(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
वसिष्ठ जी महाराज ‘श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण’ में कहते हैं- “हे राम जी ! त्रिभुवन में ऐसा कौन है जो संत की आज्ञा का उल्लंघन करके सुखी रह सके ?”
संत परम हितकारी होते हैं । वे जो कुछ कहें, उसका पालन करने के लिए डट जाना चाहिए । इसी में हमारा कल्याण निहित है । महापुरुष की बात को टालना नहीं चाहिए ।
भगवान शंकर कहते हैं-
गुरुणां सदसद्वापि यदुक्तं तन्न लंघयेत् ।
कुर्वन्नाज्ञां दिवारात्रौ दासन्निवसेद् गुरौ ।।
‘गुरुओं की बात सच्ची हो या झूठी परंतु उसका उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए । रात और दिन गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए गुरु के सान्निध्य में दास बनकर रहना चाहिए ।’
गुरुदेव की कही हुई बात चाहे झूठी दिखती हो फिर भी शिष्य को संदेह नहीं करना चाहिए, कूद पड़ना चाहिए उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए ।
दिल्ली में अकबर का राज्य था उस समय की बात है । अकबर ने अपने पुत्र जहाँगीर को लाहौर इलाका राज्यसत्ता भोगने के लिए दिया था । जहाँगीर को शिकार की बहुत आदत थी और वह मुरगाबी (जल-कुक्कुट) नामक पक्षी के मांस का बड़ा शौकीन था । एक बार उसने लाहौर के पास वाले गुरदासपूर के घने जंगल में आखेट के लिए अपने अंगरक्षकों, सैनिकों और शिकारियों के साथ सात दिन तक वन-विचरण की योजना बनायी । वह अपने रसोइयो को भी ले गया था । वे लोग रोज मुरगाबी पक्षियों की हत्या करते और उनका मांस खाते थे ।
आखेट करते-करते एक दिन वे जंगल में रास्ता भटक गये । उनमें से कुछ लोग उत्तर दिशा में और दूसरे पश्चिम दिशा में आगे बढ़े । उत्तरवाला दल चलते-चलते भगवानदास जी नाम के संत के आश्रम में पहुँचा । वे संत अपने शिष्यों सहित पिंडौरी नामक उस स्थान के कुदरती शुद्ध हवामान तथा प्राकृतिक वातावरण में ब्रह्म-परमात्मा की चर्चा और मौन का अवलम्बन लेते हुए ब्रह्म-विश्रांति में रहते थे ।
भगवानदास जी महाराज का एक शिष्य था नारायणदास । एक दिन गुरु ने उसको कहाः “बेटा बोलने से शक्ति का ह्रास होता है । मौन रहना, श्वासोच्छ्वास में ॐकार का अथवा सोऽहम् का जप करना । इससे अकृत्रिम आनंद मिलता है । हम जब तक नहीं आये तब तक तुम यहीं रहना ।”
गुरु की आज्ञा, गुरु की सेवा साधु जाने,
गुरु सेवा कहाँ मूढ़ पिछाने ।
गुरु आज्ञा सुनकर नारायणदास नतमस्तक हुआ और मौन हो गया । अब उसी नारायणदास से जहाँगीर के सिपाहियों ने आकर पूछाः “हम भटक गये हैं । फलाना-फलाना रास्ता किधर जाता है, किधर से आता है ? नारायणदास तो मौन था, कुछ बोला नहीं । सिपाहियों ने उसको हिलाया-डुलाया…. ‘बोलो, बोलो….’ धमकाया भी लेकिन कुछ असर नहीं हुआ तो सिपाहियों ने सोचा कि ‘जहाँगीर ने जहाँ पड़ाव डाला है वहाँ इसको ले चलो । इसे दण्ड देंगे, मारपीट करेंगे तो अपने-आप बोलेगा ।
ले गये और सत्शिष्य नारायणदास को जो कुछ अपशब्द बोलने थे बोले, डाँटना था डाँटा और धमकाना था धमकाया लेकिन नारायणदास ने मन में ठान लिया था कि ‘गुरु की आज्ञा है कि जब तक हम न आयें तब तक बोलना नहीं तो मैं उस आज्ञा का जान की बाजी लगाक भी पालन करूँगा ।’ उसने मारपीट सह ली, गालियाँ सह लीं लेकिन कुछ बोला नहीं ।
चाहे भौतिक जगत में हो चाहे आध्यात्मिक जगत में, बिना कुछ-न-कुछ नियमनिष्ठा, पुरुषार्थ और बिना परीक्षा के भव्य अनुदान नहीं मिला करते हैं और मिल भी जायें तो टिकते नहीं हैं । मेरी भी गुरु के द्वार पर कैसी-कैसी परीक्षाएँ हुईं, वहाँ कैसी-कैसी कठिनाइयाँ आयीं ! विघ्न, बाधा और कष्ट अनुदानों को झेलने की योग्यता देते हैं, इसलिए डरना नहीं चाहिए, निराश नहीं होना चाहिए ।
सिपाही नारायणदास को जहाँगीर के पास ले आये । जहाँगीर थका हुआ था, बोलाः “इसको सुबह देखेंगे ।” फौजी मुसलमान थे और यह हिन्दू साधु का शिष्य था, वे रास्ता भटके हुए थे और यह बोल नहीं रहा था तो वे गुस्से में कहने लगेः “यह ढोंग करता है और हमको सताता है, यह तो हमारा दुश्मन है काफिर !”
