निष्ठावान बनो ! – पूज्य बापू जी

निष्ठावान बनो ! – पूज्य बापू जी


यदि निष्ठा दृढ़ हो तो कठिन-से-कठिन कार्य भी पूर्ण हो सकता है । इसी जन्म में परमात्मा के समग्र स्वरूप को पाने का दृढ़ संकल्प हो, अनन्य भाव हो तो वह भी पूर्ण हो जाता है । मनुष्य के पास दुःख मिटाने के लिए, शांति पाने के लिए, सफलता पाने के लिए उसकी निष्ठा पर्याप्त है ।

महाराष्ट्र में कराड़ है । वहाँ एक भगवद्भक्त सखूबाई हो गयी । सखूबाई बड़ी सुशील, नम्र और सरलहृदया थी पर उसके सास-ससुर और पति उतने ही कर्कश व कठोर थे । वे सखू को खूब सताते थे ।

चाहे कैसी भी परिस्थिति हो लेकिन अपना दृढ़ संकल्प उन परिस्थितियों को बदल देता है । दुनिया के लोग चाहे आपके साथ कैसा ही व्यवहा करें लेकिन आप अपने साथ जुल्म नहीं करते तो उनका जुल्म आपको मिटा नहीं सकता । अपनी निष्ठा और विश्वास दृढ़ होना चाहिए । पत्नी की निष्ठा है कि ‘मैं पतिपरायण रहूँगी’ लेकिन साड़ी फट जाय और पड़ोसी के यहाँ साड़ी की भीख माँगने जाय तो यह पति में निष्ठा नहीं है । एक भक्त है और उससे कीड़ी मर गयी तो भगवान अच्युत का सुमिरन कर ले । यह उसकी निष्ठा है कि चलो, कीड़ी के मरने का पाप नष्ट हो गया । लेकिन भक्त कर्मकांडी बने और सोचे कि ‘गंगा नहायेंग, उपवास करेंगे तब मेरा पाप मिटेगा’ तो यह उसकी विचलित निष्ठा है । योगी है, अगर उससे कीड़ी मर गयी तो उसने प्राणायाम क लिया, सोचा, ‘कीड़ी का शरीर बदला, आत्मा तो अमर है और मैंने जानबूझकर नहीं मारा’ तो ठीक है, लेकिन योगी गंगा नहाने जाय अथवा उपवास करने लगे तो उसकी योगनिष्ठा उसको तारेगी नहीं । तत्त्वज्ञानी है, चलते-चलते कीड़ी मर गयी तो वह भी प्राणायाम करने लग जाय तो उसकी निष्ठा से वह गिरा है । तत्त्ववेत्ता है तो तत्त्ववेत्ता की निष्ठा है कि ‘तत्त्व तो ज्यों-का-त्यों है, कीड़ी की आकृति बनती बिगड़ती है । ॐॐ….’ पूरा हो गया ।

अपनी निष्ठा अपना कल्याण करने के लिए पर्याप्त है । सखूबाई की निष्ठा देखो । कितना-कितना जुल्म होता था लेकिन वह अपनी निष्ठा से विचलित नहीं होती थी । ‘भगवान मेरे हैं और मेरी उन्नति के लिए यह लीला रच रहे हैं । सुख-दुःख सब भगवान की देन है ।’ – ऐसी सखूबाई की निष्ठा थी ।

प्रह्लाद की निष्ठा देखो । पिता कितना कष्ट देता है पर प्रह्लाद की निष्ठा है कि ‘मेरा हरि सर्वत्र है, वह मेरा रक्षक है’ तो अग्नि ने प्रह्लाद को नहीं जलाया लेकिन जिसे वरदान था वह होलिका जल मरी ।

‘मेरी गाँधी जी के प्रति निष्ठा है । मैं गाँधी जी का अनुसरण करता हूँ । उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानता हूँ’- ऐसा बोलना अलग बात है । यह भाषणबाजी करके जनता को उल्लू बनाना अलग बात है लेकिन गाँधी जी के प्रति निष्ठा है तो गाँधी जी के आचरण जैसा अपने जीवन का कोई एक आचरण तो बताओ ! गाँधी जी कितने सत्यप्रिय थे ।

निष्ठा तो शबरी भीलन की थी । गुरु जी ने कह दियाः ‘शबरी ! राम जी के पास तुझे नहीं जाना पड़ेगा, तू आश्रम की सेवा करना, राम जी अपने-आप तेरे पास आयेंगे ।’ शबरी जब गुरु के आश्रम में आयी थी तब सोलह साल की थी । अब वह अस्सी साल की बुढ़िया हो गयी, सब लोग उसको पागल बोलते, कुछ-का-कुछ बोलते लेकिन शबरी की निष्ठा ने राम जी को अपने द्वार पर ला दिया और जूठे बेर खिलाकर दिखा दिया । इसका नाम है निष्ठा !

