सृष्टि कैसे बनी ?

सृष्टि कैसे बनी ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

सृष्टि के विषय में विचार करते-करते बहुत उच्चकोटि के महापुरुषों ने तीन विकल्प खोजे ।

पहला विकल्प था ‘आरम्भवाद’ । इसके अनुसार जैसे कुम्हार ने घड़ा बना दिया, सेठ ने कारखाना बना दिया, आरम्भ कर दिया, ऐसे ही ईश्वर ने दुनिया चलायी । कुम्हारा का बनाया हुआ घड़ा कुम्हार से अलग होता है, सेठ का कारखाना उससे अलग होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर की बनायी हुई दुनिया उससे अलग है । लेकिन दुनिया में तो ईश्वर की चेतना दिखती है । तो दुनिया और ईश्वर अलग-अलग कहाँ रहे ?

दूसरा विकल्प खोज ‘परिणामवाद’ अर्थात् जैसे दूध में से दही बनता है ऐसे ही ईश्वर ही दुनिया बन गये । दूध में से दही बन गया तो फिर वापस दूध नहीं बनता, ऐसे ही ईश्वर ही सारी दुनिया बन गये तो सृष्टि की नियामक ईश्वरीय सत्ता कहाँ रही ? ईश्वर बनते-बिगड़ते हैं तो ईश्वर का ईश्वरत्व एकरस कहाँ रहा ?

खोजते-खोजते वेदांत को जानने वाले तत्त्ववेत्ता महापुरुष आखिर इस बात पर सहमत हुए कि यह सृष्टि ईश्वर का विवर्त है ।’विवर्तवाद” अर्थात् अपनी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहे और उसमें यह सृष्टि प्रतीत होती रहे । जैसे तुम्हारा आत्मा ज्यों का त्यों रहता है और रात को उसमें सपना प्रतीत होता है – लोहे की रेलगाड़ी, उसकी पटरियाँ और घूमने वाले पहिये आदि ।

तुम चेतन हो और जड़ पहिये बना देते हो, रेलगाड़ी बना देते हो, खेत-खलिहान बना देते हो । रेलवे स्टेशनों का माहौल बना देते हो । सपने में ‘अजमेर का मीठा दूध पी ले भाई ! आबू की रबड़ी खा ले…. मुंबई का हलुवा…. नडियाद के पकौड़े खा ले….’ सारे हॉकर, पैसेंजर और टी.टी भी तुम बना लेते हो । तुम हरिद्वार पहुँच जाते हो । ‘गंगे हर’ करके गोता मारते हो । फिर सोचते हो जेब में घड़ी भी  पड़ी है, पैसे भी पड़े हैं । घड़ी और पैसे की भावना तो अंदर है और घड़ी व पैसे बाहर पड़े हैं । पुण्य प्राप्त होगा यह भावना अंदर है और गोता मारते हैं यह बाहर है । तो सपने में भी अंदर और बाहर होता है । तुम्हारे आत्मा के विवर्त में अंदर भी, बाहर भी बनता है, जड़ और चेतन भी बनता है फिर भी आत्मा ज्यों-का-त्यों रहता है ।

ऐसे ही यह जगत परब्रह्म परमात्मा का विवर्त है । इसमें अंदर-बाहर, स्वर्ग-नरक, अपना पराया सब दिखते हुए भी तत्त्व में देखो तो ज्यों-का-त्यों ! जैसे समुद्र की गहराई में शांत जल है और ऊपर से कई मटमैली तरंगे, कई बुलबुले, कई भँवर और किनारे के अलग-अलग रूप-रंग दिखते हैं । उदधि की गहराई में पानी ज्यों-का-त्यों है, ऊपर दिखने वाली तरंगें विवर्त हैं । जैसे सागर में सागर के ही पानी से बने हुए बर्फ के टुकड़े डूबते उतराते हैं, ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा ज्यों-का-त्यों है और यह जगत उसमें लहरा रहा है । इस प्रकार वेदांत-दर्शन का यह ‘विवर्तवाद’ सर्वोपरि एवं अकाट्य है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 15 अंक 193

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