सदोष और निर्दोष सुख

सदोष और निर्दोष सुख


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जिन-जिन लोगों ने पूर्व समय में मनुष्य जन्म पाकर समय, शक्ति का सदुपयोग नहीं किया है वे ही अभी वृक्ष, कीट-पतंग आदि योनियों में दुःखी, परेशान होते दिखायी देते हैं ।

भगवान ने हमें दुःखी बनाने के लिए थोड़े ही पैदा किया था ? शुद्ध सुख में हमारी गति हो जाय इसीलिए तो मनुष्य जन्म दिया था और हमने उसका दुरुपयोग कर दिया, निर्दोष सुख न लिया । मनुष्य जितना ज्यादा सदोष (दोषमुक्त) सुख लेता है, उसे फिर उतना ही ज्यादा हलकी योनियों में जाना पड़ता है ।

हम सदोष सुख लेते-लेते इतने दोषी हो जाते हैं कि फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेना पड़ता है । जो बहुत विलासी होता है वह पेड़ बन जाता है, फिर कुल्हाड़े की मार, पक्षियों की चोंचें, आँधी-तूफान आदि सहता है और फरियाद करने की, कुछ कहने की क्षमता नहीं रहती । पशु बनो, जंतु बनो… क्यों ? क्योंकि मनुष्य जन्म मिला था जिस निर्दोष सुख को लेने के लिए, उस सुख के लिए तो कुछ किया नहीं, संदोष सुख में जीवन गँवा दिया ।

ऐसे लोग जिनका ज्यादा विलासी-विकारी जीवन नहीं है वे दुबारा मनुष्य बन जाते हैं और यदि वे थोड़ा निर्दोष सुख लेने की तरफ भक्ति की तरफ बढ़ते हैं तो देवता बन जाते हैं । लेकिन यदि जीते जी कोई आत्मवेत्ता महापुरुष मिल गये और शुद्ध सुख, निर्दोष सुख लिया तो निर्दोष सुख लेते-लेते स्वयं निर्दोष हो जायेगा, फिर चौरासी लाख जन्मों में मिलने वाली पीड़ा सब माफ हो जाती है ! निर्दोष ब्रह्म हो जाता है । इसलिए निर्दोष सुख लेना चाहिए । निर्दोष सुख तो अपना आपा है । निर्दोष सुख लेने वाला स्वयं भी दुःखी नहीं होता और दूसरे का भी शोषण नहीं करता । सदोष सुख लेने  वाला स्वयं भी पीड़ित होता है और दूसरों को भी पीड़ा पहुँचाता है ।

साधू ऐसा चाहिए दुखे दुखावे नाहिं ।

फूल पात तोड़े नहीं रहे बगीचे माँहिं ।।

संसार रूपी बगीचे में रहे लेकिन दूसरे को दुःख नहीं दे और खुद भी दुःखी न हो । भोगी आदमी स्वयं भी दुःखी होता है, औरों को भी दुःख देता है, औरों से भी ठगी-बेईमानी करता है ।

बोलेः ‘बच्चों के लिए, पत्नी-परिवार के लिए इतना तो करना पड़ता है ।’

