पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से
भगवान श्रीरामचन्द्रजी अरण्य में विश्राम कर रहे थे और लखन भैया तीर-कमान लेकर चौकी कर रहे थे । निषादराज ने श्रीरामजी की यह स्थिति देखकर कैकेयी को कोसना शुरु कियाः “यह कैकेयी, इसे जरा भी ख्याल नहीं आया ! सुख के दिवस थे प्रभु जी के और धरती पर शयन कर रहे हैं ! राजाधिराज महाराज दशरथनंदन राजदरबार में बैठते । पूर्ण यौवन, पूर्ण सौंदर्य, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण प्रेम, पूर्ण प्रकाश, पूर्ण जीवन के धनी श्रीराम जी को धकेल दिया जंगल में, कैकेयी की कैसी कुमति हो गयी !”
लखन भैया के सामने कैकेयी को उसने कोसा । निषादराज ने सोचा कि ‘लक्ष्मणजी मेरी व्यथा को समझेंगे और वे भी कैकेयी को कोसेंगे’ लेकिन लखन लाला ऐन्द्रिक जीवन में बहने वाले पाशवी जीवन से ऊँचे थे । वे मानवीय जीवन के सुख-दुःखों के थपेड़ों से भी कुछ ऊँचे उठे हुए थे । उन्होंने कहाः “तुम कैकेयी मैया को क्यों कोसते हो ?
काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता ।
कोई किसी को सुख-दुःख देने वाला नहीं है ।”
जो बोलता है फलाने ने दुःख दिया, फलाने ने दुःख दिया, वह कुछ नहीं जानता है, अक्ल मारी हुई है उसकी । कुछ लोगों ने करोड़ों रूपये खर्च करके बापू का कुप्रचार कराया और यदि मैं बोलता कि ‘इन्होंने कुप्रचार करके मुझे दुःखी किया, हाय ! दुःखी किया’ तो मैं सचमुच ‘दुःख मेकर’ (दुःख बनाने वाला) हो जाता । वे कुप्रचार वाले कुप्रचार करते रहे और हम अपनी मस्ती में रहे तो मेरे पास तो सत्संगियों की भीड़ और बढ़ गयी । यह नियति होगी ।
निषादराज बोलता हैः “यह अच्छा नहीं हुआ ।” और लखन भैया कहते हैं कि “कोई किसी के सुख-दुःख का दाता नहीं होता है, सबका अपना-अपना प्रारब्ध होता है, अपना-अपना सोच-विचार होता है, इसी से लोग सुखी-दुःखी होते हैं । तुम कैकेयी अम्बा को मत कोसो ।”
निषादराज कहता है “क्या श्रीरामचन्द्रजी अपना कोई प्रारब्ध, अपने किसी पाप का फल भोग रहे हैं ? आपका क्या कहना है ?”
लक्ष्मण जी कहते हैं- “श्रीराम जी दुःख नहीं भोग रहे हैं, दुःखी तो आप हो रहे हैं । श्रीराम जी तो जानते हैं कि यह नियति है, यह लीला है । सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण ये सब खिलवाड़ हैं, मैं शाश्वत तत्त्व हूँ और रोम-रोम में रम रहा हूँ, अनंत ब्रह्माण्डों में रम रहा हूँ । यह तो नरलीला करने के लिए यहाँ राम रूप से प्रकट हुआ हूँ । श्रीराम जी प्रारब्ध का फल नहीं भोग रहे हैं । श्रीराम जी तो गुणातीत हैं, देशातीत हैं, कालातीत हैं और प्रारब्ध से भी अतीत हैं । महापुरुष प्रारब्ध का फल नहीं भोगते, वे प्रारब्ध को बाधित कर देते हैं । प्रारब्ध होता है शरीर का, मुझे क्या प्रारब्ध ! यश-अपयश शरीर का होता है, बीमारी-तन्दुरुस्ती शरीर को होती है, मेरा क्या ! हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति को जानने वाले उसके बाप ! ऐसा तो सब ज्ञानवान जानते हैं फिर श्रीरामचन्द्र जी तो ज्ञानियों में शिरोमणि हैं । वे कहाँ दुःख भोग रहे हैं ! दुःख तो निषादराज आप बना रहे हैं ।”
