सिर दीजै सदगुरु मिले तो भी सस्ता जान

सिर दीजै सदगुरु मिले तो भी सस्ता जान


परमात्मस्वरूप सदगुरु की महिमा अवर्णनीय है। उनकी महिमा का गुणगान, उनकी स्मृति तथा चिंतन साधकों को अपूर्व सुख, शांति, आनंद और शक्ति प्रदान करता है। वे कर्म में निष्कामता सिखाते हैं, योग की शिक्षा देते हैं, भक्ति का दान देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं और जीते जी मुक्ति का अनुभव कराते हैं।

आध्यात्मिक विकास के लिए, दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए, आत्मपद पाने के लिए हमें मार्गदर्शक अर्थात् पूर्ण सत्य के ज्ञाता समर्थ सदगुरु की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे, प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, वैसे ही ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु के बिना ज्ञान का प्रकाश नहीं, सुषुप्त शक्तियों का विकास नहीं और अज्ञानांधकार का नाश संभव नहीं।

सदगुरु चिंता और पाप को हरने वाले, संशय व अविद्या को मिटाने वाले तथा शिष्य के हृदय में परमात्म-प्रेम की स्थापना करने  वाले होते हैं। वे समस्त मानव-जाति के हितचिंतक, प्राणिमात्र के परम सुहृद तथा भगवदीय गुणों के भण्डार होते हैं। वे शिष्य के दुर्गुण-दोषों को हटाते हैं, क्लेशों को मिटाते हैं और उसे सुख-दुःख के प्रभाव से रहित समतामय नवजीवन प्रदान करते हैं।

सदा परब्रह्म परमात्मा के साथ एकत्व को प्राप्त ऐसे महापुरुषों में एक ऐसी अनोखी दृष्टि होती है, जिससे वे मानव को पूर्णरूप से बदल देते हैं। वे परमात्म-तत्त्व में पूर्ण प्रतिष्ठित रहते हैं, परमार्थ में पूर्ण कुशल और व्यवहार में अत्यंत निपुण होते हैं। उनसे सच्चाई से जुड़े रहने वाले शिष्य महान संकट को भी सहज में पार कर लेते हैं। उनके सान्निध्य में साधक घोर विपरीत परिस्थिति में भी निर्भय व निर्लेप होकर रहते हैं। उन सदगुरु की महिमा अनोखी है। वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं।

वे पूर्ण सर्वज्ञ होने पर भी अनजान जैसी स्थिति में हो सकते हैं। साधारणतया उन्हें समझना, उन्हें पहचान पाना कठिन होता है। वे पंडितों को पढ़ा सकते हैं और मूढ़ों से सीखते हैं। वे शेरों से लड़ सकते हैं और गीदड़ को देखकर भाग सकते हैं। कुछ नहीं मिले तो माँगते हैं और मिले तो त्याग सकते हैं। ऐसे शहंशाह महापुरुषों से हर कोई कुछ-न-कुछ माँगता है। उनके पास बाह्य कुछ न दिखते हुए भी माँगने वाले को सब कुछ दे देते हैं। जगत की महा मूल्यवान चीजें भी उनके लिए मूल्यहीन हैं। ऐसे आत्मसिद्ध महापुरुषों के पास सिद्धियाँ सहज ही निवास करती हैं। उनके पास सिद्धियाँ स्वयं चलकर आती हैं, ऋद्धियाँ वहीं अपना निवास स्थान बना लेती हैं फिर भी उन आत्मानंद में तृप्त महापुरुषों को उनकी  परवाह नहीं होती। उनके द्वारा सिद्धियों का उपयोग न करने पर भी सिद्धियाँ अपने-आप क्रियाशील हो जाती हैं। ऐसे नित्य नवीन रस से सम्पन्न आत्मसिद्ध पुरुषों को पाकर पृथ्वी अपने को सनाथ समझती है।

ऐसे सदगुरु अपने शिष्य को सत्यस्वरूप बताकर, भेद में अभेद को दर्शाकर और शिष्य के जीवत्व को मिटा कर उसे शिवत्व में स्थित कर देते हैं। उन सदगुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है, उनको साधारण जड़बुद्धिवाले नहीं समझ पाते।

सदगुरु साक्षात परब्रह्मस्वरूप हैं। वे शिष्य की अंतरात्मा और प्रिय प्राण हैं। वे प्रिय प्राण ही नहीं साधकजनों की साधन संपत्ति हैं। इतना ही नहीं साधना का लक्ष्य भी वे ही हैं।

गुरुपादोदकं पानं गुरोरूच्छिष्टभोजनम्।

गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः।।

‘गुरुदेव के चरणामृत का पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए।’