अरे ! ये सब चीजें साथ में चलेंगी नहीं लेकिन इनको प्राप्त करने के लिए जो कूड़-कपट, पाप किया वे सब साथ में चलेंगे । जिस शरीर की सुविधा के लिए इतने-इतने पापकर्म किये, वह शरीर तो इधर ही जला देना है लेकिन गलत कर्म करके जो मन मलिन बनाया वह तो साथ में चलेगा । इस शरीर को सुखी करने के लिए, ऐश कराने के लिए क्या-क्या किया – दारू पिया, मांस खाया, झूठ बोले…. । यह शरीर तो एक दिन जला देना है । तो जिसको जला देना है उसके लिए सारी जिंदगी दोषयुक्त कर्म किये और मर जाने के बाद जो अंतःकरण साथ में चलेगा वह भी दोषी हो गया । जड़ शरीर की तरफ लगाव ज्यादा हो गया तो फिर वृक्ष, हाथी, भैंसा आदि की देह मिलती रहेगी । जड़ शरीर के साथ जितनी प्रीति, उतना फिर अपना अंतःकरण जड़ीभाव को प्राप्त होता है । निर्दोष सुख, आत्मा की तरफ जितनी प्रीति, उतना अंतःकरण आत्मामय हो जाता है । जैसे पानी न, दूध में मिलाओ तो दूध का रंग और शराब में मिलाओ तो शराब का रंग पकड़ लेता है, ऐसे ही मन को देह के साथ मिलाओ तो देहमय हो जायेगा । पटेल, सिंधी, गुजराती जिस भाव के साथ मिलाओ, वैसा अपने-आपको मानने लग जायेगा । ऊपर-ऊपर से मानने लगे और अंदर से जाने कि ‘यह सब कल्पना है, वास्तव में चैतन्य आत्मा हूँ’ तो कोई हरकत नहीं । लेकिन अब उसी मन को ब्रह्म में मिला दो जिससे वह ब्रह्म हो जाय । निर्दोष सुख लेने से मनुष्य स्वयं निहाल हो जाता है और जो उसके संपर्क में आते हैं उनका भी बेड़ा पार हो जाता है । जैसे भगवान राम जी थे, गुरु की सेवा की, गुरु की आज्ञा में रहे, आत्मविचार किया, ‘स्व’ के सच्चिदानंद स्वभाव को जाना तो कैसा जीवन बना लिया ! निर्दोष सुख  लिया तो स्वयं सुखी हुए और उनका सुमिरन करके अभी हजारों लोगों को शांति मिलती है । जबकि रावण ने सत्ता का, पद, विलास का सदोष सुख लिया तो अभी हर वर्ष दे दियासिलाई !

तो कोई भी ज्ञानी संत होंगे तो उनके पास श्रद्धापूर्वक जाने से सत्संगियों को, सज्जनों को लगेगा ये बाबा अपने हैं, उनके प्रति अपनत्व लगेगा क्योंकि वे निर्दोष आत्मामय हो गये हैं और आत्मा तो सबके निकट है । इसीलिए हम लोग कहते हैं- ‘राम राम राम, मेरे राम…।’ ‘मेरे रावण, मेरे रावण….’ – ऐसा नहीं कह पायेंगे । ‘मेरा सिकंदर, मेरा सिकंदर…’ नहीं कह पायेंगे । हम जो दोष, अहंकार को पोसकर सुख लेना चाहते हैं, वह सदोष सुख है और जो आत्मा की ओर होकर सुखी होना चाहते हैं वह निर्दोष सुख है । संसार में विष और अमृत दोनों चीजें मिलती हैं, पसंदगी तुम्हारी है । रीति-रिवाज, रिश्ते-नाते, भाईचारा वाहवाही द्वारा अहंकार बढ़ाने वाला वातावरण भी मिलेगा और जिसकी सत्ता से देह चलती है वह चैतन्य परमात्मा ही सब कुछ है, ऐसा करके अपने अहंकार को विसर्जित कराने वाला सत्संग भी मिलेगा । अहंकार तो देह में होगा । देह को जो सुखी करना चाहते हैं वे सदोष सुख चाहते हैं ।

बोलेः ‘फिर संत-महात्मा भी तो बिस्तर पर बैठते हैं, सोते हैं, गद्दी पर बैठते हैं, फूलहार-मालाएँ पहनते हैं, कार में, जहाज में घूमते हैं वे भी तो मजा लेते हैं ।’

देखो, साधु-महात्मा जहाज में, कार में बैठते हैं लेकिन उनका साधु बनने का उद्देश्य क्या है ?