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास ।

प्रह्लाद की निष्ठा से नृसिंह भगवान प्रकट हो गये । ध्रुव की निष्ठा से उसकी 5 साल की उम्र में भगवान नारायण प्रकट हो गये । समर्थ रामदास जी के भाई रामी रामदास को माँ ने कहाः ‘बेटा ! तू हनुमान जी की ओर एकटक देख और निष्ठा से जप कर तो हनुमान जी प्रकट हो जायेंगे ।’ बेटे ने माँ के वचन में निष्ठा रखी और आठ साल की उम्र में हनुमान जी को प्रकट करके दिखा दिया । ऐसे ही शिवाजी महाराज की अपने गुरु जी में, अपने धर्म में, अपनी प्रजा के प्रति कैसी निष्ठा थी ! सुबह जब मैं घूमने जाता हूँ तो देखता हूँ कि गरीब लोग जिनके झोंपड़े का ठिकाना नहीं, कच्ची सड़क पर भारत की गरीब माताएँ अपने बच्चों को लेकर सोयी हैं तो मेरे दिल में बहुत पीड़ा होती है । देशवासियों का खून चूस-चूसकर चोर लोगों ने स्विस बैंक में अरबों-खरबों रूपये रखे हैं । अगर सरकार हिम्मत कर विदेश से वह पैसा लाकर भारत को कर्जमुक्त करे और इऩ गरीब-गुरबों को मकान बनाकर दे तो कितना अच्छा हो !

पंढरपुर प्रसिद्ध तीर्थ है । हर वर्ष लाखों नर-नारी कीर्तन करते हुए पंढरीनाथ श्रीविट्ठल भगवान के दर्शनार्थ जाते हैं । कुछ यात्री कराड़ से पंढरपुर के मेले में जा रहे थे । यात्रियों को जाते देख सखूबाई के मन में भी पंढरीनाथ के दर्शन की इच्छा जाग उठी । उसने सोचा कि ‘सास-ससुर आदि तो आज्ञा मिल नहीं सकती ।’ अतः घड़ा वहीं रखके यात्रियों के साथ चल दी । उसकी पड़ोसन, जो नदी पर पानी भरने आयी थी, उसने यह खबर उसकी सास को सुनायी तो सास ने अपने बेटे को भड़काकर भेजा । वह उसे मारते, घसीटते हुए घर ले आया और एक कोठरी में बंद कर दिया । तीनों ने पक्का कर लिया कि ‘जब तक पंढरपुर का मेला होता है तब तक सखू को बाँधकर रखेंगे और कुछ भी खाने पीने को नहीं देंगे ।’ लेकिन सखूबाई यह नहीं कहती कि ‘भगवान ! मैं तुम्हारी भक्ति करती हूँ और तुमने मेरे लिए क्या किया ?’ निष्ठा नहीं तोड़ती । सखूबाई को बाँध दिया गया तो वह कहती हैः ‘मेरे विट्ठल ! अब मैं क्या करूँ ? हे दीनानाथ ! मैं न तुम्हारा पूजा पाठ जानती हूँ, न भक्ति जानती हूँ, मैं तो इतना ही जानती हूँ कि अब तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं है । हे प्रभु ! मैं तो केवल आपकी हूँ ।’

प्रार्थना करते-करते शाँत हो जाते हैं तो अंतर्यामी की लीला शुरु होती है । भगवान तो सर्वसमर्थ हैं । वे स्त्रीरूप धारण कर वहाँ प्रकट हो गये  और बोलेः “बाई ! तू पंढरपुर नहीं जायेगी ?”

सखू ने कहाः “जाना तो चाहती हूँ पर बँधी पड़ी हूँ ।”

स्त्रीरूपधारी भगवान उसे खोलते हुए बोलेः “अब तू शीघ्र पंढरपुर चली जा ।”

इस प्रकार भगवान ने सखू को पंढरपुर पहुँचा दिया और आप सखू का रूप धर के उस कोठरी में स्वयं बँध गये और ज्यों-का-त्यों ताला लगा लिया । सखूबाई तो पंढरपुर पहुँची और परमात्मा सखूबाई के रूप में बँधे हैं, कैसी निष्ठा है !