अब ध्यान देना, इस कथा से आप कौनसा नजरिया (दृष्टि) लेंगे ? कैकेयी कुटिल रही, स्वार्थी रही और अपने बेटे के पक्ष में वरदान लिया, यह अनुचित किया – ऐसा समझकर आप अगर अनुचित किया – ऐसा समझकर आप अगर अनुचित से बचना चाहते हैं तो इस पक्ष को स्वीकार करके अपने अंतःकरण को गलतियों से, कुटिलता से बचा लें तो अच्छी बात है । अगर, कैकेयी में प्रेम था और राम जी के दैवी कार्य में कैकेयी ने त्याग और बलिदान का परिचय दिया है, इतनी निंदा सुनने के बाद भी, लोग क्या-क्या बोलेंगे, यह समझने के बाद भी कैकेयी ने यह किया है ऐसा आप मानते हैं तो कैकेयी के इस त्याग, प्रेम को याद करके अंतःकरण में सद्भाव को स्वीकार करिये । कैकेयी को कोसकर आप अपना दिल मत बिगाड़िये अथवा कैकेयी ने श्रीराम जी को वनवास दिया, अच्छा किया और हम भी ऐसा ही आचरण करें – ऐसा सोचकर अपने दिल में कुटिलता को मत लाइये । जिससे आपका दिल, दिलबर के ज्ञान से, दिलबर के प्रेम से, दिलबर की समता से, परम मधुरता से भरे, वही नजरिया आपके लिए ठीक रहेगा, सही रहेगा, बढ़िया रहेगा ।
कोई भाभी, कोई देवरानी, कोई जेठानी, कोई सास या बहू अऩुचित करती है तो आप यह अनुचित है ऐसा समझकर अपने जीवन में उस अनुचित को न आने दें, तब तक तो ठीक है लेकिन ‘यह अनुचित करती है, यह निगुरी ऐसी है, वैसी है…’ – ऐसा करके आप उन पर दोषारोपण करके अपने दिल को बिगाड़ने की गलती करते हैं तो आप पशुता में चले जायेंगे । यदि सामने वाली सास-बहू, देवरानी-जेठानी सहनशक्तिवाली है तो उसका सद्गुण लेकर आप समता लाइये । किसी में कोई सद्गुण है तो वह स्वीकारिये और किसी में दुर्गुण है तो उससे अपने को बचाइये । ऐसा करके आप अपने अंतःकरण का विकास कीजिये । न किसी का दोष देखिये और न किसी को दोषी मानकर आरोप करिये और न किसी की आदत के गुलाम बनिये ।
किसी के दोष देखकर आप मन में खटाई लायेंगे तो आपका अंतःकरण खराब होगा लेकिन दोष दिखने पर आप उन दोषों से बचेंगे और उसको भी निर्दोष बनाने हेतु सद्भावना करेंगे तो आप अपने अंतःकरण का निर्माण कर रहे हैं । संसार तो गुण-दोषों से भरा है, अच्छाई-बुराई से भरा है । आप किसी की अच्छाई देखकर उत्साहित हो जाइये, आनंदित होइये और बुराई दिखने पर अपने को उन बुराइयों से बचाकर अपने अंतःकरण का निर्माण करिये और गहराई में देखिये कि यही अच्छाई-बुराई के ताने-बाने संसार को चलाते हैं, वास्तव में तत्त्वस्वरूप भगवान सच्चिदानंद हैं, मैं उन्हीं में शांत हो रहा हूँ । जहाँ-जहाँ मन जाय, उसे घुमा-फिराकर छल, छिद्र, कपट से रहित, गुण-दोष के आकर्षण से रहित अपने भगवत्स्वभाव में विश्रांति दिलाइये, विवेक जगाइये कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने को ऐसा पूछकर शांत होते जाइये ।
आप पुरुषार्थ करके अपनी मति को ऐसा बनाइये कि आपको लगे कि भगवान पूर्णरूप से मेरे ही हैं । के दस बेटे होते हैं, हर बेटे को माँ पूर्णरूप से अपनी लगती है, ऐसे ही भगवान हमको पूरे-के-पूरे अपने लगने चाहिए । ऐसा नहीं कि भगवान बापू जी के हैं, आपके नहीं हैं । जितने बापू जी के हैं उतने-के-उतने आपके हैं ।
‘ऋग्वेद’ कहता हैः मन्दा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वम् । तुम अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण बनाओ और कर्म करो ।’ (10,101,2) और कर्म में ऐसी कुशलता लाओ कि कर्म तो हो लेकिन कर्म के फल की लोलुपता नहीं हो और कर्म में कर्तृत्व अभिमान भी नहीं हो । कर्म प्रारब्ध-प्रवाह से होता रहे और आप कर्म को कर्मयोग बनाकर नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त करके भगवान में विश्राम पाओ, भगवान में प्रीति बढ़ाओ, ब्रह्मस्वभाव में जगो, ब्राह्मी स्थिति बनाओ ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 196
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