ज्ञानमयी दृष्टि

ज्ञानमयी दृष्टि


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

जगत कैसा है ? पहले देखो, आपके मन का भाव कैसा है ? जैसा आपका भाव होता है, जगत वैसा ही भासित होता है । सुर (देवत्व का) का भाव होता है तो आप सज्जनता का, सदगुण का नजरिया ले लेते हैं और आसुरी भाव होता है तो आप दोषारोपण का नजरिया ले लेते हैं । जिस एंगल से फोटो लो वैसा दिखता है । जगत में न सुख है न दुःख है, न अपना है न पराया है । आप राग से लेते हैं, द्वेष से लेते हैं कि तटस्थता से लेते है । आप जैसा लेते हैं ऐसा ही जगत दिखने लगता है ।

कोई भी जगत का व्यवहार किया जाता है तो उसे सच्चा समझकर चित्त को उससे विह्वल न करो, नहीं तो आसुरी वृत्ति हो जायेगी, शोक हो जायेगा, दुःख हो जायेगा । अच्छा होता है तो उसका अहंकार न करो । हो-हो के बदलने वाला जगत है, यह द्वैतमात्र है – या तो सुख या तो दुःख । इन दोनों के बीच का तीसरा नेत्र खोलो ज्ञान का । आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा है ज्ञानमयी दृष्टि करना – सुख में भी न उलझना, दुःख मं भी न उलझना ।

न खुशी अच्छी है, न मलाल अच्छा है ।

यार तू अपने-आपको दिखा दे, बस वो हाल अच्छा है ।।

प्रभु ! तू अपनी चेतनता, अपनी सत्यता, अपनी मधुरता दे ।

दायाँ-बायाँ पैर पगडण्डी पर, सीढ़ियों पर रखते-रखते दे के मंदिर में पहुँचते हैं, ऐसे ही सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु इनको पैरों तले कुचलते-कुचलते जीवनदाता के स्वरूप का ज्ञान पाना चाहिए, उसी में विश्रांति पानी चाहिए, उसी में प्रीति होनी चाहिए ।

जो कल नहीं आये थे वे हाथ ऊपर करो ।

(कुछ लोग हाथ ऊपर करते हैं ।)

जो आज नहीं आये हैं वे हाथ ऊपर करो ।

देखो, कोई नहीं करता ।

यह किसके द्वारा आता है ? ज्ञान के द्वारा । तो इस ज्ञान का स्रोत क्या है ?

इन्द्रियों का ज्ञान । इन्द्रियों की गहराई में मन का ज्ञान । मन की गहराई में बुद्धि का ज्ञान । लेकिन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि में ज्ञान कहाँ से आता है ? ‘मैं’ से । ‘मैं’ माना वही चैतन्य, जहाँ से ‘मैं’ उठता है उस चैतन्य का सुख चाहिए । है न !

कोई बोलता हः “मैं हूँ, तुम नहीं हो ।” तो क्या आप मानोगे ?

आप बोलोगेः “मैं भी हूँ । मैं कैसे नहीं हूँ ? मैं हूँ तभी तुम हो । मैं हूँ तभी तुम दिखते हो ।”

‘मैं’ ही मेरे में तृप्त है । मैं, मैं, मैं, मैं…. ये आकृतियाँ अनेक हैं, अंतःकरण अऩेक हैं लेकिन मैं की सत्ता एक है । उसी मैं में आराम पाओ । गहरी नींद में आप अपने मैं में ही तो जाते हो, और क्या है ?

उस मूल ज्ञान को मैं के रूप में जान लिया तो आपका तो काम हो गया, देवत्व प्रकट हो गया लेकिन आपकी वाणी सुनने वाले को भी महापुण्य होगा ।

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।

तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध ।।

सुख देवें दुःख को हरें, करें पाप का अंत ।

कह कबीर वे कब मिलें, परम सनेही संत ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 7 अंक 197

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