अब एक सिपाही तो था नहीं । मार झेलने वाला, गालियाँ झेलने वाला अकेला और मारने वाला, गालियाँ देने वाले अनेक लेकिन कैसी है उसकी दृढ़ता ! सुबह जहाँगीर के सामने हाजिर कर दिया मुजरिम को । उसका दोष तो कुछ नहीं था, वह तो अपने गुरु जी की मौन रहने की आज्ञा पाल रहा था । जहाँगीर ने उसको डाँटा-फटकारा । उसके कहने से सिपाहियों ने जो कुछ मारपीट करनी थी, ककी लेकिन वह बोलता ही नहीं था । जहाँगीर का गुस्सा और बढ़ गयाः “हम पूछ रहे हैं और यह कछ बोलता नहीं है ! आखिर यह समझता क्या है ! इसे लाहौर ले चलो, वहाँ कठोर दण्ड देकर इससे बुलवाया जायेगा ।”
लाहौर में भीषण यातनाएँ भी नारायणदास का मौन-व्रत भंग नहीं कर सकीं तो जहाँगीर आगबगूला हो उठा । उसने आदेश दियाः “इसको जहर घोलकर पिला दो ।” जहर घोला गया, कटोरा आया । नारायणदास ने कटोरे को एकटक देखा, गुरु का सुमिरन किया और चिंतन किया, ‘ॐॐ… यह जहर मेरे को कुछ नहीं कर सकता । मुझ पर विष का असर नहीं होगा ।’ मन में ‘ॐ’ जपते हुए उसे पी लिया । गुरु का वचन पाला है तो फिर इसका वचन विष कैसे न माने ! जहाँगीर की आँखें फटी रह गयीं । वह देख रहा था कि अब गिरेगा, अब लड़खड़ायेगा लेकिन नारायणदास के चेहरे पर वही शांति, वही निर्भीकता थी । जहाँगीर गुस्साया, बोलाः “अभी असर नहीं होता… ! दूसरा प्याला दो ।”
नारायणदास उसको भी पी गया । तीसरा प्याला दिया गया, उसका भी कोई असर नहीं हुआ तो जहाँगीर को संदेह हुआ कि ‘कहीं जहर नकली तो नहीं है ?’ तो बिल्ली को पिलाया गया । बिल्ली उसी समय कराहते हुए मर गयी । जहाँगीर देखता ही रह गया और बोलाः “जहर तो तेज है, फिर असर क्यों नहीं हो रहा है है ! चौथा प्याला दो ।” चौथा भी पिया । फिर पाँचवाँ, छठा… जैसे हारा हुआ जुआरी दुगना दाँव खेलता है, ऐसे ही जहाँगीर गुस्से में और जुल्म किये जा रहा था ।
नारायणदास की गुरु के प्रति दृढ़ श्रद्धा का फल यह हुआ कि गुरु सुमिरन और दृढ़ संकल्प से विष के विषैले स्वभाव को उसने छः प्यालों तक मार दिया, लेकिन जहाँगीर रूका नहीं, बोलाः “अभी तक बोलता भी नहीं, मरता भी नहीं…! सातवाँ प्याला दो ।”
सातवाँ प्याला दिया तो नारायणदास ईश्वर को कहते हैं कि ‘अब तेरी मरजी पूरण हो….।’
वह सर्व-अंतर्यामी, सर्वेश्वर, परमेश्वर, विश्वेश्वर कैसी लीला करता है ! जहर का सातवाँ प्याला तो पिया है भगवानदास जी के आज्ञाकारी सत्शिष्य नारायणदास ने, पर उसका असर हुआ जहाँगीर पर !
