दंग रह गया कि इन्हें सब बातों का पता कैसे चला ! उसका हृदय अहोभाव से भर गया और उसने सुकर्मा जी प्रार्थना कीः “कृपा कीजिये, आप मुझे आपके आश्रम में थोड़े समय तक रहने की अनुमति दीजिये ताकि यहाँ रहकर मैं आपकी सेवा कर सकूँ और आत्मज्ञान का उपदेश पाकर मुक्त हो सकूँ।”

दयालु कुंडलपुत्र सुकर्मा ने पीपक को अपने आश्रम में रहने की अनुमति दे दी। वहाँ रहकर पीपक सुकर्मा जी के बताये मार्ग के अनुसार साधना-सेवा में लग गये और समय पाकर मनुष्य के सारे द्वन्द्व, सारी चिंताएँ, सारे शोक, सारे भय, सारे दुःख सदा के लिए मिट जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 24 अंक 119

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