आदर तथा अनादर….

आदर तथा अनादर….


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

दुर्लभो मानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः ।

तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ।।

‘मनुष्य देह मिलना दुर्लभ है । वह मिल जाय फिर भी वह क्षणभंगुर है । ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है ।’

यह शरीर, जो पहले नहीं था और मरने के बाद नहीं रहेगा, उसी के मान-सम्मान में अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर जीवन व्यर्थ में खो देना बुद्धिमानी नहीं है । जहाँ जरा सा आदर मिला वहाँ चक्कर काटते हैं । उद्घाटन समारोहों में फीता काटते फिरते हैं कि मान मिलेगा, अख़बार में नाम आयेगा । अरे ! उन फीता काटने वालों को ब्रह्मज्ञानी गुरुओं के पास जाना चाहिए और फीता काटने का शौक कम करना चाहिए । मस्का पालिश करने वाले दस-बीस-पचास आदमी तुम्हारा जयघोष कर देंगे, लाख आदमी जयघोष कर देंगे तो क्या हो जायेगा ? अधिक वाहवाही के गुलाम हो जाओगे तो अनर्थ कर लोगे, चापलूसों के चक्कर में आकर अन्य कर बैठोगे ।

नहीं-नहीं, आदर करवा के अपने शरीर में अहं मत लाओ और अनादर के भय से अपनी साधना और ईश्वरप्राप्ति का मार्ग मत छोड़ो । ये सब धोखा देने वाले हैं, इनसे सावधान हो जाओ ! आदर हो गया, अनादर हो गया, स्तुति हो गयी, निंदा हो गयी….  कोई बात नहीं, हम तो करोड़ काम छोड़कर प्रभु को पायेंगे । बस, फिर तो प्रभु तुम्हारे हृदय में प्रकट होने का इंतजार करेंगे । पहले तो तुम्हारा शोक और चिंता मिटेगी, फरियाद मिटेगी फिर धीरे-धीरे अंदर प्रकाश होगा, कई रहस्य प्रकट होने लगेंगे ।

लोग ईश्वरप्राप्ति के लिए वेश बदल लेते हैं लेकिन मान मिलता है तो फिर मान के ऐसे आदी हो जाते हैं कि देखते रहते हैं कि कहीं हमारे मान में कमी तो नहीं हुई !… तो मान के गुलाम हुए तो काहे की समझदारी रही ?

मान पुड़ी है जहर की, खाये तो मर जाय ।

चाह उसी की राखता, वह भी अति दुःख  पाय ।।

आदर तथा अनादर, वचन बुरे क्यों भले ।

निंदा स्तुति जगत की, धर जूते के तले ।।

मान चाहने वाला भगवान का भक्त नहीं रहता, वह तो मान का भक्त हो जाता है । लोग मान दें साधु के नाते, भगवान के नाते लेकिन आप अमानी रहो, आप मान-अपमान के भोगी नहीं बनो । क्या करना है मान पाके, सहज में जीवन जियो ।

‘ईश्वर मान-मरतबा, इज्जत-आबरू बनाये रखे…. मेरी इज्जत बनी रहे….’ अरे, पानी की बूँद से तो तेरी यात्रा शुरु हुई थी बुद्धू ! और मुठ्ठी भर राख में तू समाप्त हो जायेगा । साधु संन्यासी है तो गाड़ देंगे, जीवाणु बन जायेंगे, जंतु बन जायेंगे, जला देंगे तो राख बन जायेगी । क्यों अभिमान करना ? न साधुताई का अभिमान, न सेठपने का अभिमान, न नेतापने का अभिमान, न धनी होने का अभिमान करो, अगर अभिमान करना ही है तो एक ही अभिमान करो जो तारने वाला हैः ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं । मैं भगवान की जाति का हूँ । हम हैं अपने-आप हर परिस्थिति के बाप !’ यह अभिमान तारने वाला है । शरीर का नाम, इज्जत-आबरू ये सब फँसाने वाले हैं ।

मत कर रे भाया गरव गुमान गुलाबी रंग उड़ी जावेलो ।

उड़ी जावेलो रे, फीको पड़ी जावेलो रे, काले मर जावेलो…

धन रे दौलत धारा माल खजाना रे…

छोड़ी जावेलो रे पलमां उड़ी जावेलो ।।

पाछो नहीं आवेलो… मत कर रे गरव….