‘तौबा, तौबा….! अल्लाह….!! मैं मरा जा रहा हूँ….’ ऐसा कहकर वह छटपटाता हुआ गिर पड़ा । ‘जहाँपनाह ! जहाँपनाह !!’ कहने वाले हाथ मलते रहे, चाकरी करते रहे, जहाँपनाह मर गया । सब थर-थर काँपने लगे, घबराने लगे ।
भगवान के प्यारे संत या भक्त जुल्म सहते-सहते जुल्म पीते जाते हैं तो परमेश्वर से नहीं रहा जाता । मेरे साथ किसी ने जुल्म किया, मैं तो कुछ नहीं बोला तो ऐसा हुआ कि किसी को ब्रेन-हैमरेज हो गया और वह आकाश से (हेलिकाप्टर से) ही चल पड़ा । और किसी ने कुछ जुल्म किया, अति किया तो उनका कैसा-कैसा हाल हो गया ! कोई जेल में चला गया, किसी को कुछ, किसी को कुछ….। तो आप जुल्म सहते हैं और ईश्वर के नाते अडिग रहते हैं तो ईश्वर से फिर जुल्मियों को दण्ड दिये बिना रहा नहीं जाता ।
भगवानदास महाराज जी अपने स्थान पर आये तो देखा कि नारायणदास नहीं है । वे सोचने लगे कि ‘मेरा शिष्य नारायणदास मेरी आज्ञा का उल्लंघन करके आश्रम छोड़कर जाय ऐसा नहीं है ।’ गुरु चुप होकर ध्यान में बैठे तो सारा रहस्य दिख गया । महाराज जी ने देख लिया कि ‘मेरे सत्शिष्य को जहाँगीर के सैनिक इस प्रकार मारते-पीटते ले गये और ऐसे-ऐसे जहर के प्याले पिलाये और अभी बंदी बनाकर रखा है ।’
महाराज से रहा नहीं गया । वे सूक्ष्म शरीर से झट से वहाँ प्रकट हो गये, बोलेः “यह मेरा शिष्य है और इसने मौन-व्रत रखा है । मेरी आज्ञा थी कि जब तक मैं नहीं आऊँ तब तक मौन खोलना नहीं । तुम लोगों ने इसको नाहक जहर पिलाया । इसको पिलाय गये छः-छः प्याले जहर को प्रकृति ने, ईश्वर ने करूणा करके सँभाल लिया लेकिन सातवें प्याले का असर तुम्हारी तरफ भेजा । तुम्हारे जहाँपनाह उसी से मरे हैं ।”
सेनापति और सिपाही गिड़गिड़ाने लगे कि “महाराज ! बख्शो, रहमत करो…. हमारे जहाँपनाह जहाँगीर को जीवनदान दो ।”
महाराज बोलेः “पहले मेरे शिष्य को बाइज्जत छोड़ दो ।”
उन्होंने हाथाजोड़ी करके माफी-वाफी माँगकर नारायणदास को तुरंत बाइज्जत छोड़ दिया ।
भगवानदासजी बोलेः “ठीक है, हम तो जाते हैं । राजवैद्य ! यह जिस प्रकार का कातिल जहर है उसका तुम उपचार करो, भगवान की दया से ठीक हो जायेगा ।”
“महाराज ! रहमत करो, बख्शो, बख्शो….।”
“चलो, हम देखते हैं उपचार करो ।”
थोड़ा उपचार हुआ, बाबा ने मीठी नज़र डाली और जहाँगीर का अंतवाहक शरीर जो भटक रहा था वह वापस स्थूल शरीर में घुसा । जहाँगीर ने हाथ-पैर हिलाये, खुशी छा गयी । महाराज का अभिवादन हुआ । अपने शिष्य नारायणदास को लेकर भगवानदासजी जंगल की तरफ चले गये ।
एक सप्ताह में जहाँगीर पूर्णरूप से ठीक हो गया किंतु इस घटना से वह इतना भयभीत हो गया था कि उसने पिंडौरी जाकर भगवानदास जी से माफी माँगी व प्रायश्चित्त बताने की प्रार्थना की । भगवानदास जी ने कहाः “बेटा ! जा, आगे से किसी साधुपुरुष को निरर्थक परेशान न करना । यही तुम्हारा सच्चा प्रायश्चित्त होगा ।”
जहाँगीर और उसके सिपाहियों की क्रूरता, नारायणदास का मौन और दृढ़ गुरुभक्ति, वे परिस्थितियाँ और उन पर विजय पाने का नारायणदास का सामर्थ्य समय की सरिता में सरक गया । क्रूरों का क्रूर आचरण उन्हें दुःखद योनियों में ले गया, गुरुभक्तों की साधना और दृढ़ता उन्हें ऊँची अवस्था में ले जायेगी लेकिन परम सत्य तो यह है कि जिस सच्चिदानंद की सत्ता से सज्जनता और क्रूरता और उनके फल हो-हो के बदल जाते हैं, उस अबदल आत्मा में जो प्रतिष्ठित हो गये वे आत्मवेत्ता स्थितप्रज्ञ पुरुष धन्य-धन्य हैं ! उनका दर्शन करने वाले धन्य हैं, उनके विचार सुनने-समझने वाले धन्य हैं !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 10-13 अंक 198
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