गुरुभक्तियोग

गुरुभक्तियोग


किसी भी प्रकार के ज्ञान के उद्भव के लिए बाह्य साधन, कर्म या क्रिया आवश्यक है । अतः साधक में ज्ञान का आविर्भाव करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है । परस्पर प्रभावित करने की सार्वत्रिक प्रक्रिया के लिए एक-दूसरे के पूरक दो भाग के रूप में गुरु-शिष्य हैं । शिष्य में ज्ञान का उदय शिष्य की पात्रता और गुरु की चेतनाशक्ति पर अवलम्बित है । शिष्य की मानसिक स्थिति अगर गुरु की चेतना के आगमन के अनुरूप पर्याप्त मात्रा में तैयार नहीं होती तो ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं हो सकता । इस ब्रह्माण्ड में कोई भी घटना घटित होने के लिए यह पूर्वशर्त है । जब तक सार्वत्रिक प्रक्रिया के एक-दूसरे के पूरक ऐसे दो भाग या दो अवस्थाएँ इकट्ठी नहीं होतीं, तब तक कहीं भी, कोई भी घटना घटित नहीं हो सकती ।

‘आत्मनिरीक्षण के द्वारा ज्ञान का उदय स्वतः हो सकता है और इसलिए बाह्य गुरु की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है’ – यह मत सर्वस्वीकृत नहीं बन सकता । इतिहास बताता है कि ज्ञान की हरेक शाखा में शिक्षण की प्रक्रिया के लिए शिक्षक की सघन प्रवृत्ति अत्यंत आवश्यक है । यदि  किसी भी व्यक्ति में किसी भी बाह्य सहायता के सिवाय, सहज रीति से ज्ञान का उदय संभव होता तो स्कूल, कॉलेज एवं यूनिवर्सिटियों की कोई आवश्यकता नहीं रहती । जो लोग ‘शिक्षक की सहायता के बिना ही स्वतंत्र रीति से कोई व्यक्ति कुशल बन सकता है’ – ऐसे गलत मार्ग पर ले जाने वाले मत का प्रचार-प्रसार करते हैं, वे लोग भी तो स्वयं किसी शिक्षक के द्वारा ही शिक्षित होते हैं । हाँ, ज्ञान के उदय के लिए शिष्य या विद्यार्थी के प्रयास का महत्त्व कम नहीं है । शिक्षक के उपदेश जितना ही उसका भी महत्त्व है ।

इस ब्रह्माण्ड में कर्ता एवं कर्म सत्य के एक ही स्तर पर स्थित हैं क्योंकि इसके सिवाय उनके बीच पारस्परिक आदान-प्रदान संभव नहीं हो सकता । अलग स्तर वर स्थित चेतनाशक्ति के बीच प्रतिक्रिया नहीं हो सकती । हालाँकि शिष्य जिस स्तर पर होता है उस स्तर को माध्यम बनाकर गुरु अपनी उच्च चेतना को शिष्य पर केन्द्रित कर सकते हैं । इससे शिष्य के मन का योग्य रूपांतर हो सकता है । गुरु की चेतना के इस कार्य को ‘शक्ति-संचार’ कहा जाता है । इस प्रक्रिया में गुरु की शक्ति शिष्य में प्रविष्ट होती है । ऐसे उदाहरण भी मिल जाते हैं कि शिष्य के बदले में गुरु ने स्वयं ही साधना की हो और उच्च चेतना की प्रत्यक्ष सहायता के द्वारा शिष्य के मन की शुद्धि करके उसका ऊर्ध्वीकरण किया हो ।

दोषदृष्टिवाले लोग कहते हैं- “अंतरात्मा की सलाह लेकर सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा हम पहचान सकते हैं, अतः बाह्य गुरु की आवश्यकता नहीं है ।

किंतु यह बात ध्यान में रहे कि जब तक साधक शुचि और इच्छा-वासनारहितता के शिखर पर नहीं पहुँच जाता, तब तक योग्य निर्णय करने में अंतरात्मा उसे सहायरूप नहीं बन सकती ।

पाशवी अंतरात्मा किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं दे सकती । मनुष्य के विवेक और बौद्धिक मत पर उसके अव्यक्त और अज्ञात मन का गहरा प्रभाव पड़ता है । प्रायः सभी मनुष्यों की बुद्धि सुषुप्त इच्छाओं तथा वासनाओं का साधन बन जाती है । मनुष्य की अंतरात्मा  उसके अभिगम, झुकाव, रूचि, शिक्षा, आदत, वृत्तियाँ और अपने समाज के अनुरूप बात ही कहती है । अफ्रीका के जंगली आदिवासी, सुशिक्षित यूरोपियन और सदाचार की नींव पर सुविकसित बने योगी की अंतरात्मा की आवाजें भिन्न-भिन्न होती हैं । बचपन से अलग-अलग ढंग से बड़े हुए दस अलग-अलग व्यक्तियों की दस अलग-अलग अंतरात्मा होती हैं । विरोचन ने स्वयं ही मनन किया,  अपनी आत्मा का मार्गदर्शन लिया एवं ‘मैं कौन हूँ ?’ इस समस्या का आत्मनिरीक्षण किया और निश्चय किया कि यह देह ही मूलभूत तत्त्व है । (ऐसा अंतरात्मा की अनर्थकारी प्रेरणावाला अनर्थकारी जीवन हो गया ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 198

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