‘यह धन मेरा, मैं धनवान ।’ धन को पता ही नहीं कि मैं इसका हूँ । ‘यह मकान मेरा, मैं मकानवाला’, ‘यह खेत मेरा, मैं खेतवाला’, ‘यह पैसा मेरा, मैं पैसेवाला’, ‘ये गहने गाँठे मेरे, मैं गहने गाँठोंवाली’ लेकिन माई ! देवि ! ये इतने बेवफा हैं कि तेरे को पहचानते ही नहीं हैं । इनको कोई उठाकर ले जाय तो बोलेंगे भी नहीं कि ‘मौसी हम जा रहे हैं । बाय-बाय ! टाटा !….’ कुछ नहीं करेंगे । ये बड़े बेवफा हैं । इनकी चिंता या चिंतन करके फँस मरने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है । तुम्हारा जन्म तो महान परमात्मा का ज्ञान पाकर महान बनने के लिए हुआ है । उस लक्ष्य को अगर पाना है, महान बनना है, अपने स्वरूप को जानना है तो

आदर तथा अनादर, वचन बुरे क्यों भले ।

निंदा स्तुति जगत की, धर जूते के तले ।।

खुशामदखोर स्तुति करके तुमसे गलत न करवा लें अथवा कोई अखबारें पैसा दबाकर तुम्हारी निंदा लिख दें तो डरो मत । अंग्रेजों के पिट्ठू गाँधी जी की कितनी निंदा करते थे, फिर भी गाँधी जी डटे रहे । देशवासी गाँधी जी की सराहना करते थे, फिर भी वे अभिमान में कभी चूर नहीं हुए । स्तुति करने वाले की अपनी सज्जनता है, भगवान की लीला है, निंदा करने वाले का अपना नजरिया है !  न निंदा में सिकुड़ो न स्तुति  फूलो, भगवान को सामने रखो, अपने लक्ष्य को सामने रखो ।

जिनको काम बनवाना होगा वे तो स्तुति कर लेंगे, खुशामद कर लेंगे, आप उनके प्रलोभन में न आइये, सावधान रहिये, अपना कर्तव्य करते जाइये । इससे आप स्तुति के योग्य रह जायेंगे । स्तुति में फिसले तो स्तुति नहीं टिकेगी ।

निंदा से भिड़े तो निंदा बनी रहेगी, निंदनीय काम किये तो निंदा बनी रहेगी लेकिन सत्य के आपके हृदय में जगमग-जगमग प्रकाशित होगा । फिर आपकी कोई निंदा करे तो आपको परवाह नहीं, उसकी मति कुदरत मार देगी । कई लोग पैसे देकर अखबारों में क्या-का-क्या लिखवाते हैं, अपने पैसे नष्ट करते हैं और अपनी आबरू भी गँवाते हैं । मेरे सत्संग में तो लोगों की संख्या बढ़ रही है । भीड़ कम भी हो जाय तो मेरे को क्या लेना है उससे !

तो आप निंदनीय कार्य नहीं करते फिर भी कोई निंदा करता है और आप अपनी महिमा में मस्त रहते हैं तो निंदा करने वाले को भगवान सद्बुद्धि देंगे । अगर सद्बुद्धि ली तो ठीक है, नहीं तो फिर प्रकृति की खूब मार पड़ती है, प्रकृति घुमा-घुमाकर प्रहार करती है ।

एक आदमी था । वह जरा बोलाः ‘यह ऐसा क्या है ?’ फिर थोड़ा और जोरों से निंदा करने लगा । फिर प्रकृति ने ऐसा घुमा-घुमाकर दिया कि दुर्घटना में लँगड़ा हो गया । फिर उसे कुछ स्वप्न आया, अब तो वह समिति में सेवा करता है बेचारा । तो आप अपनी तरफ से किसी का  अहित नहीं सोचो, किसी की निंदा न करो । आप भगवान के लिए सत्कर्म में लगे रहो तो बाकी सब भगवान देख लेते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 201

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