जो गुरुपादोदक का सेवन करता है, उसके लिए अमृत तो एक साधारण वस्तु है। गुरुपूजा ही सार्वभौम महापूजा है ऐसा ‘गुरुगीता’ कहती है। सर्वतीर्थ, सर्वदेवता और अधिक क्या कहा जाये, विश्वव्यापी, विश्वाकार ब्रह्म श्रीसदगुरुदेव ही हैं।

साधक को अपने मंत्र का सम्मान से, सत्कार से, श्रद्धा से पूर्ण प्रेम से अनुष्ठान करते रहना चाहिए। सदगुरु कृपा कभी व्यर्थ नहीं जाती। चाहे प्रकृति में परिवर्तन हो जाये-सूर्य तपना छोड़ दे, चंद्रमा शीतलतारहित हो जाये, जल बहना त्याग दें, दिन की रात और रात का दिन ही क्यों न हो जाये किंतु एक बार हुई सदगुरु की कृपा व्यर्थ नहीं जाती।

यदि इस जन्म-मृत्यु रूप संसार से मुक्ति नहीं हुई, साधना अधूरी रह गयी तो यह कृपा शिष्य के साथ-साथ जन्म-जन्मांतरों में भी रहती है। किसी देश या किसी लोक में जाने पर भी जैसे, मानव का पातकपुंज फल देने के लिए अवसर ढूँढता रहता है, वैसे ही शिष्य पर हुई कृपा शिष्य के पीछे-पीछे ही फिरती है। इसलिए आप धैर्य से, उत्साह से, प्रेम से साधन के अभ्यास में लगे रहें।

साधक दिन-प्रतिदिन जितनी गुरुभक्ति बढ़ाता है, जितना-जितना सदगुरु के चित्त के साथ एकाकार होता है, जितना-जितना उनमें तन्मय होकर मिलता है, उतनी ही उच्च उज्जवल प्रेरणाएँ, उत्कृष्ट भाव और निर्विकारी जीवन को प्राप्त करता है।

सदगुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य के जीवन में प्रवेश करके उसके समस्त पातकों को भस्म कर देते हैं, आंतरिक मल को धो देते हैं। इसीलिए गुरु-सहवास, गुरु-संबंध, गुरु आश्रमवास, गुरुतीर्थ का पान, गुरुप्रसाद, गुरुसेवा, गुरु-गुणगान, उनके दिव्य स्पंदनों का सेवन, गुरु के प्राण-अपान द्वारा सोऽहम् स्वर के साथ निकलने वाली चैतन्यप्रभा की किरणें और गुरु आज्ञापालन शिष्य को पूर्ण परमात्म-पद की प्राप्ति करा देने में समर्थ हैं, इसमें क्या आश्चर्य ?

उन सदगुरु से हम कैसा व्यवहार करें, कैसे प्रेम करें, उनके उपकार को कैसे चुकायें, उनका सम्मान कैसे करें, उनकी पूजा कैसे करें ?

हे प्यारे सदगुरुदेव ! आप हमारे मलिन, अशुचि, विकारी, भौतिक शरीर में भी भेदभाव नहीं देखते, शुद्धाशुद्ध नहीं देखते, रोगारोग नहीं देखते। आप करुणासिंधु हमारे पापों को, तापों को, हमारी अशुचि को धो डालते हैं। नाड़ी-नाड़ी में, रक्त के कण-कण में शक्ति के रूप में प्रविष्ट होकर उन्हें क्रियाशील बनाते हैं। आपका शक्तिपात शरीर के अंग-अंग में, अच्छे बुरे स्थानों में, नाड़ियों के मैल-भरे, रोग-भरे कफ-पित्त-वातरूप दोषों का अंतर यौगिक क्रियाओं द्वारा साफ करता है। अंतःकरण को पवित्र व निर्मल बनाता है।

ऐसे सदगुरु के समान कौन मित्र, कौन प्रेमी, कौन माँ और कौन देवता है ? ऐसे सदगुरु का हम क्या दासत्व कर सकते हैं ? जिन सदगुरु ने हमारे कुल, जाति, कर्माकर्म, गुण-दोष आदि देखे बिना हमको अपना लिया, उन सदगुरु को हम दे ही क्या सकते हैं ? शक्तिपात करके उन्होंने अपनी करूणा-कृपा सिंच दी, उसके बदले में हम क्या दे सकते हैं ? उनका कितना उपकार है, कितना अनुग्रह है, कितनी दया है !

संदर्भः ‘चित्शक्ति विलास’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 119

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