जहाज में बैठने के लिए, फूलमाला पहनने के लिए अगर साधु बने हैं तो ऐसे साधुओं को कोई पूछता भी नहीं । जो परमात्मा के लिए साधुताई में उतर आये हैं और उनको तो कार में, जहाज में या इन वस्तुओं में सुखबुद्धि नहीं होती । वे इन उपकरणों का उपयोगमात्र करते हैं । दूसरों को निर्दोष सुख, ईश्वर का रस पहुँचाने के लिए इन साधनों का उपयोग करते हैं । अब किसी महात्मा को दरिया-पार जाना है तो चलकर तो जायेंगे नहीं, साधन का उपयोग तो करेगे ही ।

देखो, एक आदमी है जो मनौतियाँ मानता है कि जहाज में बैठ जाऊँगा तो प्रसाद बाँटूगा, नारियल फोड़ूँगा । वह पैसा भी खर्च रहा है और  जहाज की यात्रा करने के बाद नारियल भी फोड़ता है, प्रसाद भी बाँटता है, खुशियाँ मनाता है । लेकिन जहाज में नौकरी करने वाल पायलट तथा दूसरे मददगार लोग जहाज में बैठते भी हैं, ऊपर से पैसा भी लेते हैं और घड़ी देखते रहते हैं कि कब समय पूरा हो । डयूटी पूरी हुई ततो ‘हाश ! जान छूटी !’ करके घर पहुँचते हैं क्योंकि वे सुख लेने के लिए जहाज में नहीं बैठते, डयूटी के लिए बैठते हैं । जैसे यात्री सैर करने को जाता है, ऐसे पायलट के मन में सैरबुद्धि नहीं है । साधन में होते हुए भी उसमें सुखबुद्धि नहीं है । ऐसे ही देहरूपी साधन में ब्रह्मवेत्ता भी होगा और अज्ञानी भी होगा, बुद्धू भी होगा और बुद्ध भी होगा लेकिन बुद्धु शरीररूपी साधनन में सुखबुद्धि करके जियेगा और बुद्धपुरुष शरीररूपी साधन का उपयोग करने के लिए जियेगा । यात्री और पायलट दोनों बैठे तो हैं जहाज में लेकिन एक डयूटी कर रहा है, दूसरा सैर करने जा रहा है । ऐसे ही हम लोग इस शरीर में जी रहे हैं, जा रहे हैं, आ रहे हैं तो सैर करने की बुद्धि से जा रहे हैं, आ रहे हैं तो सैर करने की बुद्धि से जी रहे हैं कि किसी के उपयोग में आने के लिए जी रहे हैं ? अगर किसी के उपयोग में आने के लिए जी रहे हैं, खा-पी रहे हैं, जहाज में आ-जा रहे हैं तो हो गया निर्दोष जीवन और विलास करने के लिए जी रहे हैं तो हो गया सदोष जीवन ।

मनुष्य जन्म में संभावना है । आप जितना महान होना चाहें, जितना ऊँचा उठना चाहें उठ सकते हैं और जितना नीचे गिरना चाहें गिर भी सकते हैं । अपना जीवन ईश्वर के ज्ञान से, ईश्वर की भक्ति से, सेवा से, परोपकार से, निर्दोषता से जितना भरना चाहें उतना भर सकते हैं और जितना खाली कर डालें उतना खाली हो सकता है । पुण्यकर्म करके ऊँचा उठना यह मनुष्य-जन्म का तप है । पशु पुण्य नहीं कर सकता, पाप मिटा नहीं सकता । मनुष्य कर्म को काट भी सकता है, कर्म बढ़ा भी सकता है ।

एहि तन कर फल बिषय न भाई । (श्री रामचरित. उ.कां. 43.1)

यह शरीर विषयभोग के लिए नहीं मिला । यह शरीर मिला है निर्दोष परमात्मा का सुख लेने के लिए, शुद्ध आनंद लेने के लिए । शुद्ध कृत्य करते-करते हृदय शुद्ध होता जायेगा । हृदय जितना शुद्ध होगा उतना शांत रहेगा और जितना शांत रहेगा उतना शांतस्वरूप परमात्मा के करीब आ जायेगा । इसके लिए केवल तड़प हो जाय बस, बाकी का काम तो भगवान कर देते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 20-22 अंक 199

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