एक जिज्ञासु ने पूज्य लीलाशाहजी महाराज से पूछाः “ईश्वर की तरफ जाने की इच्छा तो बहुत होती है परंतु मन साथ नहीं देता । क्या करूँ ?”
संतश्री ने कहाः “मुक्ति की इच्छा कर लो ।”
जिज्ञासुः “परन्तु इच्छा-वासनाएँ मिटती नहीं हैं ।”
संत श्री ने जवाब दियाः “इच्छा-वासनाएँ नहीं मिटती हैं तो उसकी चिंता मत करो । उनके बदले ईश्वरप्राप्ति की इच्छा करो । रोज जोर-जोर से बोलकर दृढ़ संकल्प करो कि ‘मुझे इसी जन्म में राजा जनक की तरह आत्मा का अनुभव करना है ।’ जिस प्रकार देवव्रत (भीष्म पितामह) ने जोर से बोलकर संकल्प किया था कि ‘गंधर्व सुन लें, देवता सुन लें, यक्ष और किन्नर सुन लें, राक्षस सुन लें ! मैं शांतनुपुत्र देवव्रत प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अखण्ड ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करूँगा…. मैं विवाह नहीं करूँगा…. नहीं करूँगा…. नहीं करूँगा…’
इस प्रकार तुम एकांत कक्ष में बैठखर अपने शुभ संकल्प को जोर से दोहराओः ‘मैं इसी जन्म में आत्मा में स्थिति प्राप्त करूँगा… मैं इसी जन्म में राग-द्वेष से मुक्त हो जाऊँगा । मैं अमुक गुरु का शिष्य हूँ… जैसा बाप वैसा बेटा… मैं भी इसी जन्म में आत्म-साक्षात्कार करूँगा….’ इस प्रकार शुभ सकल्पों को बारम्बार दोहराओ ।
जिंदगी में दूसरा कोई आग्रह न रखो । नव ग्रहों से भी आग्रह ज्यादा खतरनाक है । शरीर की तंदुरूस्ती और मन की पवित्रता का ख्याल रखकर जो भी सादा या स्वादिष्ट मिल जाय उसे खा-पी लिया… जो मिले वो ओढ़ लिया…. परंतु ‘ऐसा ही होना चाहिए…. वैसा ही बनना चाहिए….’ ऐसा आग्रह मत रखो । इच्छा पूरी न होने पर ऐसा आग्रह हृदय में कलह और अशांति पैदा करता है । साथ-ही-साथ मन-बुद्धि में आसक्ति, अहंकार, राग और द्वेष भी भर देता है । यह आग्रह ही तो चौरासी लाख जन्मों में धकेल देता है । अतः कोई भी आग्रह मत रखो । छोटे-बड़े सभी आग्रहों को निकालने के लिए केवल एक ही आग्रह रखो कि ‘कुछ भी हो जाय, इसी जन्म में भगवान के आनंद को, भगवान के ज्ञान को और भगवत्शांति को प्राप्त करके मुक्तात्मा होकर रहूँगा ।’ इस प्रकार मन को दुराग्रह से छुड़ाकर केवल परमात्मप्राप्ति का ही आग्रह रखोगे तो मार्ग सरल हो जायेगा । ‘मैं आत्मा हूँ…’ ऐसी भावना हमेशा करो । जिस प्रकार कोई करोड़पति ‘मैं कंगाल हूँ… मैं कंगाल हूँ….’ ऐसी दृढ़ भावना करेगा तो अपने को कंगाल ही मानेग, परन्तु ‘मैं करोड़पति हूँ’ ऐसा भाव करेगा तो अपने को करोड़पति मानेगा । इसी प्रकार ‘मैं आत्मा हूँ’ ऐसी भावना करो । रोज सुबह एकांत कक्ष में ‘मैं ब्रह्म हूँ…. अमर हूँ… चैतन्य हूँ… मुक्त हूँ…. सत्यस्वरूप हूँ….’ ऐसा शुभ संकल्प करो, परंतु ‘मैं मारवाड़ी हूँ… सिंधी हूँ… गुजराती हूँ…. पंजाबी हूँ…. सुखी हूँ…. दुःखी हूँ….’ ऐसी झूठी भावना मत करना । ऐसी झूठी भावना करने से सुखी होने के बदले दुःखी और अशांत ही होओगे । ऐसे मिथ्या संस्कार तुम्हें जन्म-मरण के चक्र में डाल देंगे । तुम इस जन्म में सुख और शांति पाने के उपाय ढूँढो और सोचो कि अब क्या करना चाहिए ? ऐसा नहीं कि तुम किसी साधु-संत के पास जाकर कहो कि ‘साँई ! मेरी पत्नी का स्वभाव बदल डालो ।’
अरे भाई ! तू अपना ही स्वभाव बदल दे, अपनी समझ सुधार ले । पत्नी का स्वभाव बदलेगा तो फिर कहोगे कि ‘बेटे का स्वभाव बदलो…. विरोधी का स्वभाव बदलो….’ तू अपना ही स्वभाव क्यों नहीं बदलता ? उन लोगों में से अपना राग-द्वेष क्यों नहीं खींच लेता ? उलटा फँस मरने की माँग करता है !
‘ऐसा हो जाय तो अच्छा… वैसा मिल जाय तो अच्छा…’ इसकी अपेक्षा तो तू जहाँ है वहीं से मुक्त स्वभाव की ओर चल । अपनी बेवकूफी तो छोड़नी नहीं है और दुःख मिटाना चाहते हो ? अपनी बेवकूफी क्या है ? अपनी कल्पना के अनुसार संसार को, पत्नी को, पति को, बेटे को, मित्र को, नौकर को बदलकर सुखी होने की जो माँग है वही बेवकूफी है । वास्तव में ऐसा करने से कोई भी सुखी नहीं हुआ है । सुखी तो तभी हुआ जा सकता है जब अपने ब्रह्मत्व की, अपने सत्यस्वरूप की स्मृति दृढ़ कर लो । इस प्रकार मन में शुभ एवं सत्य संकल्पों को रोज-रोज दोहराने से, अपनी इच्छा-वासनारूपी दुराग्रहों को छोड़ने से और आत्मस्वरूप का स्मरण करने से तुम्हारा आध्यात्मिक पथ सरल हो जायेगा ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 2009
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