संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में आता है कि वह आनन्दस्वरूप अपना आत्मा ही परमेश्वर है।
हम नित्य सुख चाहते हैं, सदा सुख चाहते हैं और सहज में सुख चाहते हैं। फिर भी यह मिले तो सुखी होऊँ, यहाँ जाऊँ तो सुखी होऊँ, ऐसा करूँ तो सुखी होऊँ… मन की इस बेवकूफी के पीछे सारी जिंदगी बिता देते हैं। इसलिए सदा सुख पाने के लिए जिससे किया जाता है उसी में डूबने का यत्न करें।
काहे रे बन खोजन जाई।
सर्व निवासी सदा अलेपा तोरे संग सहाई।।
राजकोट के मूल निवासी त्रिवेणीपुरी महाराज, जिनका मुंबई में बहुत बड़ा आश्रम है, वे केदारनाथ में गंगा के तट पर कुटिया बनाकर रहते थे। ‘ईश्वर से ईश्वर को ही माँगते हैं फिर भी अभी तक मुक्ति का अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ?’ ऐसा विचार कर वे रोते थे। उनकी ईश्वरप्राप्ति की प्यास बहुत बढ़ गयी थी।
एक शाम को एक बुढ़िया ने आकर कहाः
“त्रिवेणीपुरी ! आप किससे मुक्त होना चाहते हैं ?”
त्रिवेणीपुरीः “माता जी ! मुझे मोक्ष का अनुभव करना है।”
वृद्धाः “आप किससे मुक्त होना चाहते हैं ? पत्नी से मुक्त होकर संन्यासी हो गये हैं। परिवार से मुक्त होना चाहा तो उसे भी छोड़कर आये हैं। अब किससे मुक्त होना चाहते हैं ? आपको बंधन कहाँ हैं ? खोजें। खोजते-खोजते अगर बंधन को खोज लिया तो मैं आऊँगी, अगर खोजते-खोजते बंधन नहीं मिला तो नहीं आऊँगी।”
इतना कहकर वह वृद्धा चली गयी। त्रिवेणीपुरी महाराज खोजने लगे कि बँधे हैं तो किससे बँधे हैं। मुक्ति किससे चाहिए ? अगर धन से बँधे होते तो धन हमेशा रहना चाहिए, किंतु रूपये पैसे आते हैं और चले जाते हैं। अगर सुख से बँधे होते तो सुख सदा रहना चाहिए, परंतु वह भी आता-जाता है। अगर दुःख से बँधे होते तो दुःख सदा रहना चाहिए, किंतु वह भी आकर चला जाता है। शरीर भी प्रतिदिन मृत्यु की ओर जा रहा है तो बंधन किसको है ? एकान्त में बैठकर खोजते गये तो पता चला कि अरे ! मैं तो निर्बंध नारायण था – मुझे पता न था। ऐसा करते-करते उनकी समाधि लग गयी और उन्हें ज्ञान हो गया। वे बड़े उच्च कोटि के संत हो गये। अब वे हयात नहीं हैं लेकिन मुंबई में अभी भी उनका आश्रम है। अखण्डानंदजी उनसे मिलते-जुलते रहते थे।
वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- ‘हे राम जी ! जैसे रण में प्राण निकलने लगें तो भी शूरवीर नहीं भागता बल्कि विजय पाने की इच्छा से शस्त्र को पकड़कर युद्ध करता ही रहता है, ऐसे ही संसार में शास्त्र का विचार ही पुरुषार्थ है। यही पुरुषार्थ करो और शास्त्रों के अनुसार विचारो कि मुक्ति क्या है ? जो विचार से रहित हैं, वे दुर्भाग्य और दीनता को प्राप्त होते हैं।’
जिसने आत्मविचार को त्यागा है समझो, उसने अपना सर्वनाश कर लिया। वह बड़ा अभागा है। वास्तविक सुखी केवल विचारवान ही होता है। विचार यही है कि सत् क्या है और असत् क्या है ? साथ क्या जायेगा और क्या छूट जायेगा ? मैं कौन हूँ और जगत क्या है ? जिसने ऐसा विचार ठीक से किया है उसका भविष्य उज्जवल है। जिसने अपना आत्मविचार नहीं किया समझो, वह मुसीबत में पड़ेगा। अगर आत्मविचार नहीं करता है तो पढ़ा लिखा व्यक्ति भी मूर्ख है और अगर आत्मविचार करता है तो अनपढ़ भी पठितों का पूजनीय है।
पैसा गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया परंतु अंतरात्मा की शांति चली गयी तो सब कुछ चला गया। इसलिए आत्मानंद, आत्मशांति पाने का ही यत्न करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 8, अंक 120
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