जहाँ सखू वेशधारी भगवान बँधे थे वहाँ आकर सखू के सास-ससुर और पति दिन में दो-चार बार गालियाँ सुनाते लेकिन भगवान पर दृष्टि पड़ते-पड़ते उनके अंतःकरण में सत्त्वगुण जाग उठा । वे तीनों पश्चाताप करने लगे । उसके बंधन काटकर क्षमा माँगने लगे । जुल्मी जुल्म करता है लेकिन निष्ठावान की कृपा से जुल्मी का हृदय बदलता है ।

भगवान वे सभी गृहकार्य करने लगे जो सखू करती थी – भोजन बनाना, भोग लगाना, सास-ससुर को खिलाना… उन्हें तो आनंद आने लगा । तीनों विचार करने लगे कि ‘हमने तो गलती की जो सखू को इतना कष्ट दिया ।’

इधर मेला पूरा हुआ । सखू ने सोचा, ‘अब जाऊँगी तो घरवाले क्या पता मेरा क्या हाल करेंगे ।’ उसे पता ही नहीं था कि उसके लिए कोई बँधा है । उसने सोचा, ‘उस नरक से तो यहीं मर जाना अच्छा है ।’ उसने प्रतिज्ञा की कि ‘अब मैं इस देह से घर नहीं जाऊँगी ।’ सखू भगवान के ध्यान में मग्न हो गयी और वहीं कुछ समय बाद प्रभु के ध्यान-ध्यान में सखू के प्राण निकल गये । दैवयोग से कराड़ के निकट के किवल ग्राम के एक ब्राह्मण ने उसे पहचान लिया और अपने साथियों को बुलाकर वहीं उसकी अंत्येष्टि कर दी ।

इधर जब भगवान को सखूवेश में बहुत दिन हो गये तो रुक्मिणी जी ने देखा कि ‘सखू तो मर गयी और मेरे स्वामी उसकी जगह बहू बन बैठे हैं । अब मैं क्या करूँ ?’ उन्होंने श्मशान में जाकर सखू की हड्डियाँ इकट्ठी कीं और अपनी योगशक्ति से उनमें प्राणों का संचार कर सखूबाई को खड़ा कर दिया । जो आद्यशक्ति समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करने वाली है, उनके लिए सखू को जीवित करना कोई बड़ी बात नहीं थी ।

रुक्मिणी जी ने कहाः “सखू ! तुमने कहा था कि ‘इस शरीर से नहीं जाऊँगी’ तो वह शरीर तो जल गया । अब मैंने तेरा नया शरीर बनाया है, तू अपने घर जा।” अपरिचित देवी की बात सुनकर सखू कराड़ पहुँच गयी ।

इधर भगवान घड़ा लेकर नदीतट पर पानी भरने आये और सखू को देखकर बोलेः “बहन ! तू बहुत दिनों के बाद आयी है । ले अब तू अपना घड़ा सँभाल, मैं जाती हूँ ।” देखते-ही-देखते भगवान अंतर्धान हो गये ।

तुम क्या समझते हो निष्ठा की लीला ! इस कथा-वार्ता को पढ़-सुनकर जो लोग अपनी निष्ठा दृढ़ करेंगे वे भक्ति में सफल होंगे, ज्ञानी ज्ञान में सफल होंगे, सेवक सेवा में सफल होंगे, कर्मी कर्म में सफल होंगे, निष्ठा फलदायी होगी । इस कथा को वरदान मिल गया । अपनी-अपनी निष्ठा व्यक्ति को कल्याण के आखिरी शिखऱ तक पहुँचा देती है ।

इस आत्मा में अनेक रूप धारण करने की शक्ति है । सपने में तो ऐसा होता ही है, जाग्रत में भी निष्ठा के बल से होता है । तुम्हारे यही आत्मभगवान सखू भी बन सकते हैं, नरसिंह भी बन सकते हैं, कृष्ण-कन्हैया और राम बनकर भी प्रकट हो सकते है । हे मानव ! तुम्हारे आत्मा-परमात्मा में कितना सामर्थ्य है तुम्हें पता नहीं । तुम्हारा सच्चिदानंद परमात्मा सत्ता, सामर्थ्य, सौंदर्य और आनंद से भरा है । उसकी प्रीति, स्मृति और उसमें विश्रांति पाकर निरहंकार, निर्मम, निर्दुःख हो जाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 9-11 अंक 199

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