कर्म का फल

कर्म का फल


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

वृन्दावन में बलेदवदास जी महाराज हो गये । वे बहुत अच्छी सूझबूझ के धनी थे । वे सुबह तीन बजे उठते और वृन्दावन की प्रदक्षिणा करने के लिए निकल जाते तथा सूरज उगते-उगते वापस आते । एक दिन उन्होंने देखा कि कुछ लोग भंडारा कर रहे हैं ।

बलदेवदास जी बोलेः “अरे ! इतनी जल्दी, अँधेरे में भंडारा ! अभी तो सूरज भी नहीं उग और इधर भंडारा हो रहा है ! क्या बात है ?”

वे लोग बोलेः “महाराज ! आओ, आप भी पराँठा खा लो ।”

“मैं सूरज उगने के बाद, नियम आदि करके देर से कभी नाश्ता लेता हूँ । सुबह-सुबह खाना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है । सुबह-सुबह मैं तुम्हारा पराँठा क्यों खाऊँगा ! पराँठा तुम्हारा है लेकिन पेट तो हमारा है !”

“महाराज ! खा लो, खा लो, बहुत बढ़िया है ।” उन लोगों ने बहुत हाथाजोड़ी की तो महाराज ने कंधे पर जो अँगोछा था, उसे आगे करके कहाः “इसमें बाँधकर दे दो ।” पत्तल आदि में पराँठा डालकर अँगोछे में बाँधकर महाराज को दे दिया कि ले जाओ, उधर खाना । पराँठा लेकर बलदेवदास जी महाराज पहुँच गये अपनी कुटिया पर । सूर्यनारायण उदय हुए । अपना नियम किया, तुलसी के पत्ते खाये, सूर्य की धूप में स्नान (सूर्यस्नान) किया, फिर वह अँगोछा उठाया, खोला तो पराँठा तो था लेकन पराँठे के अंदर माँस था । उनकी तो चीख निकल गयीः ‘बाप रे ! माँस का पराँठा ! ऐ ! छीः ! छीः !!’ जैसे अंदर आलू डालकर पराँठा या पूरणपूड़ी (विशेषप्रकार की मीठी रोटी) बनाते हैं, ऐसे मांसपूड़ी बनायी गयी थी । सोचने लगे, भंडारा और मांस ! यह सब क्या है ? वे कौन हैं ? मैं उनसे पूछूँगा ।’

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठे और उसी रास्ते से प्रदक्षिणा करते उधऱ पहुँचे । देखा तो उनका भंडारा चालू था ।

बोलेः “तुम तो कोई साधु जैसे, कोई पुजारी जैसे कपड़े पहनते हो लेकिन कल भंडारा किया तो हमको मांसवाली रोटी दी ! मैंने तो अँगोछा भी फेंक दिया । सच बताओ, तुम लोग कौन हो ? हिन्दू धर्म को भ्रष्ट करने के लिए ऐसा करने वाले तुम कोई विदेशी लोग हो कि कोई और हो ? आजकल कई विदेशी लोग हिन्दू साधुओं जैसे कपड़े पहन कर घूमते हैं । बोलो, तुम कौन हो ? मुसलमान में से हिन्दू बने हो कि क्रिश्चियन में से हिन्दू बने हो ?”

बोलेः “हम साधु नहीं हैं । हमने इस वृन्दावन जैसी जगह पर जरा साधु जैसे कपड़े धारण कर लिये है । हम तो भूत हैं भूत !”

महाराज ने कहाः “इतने सारे ?”

