संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
महानता के चार सिद्धान्त हैं- हृदय की प्रसन्नता, उदारता, नम्रता, समता।
हृदय की प्रसन्नता- जिसका हृदय जितना प्रसन्न, वह उतना ज्यादा महान होता है। जैसे – श्री कृष्ण प्रसन्नता की पराकाष्ठा पर हैं। ऋषि का श्राप मिला है, यदुवंशी आपस में ही लड़कर मार-काट मचा रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं, फिर भी श्री कृष्ण की बंसी बज रही है…..
उदारता- श्रीकृष्ण प्रतिदिन सहस्रों गायों का दान करते थे। कुछ-न-कुछ देते थे। धन और योग्यता तो कइयों के पास होती है लेकिन देने का सामर्थ्य सबके पास नहीं होता। जिसके पास जितनी उदारता होती है, वह उतना ही महान होता है।
नम्रता- श्रीकृष्ण नम्रता के धनी थे। सुदामा के पैर धो रहे हैं श्रीकृष्ण ! देखा कि पैदल चलते-चलते सुदामा के पैरों में काँटें चुभ गये हैं, उन्हें निकालने के लिए रुक्मिणी जी से सुई मँगवायी। सुई लाने में देर हो रही थी तो अपने दाँतों से ही काँटा खींचकर निकाला और सुदामा के पैर धोये…. कितनी नम्रता !
युधिष्ठिर आते तो वे उठकर खड़े हो जाते थे। पाण्डवों के संधिदूत होकर गये और वहाँ से लौटे तब भी उन्होंने युधिष्ठिर को प्रणाम करते हुए कहाः ‘महाराज ! हमने तो कौरवों से संधि करने का प्रयत्न किया, किंतु हम विफल रहे।’
ऐसे तो चालबाज लोग और सेठ लोग भी नम्र दिखते हैं ! परंतु केवल दिखावटी नम्रता नहीं, हृदय की नम्रता होनी चाहिए। हृदय की नम्रता आपको महान बना देगी।
समता- श्रीकृष्ण तो मानो, समता की मूर्ति थे। इतना बड़ा महाभारत का युद्ध हुआ, फिर भी कहते हैं कि ‘कौरव-पाण्डवों के युद्ध के समय यदि मेरे मन में पाण्डवों के प्रति राग न रहा हो और कौरवों के प्रति द्वेष न रहा हो तो मेरी समता की परीक्षा के अर्थ यह बालक जीवित हो जाये।’ और बालक (परीक्षित) जीवित हो उठा…..
जिसके जीवन में ये चार सदगुण हैं, वह अवश्य महान हो जाता है। नम्र व्यक्ति बड़े-बड़े कष्टों और क्लेशों से छूट जाता है और दूसरों के हृदय में भी अपना प्रभाव छोड़ जाता है। जबकि अहंकारी व्यक्ति बड़ी-बड़ी विघ्न बाधाओं से जूझते-जूझते थक जाता है और अपने दुश्मन बढ़ा लेता है।
नम्रता व्यक्ति को महान बनाती है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँ तहाँ बदमाश, लुच्चे और ठगों को प्रणाम करते रहें। नम्रता कहाँ और कैसे दिखानी – यह विवेक भी होना चाहिए। दुष्ट के आगे नम्र बनोगे तो वह आपको बुद्धु मानेगा। अपने शोषक के आगे नम्र हो जाओगे तो वह ज्यादा शोषण करेगा, अतः विवेक का उपयोग करें।
रावण और कंस के जीवन में अहंकार था तथा श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन में प्रसन्नता, उदारता, नम्रता, समता आदि सदगुण थे। परिणाम क्या हुआ ? सारी दुनिया जानती है।
ये चारों सदगुण कैसे आते हैं ?
धर्म का आश्रय लेने से । जो अपना कर्तव्य ठीक से निभाता है, वह प्रसन्न रहता है। माता-पिता के दिल को दुःखाकर, चोरी करके, दूसरों को सताकर कोई प्रसन्न रह सकता है क्या ? नहीं सदा प्रसन्न रहने के लिए सदाचार, पवित्रता, सात्विकता आदि सदगुणों का आश्रय लेना होता है। ‘श्रीमद्भगवदगीता’ के सोलहवें अध्याय में दैवी सम्पदा के प्रथम तीन श्लोकों को अपने आचरण में लाकर अपना जीवन सार्थक करें।
धर्म क्या है ? कोई आपके यहाँ चोरी करता है तो आपको अच्छा नहीं लगता, इसलिए आप किसी की चोरी न करो। आपसे कोई धोखा करता है तो आपको अच्छा नहीं लगता, अतः आप भी किसी से धोखा न करो। आपके कोई हाथ पैर तोड़ दे या आपका अहित करे तो आपको अच्छा नहीं लगता, इसलिए आप भी किसी का अहित न करो। लेकिन कोई आपको डण्डा मारने आये तो रक्षा के लिए आपको भी डण्डा उठाना पड़ेगा। हिंसा करना तमोगुण है, प्रतिहिंसा करना रजोगुण है और अहिंसक बनना सत्त्वगुण है।
प्रसन्न वही रह सकता है, जिसके पास धर्म है, संयम है। जिसकी इन्द्रियाँ और मन जितने उसके नियंत्रण में हैं, उतना ही वह प्रसन्न, उदार, नम्र और सम रह सकता है। जिसके जीवन में ये चार सदगुण नहीं हैं, वह बाहर से कितना भी ऊँचा दिखे, अंत में थक जायेगा, हार जायेगा, निराश हो जायेगा….. जिसके जीवन में चार सदगुण हैं, वह महान होता जायेगा….
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 9,10
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