बोलेः “हाँ, हम वृन्दावन में, भगवान के धाम में तो रहते थे लेकिन हमने तीर्थ में न करने जैसा काम किया – मांस आदि न खाने जैसा खाया, दान का माल हड़प किया, व्यभिचार किया, गड़बड़ी की, धर्म के नाम पर लोगों से धोखा किया इसलिए हम प्रेत होकर भटक रहे हैं । सात महापुण्य क्षेत्रों में मरने पर यमदूत जीवात्मा को नरक में ले जाने के लिए नहीं आते – अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, उज्जैन और द्वारिका ।

तो बाबा ! हमने पापकर्म तो नरक में जाने जैसे किये थे लेकिन स्थान के प्रभाव से यमदूत हमको नरक में नहीं ले जा सके, इसलिए हम प्रेत होकर इधर ही भटक रहे हैं । यह हम प्रेतों का भंडारा है ।”

अन्यक्षेत्रे कृतं पापं तीर्थक्षेत्रे विनश्यति ।

तीर्थक्षेत्रे कृतं पाप वज्रलेपो भशुविष्यति ।।

‘और जगह किया हुआ पाप तीर्थक्षेत्र में जाओ तो मिट जाता है परंतु तीर्थक्षेत्र में किया हुआ पाप वज्रलेप हो जाता है ।’

मनुष्य न करने जैसे कर्म तो कर डालता है लेकिन जब कर्म फल देने को आता है तब दुःखी होता है, घबराता है, रोता है और तरह-तरह की नारकीय यातनाओं का शिकार बनता है । इसलिए कर्म करने में सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।

शुभ और अशुभ कर्मों का फल जरूर, जरूर, जरूर भोगना पड़ता है ।

कुसंग में आदमी गड़बड़ करता है, फिर गिरते-गिरते जब प्रेत होकर अशांत होता है, आग में जलता है तब पता चलता है । इसलिए अच्छे संग की खूब महिमा है । संतों के संग से, भक्तों के संग से और नियम-निष्ठा से अच्छा संग मिलता है, नहीं तो फिसलने वाला संग तो बहुत मिलेगा । लोग चापलूसी करके तुमसे न करने जैसे पापकर्म करा लेंगे और जब कर्म बंधन बनकर आयेगा तो कोई पूछेगा नहीं । जो पापकर्म करते हैं उन्हें मरने के बाद प्रेत होकर भटकना पड़ता, नहीं तो पेड़-पौधे बन जाते हैं, छिपकली बन जाते हैं, घोड़ा-गधा, कुत्ता आदि बन जाते हैं और जो गर्भ में नहीं टिक पाते वे नाली में, गटर में बह जाते हैं, दुःखी होते हैं । और जो सत्संग में जाता है, सत्संग सुनता है उसका मन, बुद्धि, विचार सब ऊँचा हो जाता है, जिससे वह पापकर्मों से बच जाता है । उसको ये यातनाएँ नहीं भोगनी पड़तीं । जो पापकर्म करते हैं, उनको तो बहुत दंड मिलता है, बहुत सजा भोगनी पड़ती है ।

ऐसा नहीं है कि भगवान वैकुण्ठ में बैठकर इसका ऐसा करो, इसका ऐसा करो – इस प्रकार कर्मों का फल सुनिश्चित करता है । अरे ! कोई एक दो आदमी का, दस आदमी का करे तो भी वह पागल हो जाय ! करोड़ों आदमियों का दिन भर भगवान ऐसा करेगा क्या ? कर सकता है क्या ?

तो भगवान सबको, सबके शुभ-अशुभ कर्मों को कैसे देखता है ? अरे ! वह ज्ञानस्वरूप अंतरात्मा होकर सबके अंदर बैठा है । ऐसा नहीं कि उधर (ऊपर) बैठकर कोई देखता है, वह यहीं अंतरात्मरूप से देखता है । भगवान के इस विधान को समझकर बुद्धि का विकास करना चाहिए । सत्संग में जो सुना है, संतों ने, सत्शास्त्रों ने जो नियम बतायें हैं – क्या खाना – क्या न खाना, किससे मिलना-किससे न मिलना, क्या कर्म करना-क्या न करना उनका पालन करना चाहिए । ऐसे कर्म क्यों करना जिससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाय, पुण्य नष्ट हो जाय । कोई नहीं देखता फिर भी अंतर्यामी तो जानता है, गुरु भी जानते हैं ऐसा समझकर कर्म ऐसे करें कि करने का अंत हो जाय, वास्तविक जीवन जानकर अमरता का अनुभव हो जाय, जन्म-मरण का बंधन टूट जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 200

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